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इश्क के रंग हज़ार madhurima bhaskar 08/02/2017

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“इश्क के रंग हज़ार”         कितने सालों से अकेलेपन का दंश झेलती सॊम्या के जीवन में एक ठहराव आ चुका था। अपनी नॊकरी ऒर जिन्दगी को एकरसता से जीते जीते वह मशीन बन चुकी थी। जीवन के सब रंग उसके लिए एक से हो गये थे। फिर इधर कुछ दिनों से वह गॊर करने लगी कि सामने के फ्लॆट में रहने वाला एक व्यक्ति उसे बहुत ध्यान से देखने लगा हॆ। पहले तो उसने ध्यान नहीं दिया ,  पर हर दिन सॊम्या जब चाय ऒर पेपर ले कर बालकनी में जाती तो देखती वह उसे ही ताक रहा हॆ। फिर एक दिन उसने सर हिलाते हुए मुस्कुरा दिया ,  सॊम्या ने दायें बायें   ,  ऊपर नीचे की बालकनी की तरफ चोर नजरों से झांका ,  कहीं कोई नहीं था। चार लेन पार बालकनी में बॆठे उस अनाम व्यक्ति ने उसे ही देख कर मुस्कुराया था ,  यह सोच   एक झुरझुरी सी दॊड गयी सॊम्या की नसों में।         हाय! कोई तो हॆ जो उसकी सुबह को अपनी मुस्कराहटों से खुशनुमा बना रहा हॆ। अब उसने सुबह उठ पहले चेहरा साफ कर सही कपड़े पहन चाय पीने का सिलसिला शुरू किया। बीच बीच में दरवाजे की ओट से झांक लेती कि कहीं वह अन्दर तो नहीं चला गया। हल्की मुस्कुराहटों का आदान-प्रदान उसका दिन बनाने लगा।    

कहानी—“हम-तुम कुछ और बनेंगे” published in grih shobha jan 1st 2017

कहानी—“हम-तुम कुछ और बनेंगे”      बगल  के कमरे से अब फुसफुसाहटें आ रहीं थीं. कुछ देर पहले तक उनकी आवाजें लगभग स्पष्ट ही आ रहीं थी. बात कुछ ऐसी भी नहीं थी फिर दोनों इतने ठहाकें क्यों कर लगा रहें. जाने क्या चल रहा है दोनों के बीच ,   वार्तालाप और ठहाकों का सामंजस्य उसकी  सोच के परे जा रहा था. उफ़! तीर से चुभ रहें हैं , बिलकुल निशाना बिठा नश्तर चुभो रही है उनकी हंसी. रमण का  मन किया कि वह कोने वाले कमरे में चला जाये और दरवाजा बंद कर तेज संगीत चला दुनिया की सारी आवाजों से खुद को काट ले. परन्तु एक कीड़ा था जो कुलबुला रहा था , काट रहा था ह्रदय क्षत विक्षत कर भेद रहा था , पर कदमो में बेड़ियाँ  भी उसी ने डाल रखा था. वह कीड़ा बार बार विवश कर रहा था कि वह ध्यान से सुने कि बगल के कमरें से क्या आवाजें आ रही हैं , " जीवन की बगिया महकेगी , लहकेगी , चहकेगी खुशियों की कलियाँ झूमेंगी , झूलेंगी , फूलेंगी जीवन की बगिया..." , काजल इन पंक्तियों को गुनगुना रही थी.   “ रोहन को अब सीटी बजाने की क्या जरूरत है इस पर ?   बेशर्म कहीं का...." सोफे पर अधलेटे रमण ने सोचा. उसका सर्वांग सुल

मेरा शहर साफ़ हो इसमें सबका हाथ हो published in grih shobha dec 2016

मेरा शहर साफ़ हो इसमें सबका हाथ हो मेरी एक रिश्तेदार की बीच शहर में ही बड़ी सी कोठी है. दिवाली के कोई दो दिनों के बाद मैं उनके घर मिलने गयी हुई थी. मैंने देखा कि एक सफाई कर्मी उनके घर काम कर रहा था. पहले तो उसने सारे शौचालयों की सफाई किया फिर उनके घर की नालियों की. जब वह बाथरूम में जाने को होता तो आवाज देता , “बीबी जी पर्दें खिसका लें ......” गृहस्वामिनी जल्दी से परदे खिसकाती, शौचालय जाने के मार्ग में पड़े सामानों को खिसकाती तब वह अंदर जा उनके टॉयलेट की सफाई करता. यानी उसे पूरे घर में किसी चीज को छूने का कोई अधिकार नहीं था. आखिर में वह नालियों की सफाई में जुट गया. गृहस्वामिनी उसे लगातार डांटें जा रही थी क्यूंकि वह दो दिनों से नहीं आया था. “पटाखों और फुलझड़ियों के जले-अधजले टुकड़ों से सारी नालियां भर गयीं हैं, कितना कचरा सभी जगह भरें पड़ें हैं, तुम्हे आना चाहिए था. कामचोर कहीं के.....”, वह उसे बोले जा रहीं थीं. “बीबी जी दिवाली जो थी, रमा बाई तो आ रही थी ना?”, सर खुजाते उसने पूछा. “अब रमा बाई टॉयलेट या नालियों की सफाई थोड़े न करेगी. वह तो भंगी ही न करेंगे”, मेरी रिश्तेदार ने कहा.

जब आयें माता-पिता अपने घर” गृह शोभा published feb 1st 2017

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“जब आयें माता-पिता अपने घर”              मैं अपनी पड़ोसन कविता को कुछ दिनों से बहुत व्यस्त देख रही थी. बाज़ार के भी खूब चक्कर लगा रही थी. हर दिन शाम की वाक हम साथ ही लेते थें पर अपनी व्यस्तता के कारण वह आजकल नहीं आ रही थी. तो पार्क में खेलती उसकी बेटी काव्या को बुला कर मैंने पूछ ही लिया, “काव्या बहुत दिनों से तुम्हारी मम्मी नहीं दिख रहीं हैं सब ठीक तो है?” “आंटी, दादा-दादी आने वालें हैं मेरे घर, मम्मी उनकी आने की तैयारियों में ही लगी है”, काव्या ने बताया.      पता नहीं क्यूँ ‘मेरे घर’ शब्द देर तक हथौड़े सा बजता रहा मन में. फिर दूसरे ही दिन कविता के पति कामेश को देखा कि वो अपने माता-पिता को शायद स्टेशन से ले कर घर आ रहा था. उसके बाद कोई दस दिनों तक कविता बिलकुल दिखी ही नहीं. दफ्तर से भी उसने छुट्टी ले रखी थी, शाम की वाक बंद थी ही उसकी. एक दिन मैं उसके सास-ससुर और उससे मिलने उसके घर जा पहुंची. देखा कि सास-ससुर ड्राइंग रूम में बैठे हुए हैं और कविता अस्त-व्यस्त सी रसोई और अन्य कमरों के बीच दौड़ लगा रही है. मैं उसके सास-ससुर से बात करने लगी. “हमारे आने से कविता के कार्य बढ़ जातें हैं,