जब जाएँ बच्चों के साथ रहने सरिता

जब जाएँ बच्चों के साथ रहने

       शर्माजी अवकाश प्राप्ति के बाद अपनी पत्नी के साथ अपने छोटे से शहर में अपने बनाये हुए घर में एक तरह से आराम से ही रह रहें थें. अकेलापन और बच्चों से दूरी अवश्य खलती थी पर उन्हें और खास कर उनकी पत्नी को ये तसल्ली रहती थी कि वे किसी पर आश्रित नहीं हैं. साल में एकाध बार सपत्नी दो-चार दिनों के लिए वे दोनों बेटों के यहाँ घूम आतें और इसी तरह बेटे भी सपरिवार इनके पास से चक्कर लगा जातें. शर्माजी और उनकी पत्नी जब बेटों के यहाँ से घूम कर आतें महीनों उनकी जीवन शैली, छोटे घर और खान-पान पर चर्चाएँ करतें और सुकून के घूँट भरतें कि उन्हें बेटे के घर में रहने की जरूरत नहीं है. बेटों के भी बच्चें और काम की जिम्मेदारियां समय के साथ बढ़ते जा रहें थें सो वे आग्रह करतें कि माता-पिता ही आयें और अधिक दिन साथ रहें. पर शर्माजी को एक तरह से अपनी आत्मनिर्भरता पर अहंकार सा था. उन्हें महसूस होता कि जो उनकी जीवन शैली है वही श्रेष्ठ है, बच्चों को भी वैसे ही रहनी चाहिए. इसी तरह श्रीमती शर्मा को लगता कि जो उनकी रसोई में पकता आया है वही सही और संतुलित है, बहुओं की कार्य शैली पर उनके हज़ार शिकायतें रहतीं. यूं अहंकार और आत्मसंतुष्टि में जीवन ठीक ही कट रहा था पर मुश्किल तब आई जब शर्माजी को एक दिन हार्ट-अटैक आया. उनके छोटे से शहर में सही इलाज़ संदिग्द्ध थी और बेटे कितनी  छुट्टियां लेतें सो एक बेटा जो दिल्ली में रहता था उन्हें अपने पास  ही बुला लिया. ओपन हार्ट सर्जरी के बाद जब तक शर्माजी अस्पताल में रहें,  तब तक लगभग सब ठीक ही चला. श्रीमती शर्मा सुबह बहू द्वारा दी गयी टिफ़िन ले कर अस्पताल चली जातीं और शाम को आती. रात को बेटा अस्पताल में रहता. परन्तु जैसे ही शर्माजी अस्पताल से डिस्चार्ज हो घर लौटें, उन दोनों की परेशानियां शुरू हो गयी. उन्हें लगता कि वह जल्द से जल्द अपने घर लौट जाएँ परन्तु पूर्ण स्वस्थ होने तक तो उन्हें रुकना ही था. दो दिन पहले भगवान् स्वरुप दिखने वाले बेटे-बहू में उनको हज़ार खोट नज़र आने लगी. हर आते-जाते मिलने वाले रिश्तेदारों से दो बेडरूम फ्लैट में हो रहे तकलीफों का जिक्र करतें. सुबह शाम खाने में नुक्स निकालते. यानी दोनों कुछ यूं व्यवहार करतें जिससे, बेटे के घर में हो रही उनकी असंतुष्टि और असहजता जाहिर हो जाती. धीरे धीरे बेटे-बहू  को लगने लगा कि कितना भी करों इन्हें खुश नहीं रखा जा सकता है और रिश्तों में धीरे -धीरे दुराव आने लगा. बाद के वर्षों में जब बुढ़ापा अधिक हावी होने लगा तो उन्होंने बेचारगी का चोला ओढ  लिया और समाज में अपने ही बच्चों की बुराई करतें फिरने लगें.
           ये सच्ची घटना एक बानगी है, जब आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर माता-पिता को बच्चों के घर जा कर रहना पड़ता है. अपनी सम्पन्नता से ऐंठे-ऐंठे से ये बुजुर्ग उस वक़्त बेहद आहत होतें हैं जब इन्हें बच्चों के साथ उनकी गृहस्थी में रहना पड़ता है. उन्हें अपनी निजता छिनती सी महसूस होती है. ऐसा नहीं हैं कि हर समृद्ध बुजुर्ग दंपत्ति शर्माजी की ही तरह व्यवहार करतें हैं.
       शर्माजी के ही मित्र हैं राजेश्वरजी, जो अपने तीनों बच्चों के यहाँ हमेशा आते-जातें रहतें हैं. शर्माजी की तरह सिर्फ हाजिरी लगाने जैसे दो-चार दिनों के लिए नहीं वरन् लम्बी लम्बी प्रवास हेतु. जिसमें कभी किसी बच्चे का जन्मदिन या वर्षगाँठ होता या कोई त्यौहार साथ साथ मन जाता. ऐसी बात नहीं है कि उन्हें हर चीज सर्वश्रेष्ठ ही वहां मिलती  है पर उनका मिलनसार रवैया उनके बच्चों को ये एहसास करा देता कि उनके माता-पिता उनसे प्रसन्न हैं. श्रीमती राजेश्वर अपनी मित्र मण्डली में कहती भी कि अरे अपने घर के तकिये की भी आदत हो जाती है. पर जब बेटा/बेटी के हँसतें मुस्कुराते चेहरों को देखती हूँ तो मनपसंद तकिया बहुत छोटी चीज लगती है. इस तरह सुख के इतने पल साथ साथ बिता चुके होतें हैं कि दुःख या जरूरत के वक़्त बच्चों के घर रहनें में कोई हेठी या परेशानी नहीं होती है.
