आवारागर्दियों का सफ़र - साहित्य अकादमी की पत्रिका इद्रप्रस्थ भारती दिसम्बर अंक में प्रकाशित
आवारागर्दियों का सफ़र गर्मियों की उमस भरी शाम थी, अनु को कोठरी में दम घुटता सा महसूस हुआ तो वह चारपाई उठा छत पर बिछा उस पर लेट गया. चार दिन की लम्बी उबाऊ थकावट वाली सफ़र पूरी कर आज उसे फुर्सत मिली थी. नस नस में सफ़र की थकन भरी पड़ी थी, उतारे नहीं उतर रही मानों. हर बार लौटने के बाद उसे ऐसा ही महसूस होता. सर के नीचे हथेलियों को जोड़ तकिया बना वह आसमान की तरफ अपलक देखने लगा, पंछियों के झुण्ड दिन भर की आवारागर्दियों के बाद लौट रहें थें. अनु को उनके उड़न में एक हड़बड़ी एक आतुरता महसूस हो रही थी कि तभी एक बड़ा सा झुण्ड बिलकुल उसके पास से होता गुजर गया. उनकी चहचहाट उनकी चपलता उनकी बेसब्रियाँ उनके घर लौटने की ख़ुशी को स्पष्ट रूपेण परिलक्षित कर रहीं थीं. ‘घर’, इन सबका कोई न कोई घर कोई ठिकाना होगा ही, वहां कोई जरुर होगा जो इनका वहां इन्तजार भी कर रहा होगा. जब ये अपनी चोंच में दबाएँ दानों को अपने घरौंदे में धरते होंगे तो कैसी ख़ुशी की लहर दौड़ती होगी इनके अपनों के बीच. ‘परिवार’ इन पंछियों का भी होता होगा क्या? होता ही होगा, दुनिया में हर एक का एक परिवार अवश्य ही होता है, सिवाय उसके और अनु के आँखों से ट