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स्मृतियों के आगे कुछ

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स्मृतियों के आगे कुछ     सुधाकर, निर्विकार भाव से अस्पताल के वातानुकूलित कमरे के बेड पर पड़े अपने पिता जी को देख रहा था। बिलकुल निष्क्रिय व् निष्प्राण सदृश्य शरीर मानों बस आत्मा   का बोझ ढो रहा हो। शरीर की सबसे मजबूत हड्डी, सबसे लम्बी हड्डी, मांस-मज्जा, चतुर-चालाक मस्तिष्क , लम्बे डग भरने वाले कदम , बात बात पर उठ जाने वाला हाथ ...सब शिथिल हो चुके थे पर ‘जुबान’ बिना हड्डी-पसली का ये अंग आज भी सक्रियता से अपनी भूमिका यथावत निभा रहा था। जीने की अदम्य इच्छा और मोह उन्हें शायद इस संसार से अब तक जोड़े रखा हुआ था। शायद ये गलतफहमी हो कि यदि साँसों ने चोला छोड़ा तो उनके पीठ पीछे यहाँ दुनिया में ख़ास कर सुधाकर की जिन्दगी में कुछ उनकी चाहत के विपरीत हो जायेगा , सुधाकर को बैठे-बैठाये कुछ ऐसा ही महसूस हो रहा था और विद्रूप सी एक स्मित मुस्कान चेहरे पर आ गयी. पास से गुजर रही नर्स उसे यूं अकेले मुस्कुराते देख हंस पड़ी। “ मुझे ठंडी लस्सी पीनी है वो भी भागीरथ हलवाई के यहाँ की , जा भाग कर ले आ .... ”, रोबीला आवाज जो आज भी अपनी जवां दौर की गर्मी रखता था , गूँज उठा। “ लगता है मेरी मुस्क