      सच पूछा जाये तो बच्चों के बड़े होने पर और घर से  बाहर चले जाने के बाद कई लोगो को अपना एकांत पसंद आने लगता है. अपनी निजता अक्षुण रहे इसके लिए वे अपने बच्चों से कटुता पाल लेते हैं. बहुत सारे बुजुर्ग वक़्त के साथ अपने स्वभाव का लचीलापन खो देतें हैं. उस पर जो आत्मनिर्भर और समृद्ध होतें हैं, उनका अहम्  उन्हें बच्चों के साथ रहने पर सामंजस्य स्थापित करने में आड़े आता है. एक और परेशानी है, 'अपेक्षा‌‍' की. कई बार माता-पिता अपनी संतान को अपनी अपेक्षाओं की बोझ तले कुचल से देतें हैं. इसका मतलब ये नहीं कि हम अपने बच्चों से बिलकुल अपेक्षा ही नहीं रखे, अवश्य रखें पर बच्चों की भी स्तिथी -परिस्तिथियों को ध्यान रखतें हुए.
       कोलकाता में रहने वाले घोष बाबू ने अपने इकलौते बेटे अनिकेत  को इंजिनियर क्या बनाया उन्हें तो मानों जादू की छड़ी हाथ लग गयी. अनिकेत को भली-भाँती एहसास था कि उसके बापी ने काफी मशक्कत कर उसे इस मुकाम तक पहुँचाया है. नौकरी लगते ही वह घोष मोशाय की  छोटी-बड़ी जिम्मेदारियों को उठाने लगा था. पर जब -जब माँ-बापी उसके पास रहने मुम्बई जातें, तो उसके एक बेडरूम फ्लैट में हो रही परेशानियों की खूब शिकायतें करतें और अनिकेत को कहतें रहतें कि जाने क्या कमाते हो?  बेचारा अनिकेत उनके आने के नाम से संभावित अशांति को सोच घबरा जाता.
        कितनी बार माँ, बेटे के घर में भी वही नियम-कानून लागू  करना चाहती है जो वह सदा से करती आई है. जबरदस्ती संस्कार और परम्पराओं के नाम पर बहू को एक तरह से प्रताड़ित कर जाती है. ठीक उसी स्वाद के खाने की अपेक्षा करतीं हैं जो वो पकाती आयीं हैं. या तो बहू लिहाज करती हुई घुटती हुई सहन करती जाती है या फिर गृह-कलह. दोनों ही परिस्तिथियों में बेटे-बहू माँ के आने के नाम से ही घबराने लगतें हैं.
       जैसे श्रीमती खन्ना की बेटी या बहू, उनके आने के नाम से ही घबरा जातीं क्यूंकि श्रीमती खन्ना उनके घर जातें ही पूरी कमान संभल लेतीं और उन्हें अपने हिसाब से कार्य करने का निर्देशन देने लगतीं. मसलन सुबह दफ्त्तर जाने के पहले ही सारा खाना बनें रात को पका भोजन तो बासी हो गया जिसे वो नहीं खायेंगी. दफ्त्तर जाने की सुबह की हडबडियों से बचने हेतु  उनकी बेटी बहुत सारा काम रात को ही निपटा लेती थी. अब जब वो बेटी के घर जाती उसे बहुत सुबह उठने को मजबूर करतीं, जिससे वह दिन भर थकावट महसूस करती.
      एक और भी तरह की मानसिकता होती है माता-पिता की.  अपने नाते रिश्तेदारों या मित्रों को अपने बच्चों की शिकायतें करना और सब की निगाहों में 'बेचारा' बन जाना. ऐसे में बच्चें रिश्तेदारों से मिलने में कन्नी काटने लगतें हैं क्यूंकि मिलते ही वे कैफ़ियात मांगने लगेंगे कि वे अपने माता-पिता  की देखभाल क्यूँ नहीं करतें  है. वहीं कुछ मातापिता ख़ुशी की अतिरेक में बच्चों के यहाँ अपने प्रवास की बातें खूब बढ़ा-चढा कर जातें हैं. शायद उनका मंत्वव्य सकारात्मक ही होता है पर जब बच्चें इन बातों को सुनते हैं तो उन्हें ये महसूस होता है कि उन्होंने शायद अपने मातापिता की ये इच्छा नहीं पूरी की.
               जैसे केशु भाई पटेल जब अपनी अर्द्धांगनी के साथ पहली बार विदेश, सिडनी अपने बेटे जितेश के पास गएँ तो बेहद खुश हुए. ख़ुशी की अतिरेक में बेटे के सामने ही अपने भाई से फोन पर बातें करते हुए केशु भाई अपने बेटे का गुणगान करतें हुए कह गएँ कि मेरा बेटा तो हर दिन कहीं न कहीं हमें ले कर घूमाने जाता है. जबकि सच्चाई ये थी सिर्फ सप्ताहांत की  छुट्टियों में ही वह उन्हें कहीं घुमाने ले जा पा  रहा था. जितेश को अंदर ही अंदर ग्लानि हो गया  कि शायद पिताजी की ये इच्छा है कि मैं हर दिन उन्हें कहीं घुमाने ले जाऊं.
        पश्चिमी देशों के विपरीत अपने देश में मातापिता बच्चों को काफी बड़ी उम्र तक पालन-पोषण करतें हैं. सो अपेक्षा न हो ऐसी बात नामुमकिन सी है. परन्तु  सचाई तो यही है कि माता-पिता बीते हुएं कल हैं और उनके बच्चे वर्तमान. वर्तमान का ये फर्ज है कि वह अपने अतीत की देखभाल करे और बीता कल वर्तमान पर भरोसा करें. अपने द्वारा रोपित संस्कारों के बीज पर भरोसा करें. परन्तुं जब उनके साथ रहें तो उनके जीवन का भी लुफ्त उठायें. सुखी और बेजरूरत भी साथ रहना या मिलते-जुलते रहना भी ज्यादा महत्वपूर्ण है तभी एक दुसरे की आदत भी पड़ेगी. अन्यथा बिमारी के दौरान  या अति वृद्धावस्था में अचानक साथ रहने में दोनों को परेशानी होगी क्यूंकि तब तक दोनों एक-दूसरे की आदतों से अनभिज्ञ हो चुके होंगे.
 जब बच्चों के घर जाएँ,

