कहानी—“हम-तुम कुछ और बनेंगे” published in grih shobha jan 1st 2017

कहानी—“हम-तुम कुछ और बनेंगे”
   
 बगल  के कमरे से अब फुसफुसाहटें आ रहीं थीं. कुछ देर पहले तक उनकी आवाजें लगभग स्पष्ट ही आ रहीं थी. बात कुछ ऐसी भी नहीं थी फिर दोनों इतने ठहाकें क्यों कर लगा रहें. जाने क्या चल रहा है दोनों के बीच,  वार्तालाप और ठहाकों का सामंजस्य उसकी  सोच के परे जा रहा था. उफ़! तीर से चुभ रहें हैं, बिलकुल निशाना बिठा नश्तर चुभो रही है उनकी हंसी. रमण का  मन किया कि वह कोने वाले कमरे में चला जाये और दरवाजा बंद कर तेज संगीत चला दुनिया की सारी आवाजों से खुद को काट ले. परन्तु एक कीड़ा था जो कुलबुला रहा था, काट रहा था ह्रदय क्षत विक्षत कर भेद रहा था, पर कदमो में बेड़ियाँ  भी उसी ने डाल रखा था. वह कीड़ा बार बार विवश कर रहा था कि वह ध्यान से सुने कि बगल के कमरें से क्या आवाजें आ रही हैं,

"जीवन की बगिया महकेगी, लहकेगी, चहकेगी
खुशियों की कलियाँ झूमेंगी, झूलेंगी, फूलेंगी
जीवन की बगिया...", काजल इन पंक्तियों को गुनगुना रही थी.
 रोहन को अब सीटी बजाने की क्या जरूरत है इस पर? 
बेशर्म कहीं का...." सोफे पर अधलेटे रमण ने सोचा. उसका सर्वांग सुलग रहा था. अब जाने उसने क्या कहा जो काजल को इतनी हंसी आ रही है. रमण अनुमान लगाने की कोशिश कर ही रहा था कि रोहन के ठहाकों ने उसके सब्र के  पैमाने  को छलका ही दिया.  रमण ने कुशन को गुस्से से पटका और सोफे से उठ खड़ा हुआ.

"क्या हो रहा है ये सब? तब से तुम दोनों की खी खी सुन रहा हूँ. आदमी अपने घर में कुछ पल चैन ओ-सुकून से भी नहीं रह सकता है", रमण के गुस्से ने मानों खौलते दूध में निम्बू निचोड़ दिया. रोहन, सॉरी सॉरी बोलता उठ कर चला गया. पर काजल अभी भी कुछ गुनगुना रही थी. रोहन के जाने के बाद काजल का गुनगुनाना उसकी रूह को मानों ठंडक पहुँचाने लगी. उसने भरपूर नज़रों से काजल को देखा, सातवाँ महीना लग गया है. इतनी ख़ूबसूरत उसने अपनी ब्याहता को पहले  कभी नहीं देखा था. गालों पर एक हलकी सी ललाई और गोलाई प्रत्यक्ष परिलक्षित था. रंगत निखर कर एक सुनहरी  आभा से मानों आलोकित  हो दिल को रूहानी सुकून पहुंचा रहा था. सदा की दुबली पतली छरहरी काजल आज अंग भर जाने के पश्चात् अपूर्व व्यक्तित्व की स्वामिनी लग रही थी. कोई स्त्री गर्भावस्था में ही शायद सर्वाधिक रूपवती होती है. रोम रोम से छलकते मातृत्व से परिपूर्ण सुन्दरता अतुलनीय है. रमण  अपने दोनों चक्षुओं सहित सभी ज्ञानेद्रियों से अपनी ही बीवी की इस अद्भुत नव रूप का रसास्वादन कर ही रहा था कि रोहन फिर आ गया और रमण हकीकत की विकृत सच्चाइय़ों से आँखें चुराता झट कमरे से निकल गया.
 रोहन के हाथ में विभिन्न फलों को काट कर बताया गया फ्रूट सलाद था.

