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Showing posts from January, 2020
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गुनगुन थानवी आज की अहिल्या   फेसबुक/ट्विटर  पर अचानक गुनगुन थानवी की पोस्ट ट्रेंड करने लगी है। ये पोस्ट असल में वर्षों से  पाषाण बनी एक अहिल्या के बोल हैं। इतने दिनों तक गूंगी बनी एक डरी सहमी गुड़िया की आँसुओं का बाँध टूटा है,  जो शब्दों के रूप में फेसबुक पर चर्चित होने के साथ ही समाज की  ढँकी छुपी एक कलुषित  चरित्र पर पड़ी काली चादर को खींच पूरी धृष्टता से निर्वस्त्र किया है। ऊँगली तो उसने एक बुढ़ाते स्थापित साहित्यकार की विकृत यौनेक्षा की तरफ़ इंगित किया है। थप्पड़ तो उसने एक नामी गिरामी मृत व्यक्ति को मारा है पर उसकी गूँज से ही बहुतेरे अपने गाल सहलाने लगे हैं। लोग सवाल उठा रहें हैं कि इतने वर्षों के बाद अब ही क्यों इस राज को उठाया , पहले कभी क्यों नहीं। तो इसका उत्तर यही है वर्षो उसने शिला बन हिम्मत रूपी राम की प्रतीक्षा की, अब जा कर वो राम मिले तो पाषाण से शब्द निर्झरणी फूट पड़ी। इंद्र की तरह आभा मंडल वाले उस दिग्गज के समक्ष एक सात साल की अबूझ नादान की क्या बिसात। खुद माता-पिता ने भी नहीं समझा होगा उसकी सिसकियों या बदलते व्यवहार को। शोषित करने वाला अपनी दैदीप्यमान छवि के पीछे एक यौ
राजनीति की गरम गरम रोटियाँ और बच्चों की नरम नरम बोटियों का शोरबा  राजनीति और सत्ता लोभ आज कोई नई बात नहीं है। आदि काल से हर सभ्यताओं, संस्कृतियों और देश-काल में इस की  मुखरता ने समाज को प्रभावित किया है। कोई भी तंत्र रहा हो लोकतंत्र या राजतन्त्र, तानाशाही  या और कोई और सत्ताधारियों के हर निर्णय को नहीं ही मान्यता मिलती है, विरोध का स्वर जायज़ है। फिर लोकतंत्र में ये एक स्वस्थ परम्परा भी है जो सत्ताधारियों को निरंकुश होने से रोकती है।      आज फिर वही परस्पर विरोध स्वर है पर दुःख इस बात का है कि एक बार फिर राजनीति के धुरंधर 'बाल अभिमन्यु' का ही उपयोग कर रहें हैं, जब चुनावी जंग और सदन में चक्रव्यूह भेदने में असफल साबित हुए।  मुझे बच्चों की भविष्य की चिंता है जिनको  सीढ़ी बना हर कोई ऊपर चढ़ रहा है चाहे वो नेता हो, प्रतिपक्ष हो,  कुटिल बाज़ारू मिडिया हो या फिर अभिनेता-अभिनेत्री।  जब सीधे वार नहीं झेल पाया गया तो बच्चों को शिखंडी बना खड़ा कर दिया गया है।  युवा जिन को इस वक़्त पढ़ाई लिखाई करनी चाहिए उन्हें मिडिया क्षणिक हीरोइज़्म का खून चटा रही है। वोट देने का अधिकार दे यु