१- ज्यादा टोका-टाकी और नुक्ता-चीनी करने से बचें.
२-जो काम कर सकतें हैं उसे कर उन्हें सहयोग करें.
3-खुद को मेहमान समझ खातिरदारी की अपेक्षा न करें.
४-बच्चों के खान-पान को आत्मसात करें,  कम से कम कोशिश तो करें.
५-बच्चों के रूटीन में आप एडजस्ट हो.
६-बदलाव की अपेक्षा की जगह खुद पहल करें बदलाव की.
७-दूसरों के बच्चों की कहानियाँ ज्यादा न सुनाएँ क्यूंकि अब वे बच्चें नहीं हैं.
८-अपना जीवन तो आप सदा अपने हिसाब से जीते ही आयें हैं जरा नए ज़माने के हिसाब से जी कर देखें.
९-अपनी ही संतान से किसी भी तरह की पूर्वाग्रह या दुराग्रह से बचें.
१०-प्रसन्नचित्त रहें और माहौल को खुशनुमा बनाए  रखने की कोशिश करें.
११-आप अपने जीवन की  चरम उपलब्द्धियों  तक पहुँच चुकें हैं जबकि बच्चों की शुरुआत है. सो कमियों को नजरांदाज करना सीखें.
12- 'हमारे ज़माने में तो...' का  गीत कम ही गायें तो बेहतर.
१३- रीत-रिवाज के नाम पर ज्यादा बंदिशें ना लगायें.
१४- जरा सोचिये जिनके बच्चें नहीं होतें हैं, आप खुश नसीब हैं.
१५- अपने धन-समृद्धि का अहंकार बच्चों से कदापि न करें. अहम् की पोटली छोड़ कर जाएँ.
    बच्चें आपके बंधुआ नहीं जो अपने लालन-पालन की कीमत आपके हिसाब से जी कर चुकाने को बाध्य हों. बच्चें आपके ही हैं पर साथ ही साथ वे सर्वथा एक भिन्न स्वतंत्र व्यक्तित्व भी हैं जिसका मान रखना भी माता-पिता का कर्तव्य है.
   


   
 



   





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