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काँटों से खींच कर ये आँचल - सखी दिसम्बर २०१७ में प्रकाशित हुई - "और फिर अँधेरा छटने लगा " के नाम से

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और फिर अँधेरा छटने लगा  “काँटों से खींच कर ये आँचल”   क्षितीज पर सिन्दूरी सांझ उतर रही थी और अंतस में जमा हुआ बहुत कुछ जैसे पिघलता जा रहा था. मन में जाग रही नयी-नयी ऊष्मा से दिलों दिमाग पर जमी बर्फ अब पिघल रही थी. एक ठंडापन जो पसरा हुआ था अंदर तक कहीं दिल की गहराइयों में, ओढ़ रखी थी जिसने बर्फ की दोहर, आज स्वत: मानों गलने लगी थी. मानस के नस नस पर रखी शिलाएं अब स्खलित होने को बेचैन थीं. भले जग का सूर्यास्त हो रहा हो पर मेरे अंदर तो उदित होने को व्याकुल हो उठा था. एक लम्बी कारी ठंडी उम्र का कारावास मैंने झेला था, अब दिल में उगते सूरज को ना रोकूंगी. अंतस के तमस को चीरते आदित्यनारायण को अब बाहर आना ही होगा.        धूल उड़ाती उसकी कार नज़रों से ओझल भले ही हो चुकी थी, पर लग रहा था वह सर्वविद्यमान है. अपनी समस्त भौतिकता समेट वह जा चुकी थी पर ऐसा क्या छोड़ गयी थी कि उसका होना मुझे अभी भी महसूस हो रहा था. चुनने लगी मैं सजगता से, यहाँ – वहां बिखरी हुई उसको. चुन चुन मैं सहेजने लगी. कितना विस्तृत था उसका अस्तित्व, भला मैं कितना समेटती. जितना मैं चुन सकी उसको, अपनी गोद में रख मैं बुनने लगी-गुनन

badbu - published in sarita

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शीर्षक- दुर्गन्ध   "इत्ती रात गए किधर से आ रहे हो  ? हम सब परेशान  हुए जा रहें थें कि शाम से तू किधर है ." बापू की पूछताछ ,किसना को अखर गयी . "चुप-चाप तुम से सोया न जाता है ,अरे जरा मुझे भी सूकून से अपने हिसाब से जीने दो ",किसना की तल्खी देख बापू  उसका समझ गया कि कोई तीर जरूर मार कर आया है उनका बेटा , चलो निखट्टू ने आज कुछ तो किया ,सोचते हुए वह नींद की आगोश में गुम हो गया . कमरे में कमली अधनींदी सी लेटी  हुई  थी,आहट  सुन उठ बैठी . देखा, किसना ने कुछ नोट निकाला  और उसे अलमारी में रखने लगा . कमली की आँखे ख़ुशी से चमक उठी ,लगता है दो  महीने ईंट भट्टी में काम करने का पगार आखिर मिल ही गया . क्षण भर में  जरूरतों की झिलमिल करती लम्बी फेहरिस्त पूरी होती दिखने लगी . "लगता है रज्जाक मियां ने तुम्हारी पूरी पगार दे ही दिया आखिर . मैं तो सोच रही थी कि हर बार की तरह इस बार भी आज कल कर छह महीने में आधी देगा ",कमली ने चहकते हुए पूछा . "अरे वह क्यों देने लगा ?इतना ही सीधा होता तो हमारा खून क्यूँ पीता ",किसना ने खाट पर पसरते हुए कहा . कमली ने देखा किसना प

अहा जिन्दगी के “ आशीर्वाद” हेतु एक पत्र

अहा जिन्दगी के “ आशीर्वाद” हेतु एक पत्र सिडनी ,  ०६/०६/२०१६   मेरी प्यारी माँ ,                                                     सादर प्रणाम. आशा है तुम कुशल पूर्वक होगी. अभी कल ही तुम्हारे पास बीस दिनों की छुट्टियाँ बिता लौटी हूँ. पहले जैसी स्थिति होती तो मुझे तुम्हारे पास से लौट कर पत्र लिखने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती. मिलने पर हम वैसे भी अनवरत दिन-रात बातें करतें थे उसके अलावा फोन पर गप्पें मारतें ही. पत्र तो बीती वक़्त की बात हो गयी है. पर सारी बातें उन्ही अनखुलीं पोटलियों में सिमटी मेरे साथ ही वापस ऑस्ट्रेलिया चली आयीं. वैसी ही अनछुई , जैसा मैं यहाँ से जाते वक़्त दो साल की यादों को समेट सहेज ले गयी थी.        पिछली बार , दो वर्ष पहले जब मैं तुम्हारे पास से चलने लगी थी और झुक कर जब चरण-स्पर्श किया तो माथे पर गरम आंसू की कुछ बूंदे आशीर्वाद स्वरुप मानों टपक पड़ें थें. आज भी माथे पर वह तरलता महसूस होती है , तुम्हारी पसीजती गीली ठंडी हथेलियों का मेरे गालों पर स्पर्श कर कहना , “ जा बिट्टो सुखी रह ”. आज बहुत याद आ रही है क्यूंकि इस बार तो तुमने कुछ कहना तो दूर देखा तक नहीं .

