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जाना था जापान पहुँच गए चीन

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जाना था जापान पहुँच गए चीन        मैं वैसे बहुत ही इंटेलिजेंट हूँ , चाहे उन्नीस का पहाड़ा उल्टा सुन लो या भौतिकी का कोई सूत्र पूछ लो , महादेवी की रचनाएं सुन लो या फिर राजनीती पर बहस कर लो ; पर दिमाग का एक हिस्सा ऐसा अड़ियल घोडा है कि दो विलोम शब्दों का अंतर करने में अड़ जाता है नतीजन परिणाम भी उल्टा आ जाता है. मसलन दायें-बाएं , ऊपर-नीचे , खींचो-धकेलो(पुल-पुश) इत्यादि. जाने क्यूँ मेरे दिमाग का उसी क्षण ब्रेकडाउन हो जाता है और आर्डर देने में हैंगआउट हो निष्क्रिय साबित हो जाता है और इस फेरे में कुछ का कुछ हो जाता है.    स्कूल में हिंदी या अंग्रेजी परीक्षा में कभी भी विलोम शब्द बताओ प्रश्न में नंबर नहीं कटे फिर भी वास्तविकता की धरातल पर ये ज्ञान अपना दम तोड़ देती है.   आज जब स्मृति कपाट खोलने बैठ रहीं हूँ तो बेवकूफ़ियों का पैंडोरा बॉक्स खुलने को उतावला हो उठा है. जैसे ठीक उसी वक़्त गैस का गुब्बारा छोड़ देना जब माँ ने कहा था पकड़ो , शोरूम के दरवाजे पर लिखे ‘ पुल ’ को पढ़ते ही इतनी जोर से ‘ पुश ’ यानी धकेल दिया कि वह क्रैक ही कर गया , सड़क पार करने के दौरान पापा ने जैसे ही कहा रुको और मैं अगले ह