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काँटों से खींच कर ये आँचल - सखी दिसम्बर २०१७ में प्रकाशित हुई - "और फिर अँधेरा छटने लगा " के नाम से

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और फिर अँधेरा छटने लगा  “काँटों से खींच कर ये आँचल”   क्षितीज पर सिन्दूरी सांझ उतर रही थी और अंतस में जमा हुआ बहुत कुछ जैसे पिघलता जा रहा था. मन में जाग रही नयी-नयी ऊष्मा से दिलों दिमाग पर जमी बर्फ अब पिघल रही थी. एक ठंडापन जो पसरा हुआ था अंदर तक कहीं दिल की गहराइयों में, ओढ़ रखी थी जिसने बर्फ की दोहर, आज स्वत: मानों गलने लगी थी. मानस के नस नस पर रखी शिलाएं अब स्खलित होने को बेचैन थीं. भले जग का सूर्यास्त हो रहा हो पर मेरे अंदर तो उदित होने को व्याकुल हो उठा था. एक लम्बी कारी ठंडी उम्र का कारावास मैंने झेला था, अब दिल में उगते सूरज को ना रोकूंगी. अंतस के तमस को चीरते आदित्यनारायण को अब बाहर आना ही होगा.        धूल उड़ाती उसकी कार नज़रों से ओझल भले ही हो चुकी थी, पर लग रहा था वह सर्वविद्यमान है. अपनी समस्त भौतिकता समेट वह जा चुकी थी पर ऐसा क्या छोड़ गयी थी कि उसका होना मुझे अभी भी महसूस हो रहा था. चुनने लगी मैं सजगता से, यहाँ – वहां बिखरी हुई उसको. चुन चुन मैं सहेजने लगी. कितना विस्तृत था उसका अस्तित्व, भला मैं कितना समेटती. जितना मैं चुन सकी उसको, अपनी गोद में रख मैं बुनने लगी-गुनन