"शिद्दत-ए-एहसास" साहित्य अमृत में प्रकाशित

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शिद्दत-ए-एहसास         कमरें में दमघोंटू घुटन छाई जा रही थी. दर्द अपनी सीमायें चीर सहस्त्र बाहुओं से कंठ अवरुद्ध करने को आमादा था. वैसे भी वहां जीना कौन चाहता था. पर एक दूसरे को मरता भी नहीं देखा जा रहा था. हर आती सांस बेमतलब और बेमानी थी. क्या करना था उन अनचाही साँसों का. रोम रोम चीख चीख नकार रहा था, पर बेशर्म साँस फिर भी हर पल आ कर खड़ी हो जाती. निर्लज्ज हो हर पल जीने को विवश कर जाती. दो लोग मिल कर संघर्ष कर रहें थें कि किसी तरह जिन्दगी को ठुकरा दिया जाये. पर जिन्दगी खुद ब खुद हर क्षण गले पड़ी जा रही थी.     सब्र और बर्दास्त ने जब अपनी हदों का पूर्ण अतिक्रमण कर दिया तो अल्पना उठ खड़ी हुई, एक भरपूर नजर सामने तड़पते हर्ष पर डाला और कार की चाभी ले तेजी से निकल पड़ी. कहा जाये दौड़ ही पड़ी, हर्ष अपनी नाम का अर्थ खोता हुआ विषाद और नैराश्य भाव से जाती हुई अल्पना को देखता रहा. उसमें इतनी भी जिजीविषा शेष नहीं थी कि मौत को गले लगाने जा रही अपनी पत्नी अल्पना को रोक ले. प्यार की ये भी एक चरमोत्कर्ष भाव ही है कि प्रिय की वेदना यदि किसी तरह दूर होती है,तो बस हो ही जाये, चाहे वह मौत को गले लगाने से

तीज स्पेशल प्रभात खबर में प्रकाशित

तीज स्पेशल इसकी तीज उसकी तीज      रोहिणी और सुहानी पक्की सहेलियां थी. पक्केपन  पर थोड़ी शंका हो रही है क्यूंकि रोहिणी और सुहानी के जीवन स्तर में भारी फर्क था. रोहिणी और उसका पति कल्याण दोनों ही एक विद्यालय में शिक्षक थे. सादा जीवन - उच्च विचार की उनकी जीवन की बैल गाड़ी हिचकोले लेती चल रही थी. दूसरी ओर सुहानी थी, पूरी सेठानी. उसके पति बड़े व्यापारी थे. हवाई जहाज से नीचे  की सवारी तो चलती ही नहीं थी उसके घर. कहने का मतलब है दोनों के रहन सहन में जमीन आसमान का अंतर था. पर दोनों थी सहेलियां.       सुहानी के मन में ये रहता था कि वह कोई ऐसी बात ना बोले जिससे रोहिणी को ठेस पहुँच जाये , उसको अपनी कमतरी का एहसास न  हो जबकि रोहिणी शायद इतना नहीं  सोचती थी, फुरसत किधर थी उसके पास. तीज आ रही थी. इस हरियाली तीज को दोनों ही सहेलियां करती थी. सुहानी की तैयारी कई दिनों से चल रही थी. कितने दुकानों का चक्कर लगाया तब जा कर उसे एक साड़ी पसंद आई. जरदोजी की भारी काम वाली साड़ी, मैचिंग और डिज़ाइनर ब्लाउज लेने में उसके पसीने छूट गए. दो-चार दिन और चक्कर लगे बाज़ार के तो वह हीरा जडित एक मंगलसूत्र ले पाई. फिर बाकी स