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आवारागर्दियों का सफ़र - साहित्य अकादमी की पत्रिका इद्रप्रस्थ भारती दिसम्बर अंक में प्रकाशित

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आवारागर्दियों  का सफ़र   गर्मियों की उमस भरी शाम थी, अनु को कोठरी में दम घुटता सा महसूस हुआ तो वह चारपाई उठा छत पर बिछा उस पर लेट गया. चार दिन की लम्बी उबाऊ थकावट वाली सफ़र पूरी कर आज उसे फुर्सत मिली थी. नस नस में सफ़र की थकन भरी पड़ी थी, उतारे नहीं उतर रही मानों. हर बार लौटने के बाद उसे ऐसा ही महसूस होता. सर के नीचे हथेलियों को जोड़ तकिया बना वह आसमान की तरफ अपलक देखने लगा, पंछियों के झुण्ड दिन भर की आवारागर्दियों के बाद लौट रहें थें. अनु को उनके उड़न में एक हड़बड़ी एक आतुरता महसूस हो रही थी कि तभी एक बड़ा सा झुण्ड बिलकुल उसके पास से होता गुजर गया. उनकी चहचहाट उनकी चपलता उनकी बेसब्रियाँ उनके घर लौटने की ख़ुशी को स्पष्ट रूपेण परिलक्षित कर रहीं थीं. ‘घर’, इन सबका कोई न कोई घर कोई ठिकाना होगा ही, वहां कोई जरुर होगा जो इनका वहां इन्तजार भी कर रहा होगा. जब ये अपनी चोंच में दबाएँ दानों को अपने घरौंदे में धरते होंगे तो कैसी ख़ुशी की लहर दौड़ती होगी इनके अपनों के बीच. ‘परिवार’ इन पंछियों का भी होता होगा क्या? होता ही होगा, दुनिया में हर एक का एक परिवार अवश्य ही होता है, सिवाय उसके और अनु के आँखों से ट

आमाके ख़मा करो साहित्यिक पत्रिका दॆनिक जागरण सप्तरंग पुननर्वा 08/01/2018 publushed

आमाके ख़मा करो   प्रबीर ने उसदिन बाबा को अकेले में बड़बड़ाते हुए पाया था. कमरे में दरवाजे की तरफ पीठ किये बैठे बाबा को अकेले में खुद से बाते करतें देख प्रबीर का मन भर आया था. उन की इस अकेलेपन का वह क्या करें, यह सोच प्रबीर का मन भर आया. “माँ को गए तो अभी बमुश्किल दो महीने ही हुए होंगे. अब लाजिमी है कि उनकी कमी खलेगी ही”, प्रबीर की भी आँखे भर आई थी. “बाबा! अन्धोकारे की कोरछो?”, प्रबीर ने बाबा के काँधे पर हाथ रखते हुए बांग्ला में पूछा तो बाबा अचानक चौंक गएँ. “अरे तुम कब आये मुझे तो पता ही नहीं चला?”, आंसू पोंछते हुए बाबा ने चेहरा उसकी तरफ किया और मुस्कुराने की एक असफल कोशिश भी की. “क्या बहू और  मोंटू भी आ गए?” “नहीं बाबा उन्हें लौटने में आज देर होगी”, कहते हुए प्रबीर ने बाबा के कमरे की लाइट आन कर दिया.        रसोई में जा दो कप चाय बना लाया, तब तक बाबा कुछ सहज हो चुके थें और ट्रे में रखे कूकीज उठा कर कुतरने लगें. कुछ क्षणों के लिए सन्नाटा छ गया उनके के बीच. यादों-विचारो की झंझावत में मानों दोनों घिर गएँ. वो जो तीसरी हुआ करती थी इन दोनों को बाँध के रखने वाली अब नहीं थी. ये ब