       इस बार रमण सच में कोने वाले कमरे में चला गया और तेज संगीत बजा वहीँ पलग पर लेट गया. म्यूजिक भले ही कर्णफोडूँ हो गया परन्तु उस कमरे से आती  हुईं फुसफुसाहटों को रोकने में अभी भी असमर्थ ही था. रोहन की एक सीटी इस संगीत को मध्यम किये जा रही थी. बीच बीच में काजल की दबी दबी खिलखिलाहट. ऐसा लग रहा था कि दोनों कर्ण मार्ग से प्रवेश कर उसके मानस को क्षत-विक्षत कर के ही दम लेंगे. 
     इसी बीच स्मृति कपाट पर विगत का दस्तक आरम्भ हो गया. इस नव आगंतुक ने मानों उसकी सुध-बुध को ही  हर लिया. बगल के कमरे की फुसफुसाहट, तेज संगीत और अब स्मृतियों के थाप - इस स्वर मिश्रण ने उसे आभास दिला दिया कि शायद नर्क यही है. 
   सच इन दिनों उसे आभास होने लगा है कि वह मानों नर्क की अग्नि में झुलस रहा हो. जिस उत्कंठा से उसने इस ख़ुशी को पाने की तमन्ना की थी, वह इस अग्नि कुंड से हो कर निकलेगी ये उसके लिए कल्पनातीत थी.
"कुछ महीने पहले तक सब कितना मधुर था", रमण ने सोचा.
"....पर कैसे कहा जाये कि मधुर था तब तो कुछ और ही शूल चुभ रहे थें".
 चेतना की बखिया उधड़ने लगी ....
मस्तिष्क की नाजुक सीवन ने ज्यूँ ही मुहं खोला, यादों के फूल- शूल यत्र तत्र सर्वत्र खंड खंड हो विखंडित होने लगे.  

विवाह के दस वर्ष होने को थें. शुरू के वर्षों में नौकरी, करिअर, पदोन्नति और घर की जिम्मेदारियों के चलते रमण और काजल परिवार बढाने की अपनी योजना को टालते रहें. आदर्श जोड़ी रही है दोनों की. कितना दबाव था सबका कि उनके बच्चें होने चाहिए. काजल के माता-पिता, रमण के माता-पिता, नाते रिश्तेदार यहाँ तक कि दोस्त भी टोकने लगे थें. रमण के सास ससुर उसकी शादी की सातवीं वर्ष गाँठ पर आयें हें थें.

         "इस बार तुमलोगों ने बड़ा ही अच्छा आयोजन किया अपनी सातवीं वर्ष गाँठ पर. इससे पहले तो तुमलोग वर्ष गाँठ मनाने के ही विरुद्ध होते थे. बहुत ख़ुशी हो रही है", रमण के ससुरजी ने ऐसा कहा तो काजल झट से बोल पड़ी,
"हां, पापा इस बार बात ही कुछ ऐसी थी. मेरे देवर ने अपनी पढ़ाई बहुत हद्द तक पूरी कर ली है. अपने आगे की पढ़ाई का खर्च अब वह खुद वहन  कर सकता है. मेरा देवर डॉक्टर बन गया, हमारी तपस्या सफल हुई. वर्ष गाँठ तो बस एक बहाना है अपनी खुशियों को सेलिब्रेट करने की "
"बहनजी, अब आप ही रमण और काजल को समझाएं कि ये जल्दी से हमें खुश ख़बरी सुनाएँ. मेरी तो आँखे तरस गयीं हैं कि कोई शिशु मेरे आँगन में खेले. ऐसा न हो कि कहीं देर हो जाये.", रमण की माँ ने अपनी समधन को कहा था.
"हां, बहनजी आप सही कह रहीं हैं हर चीज का एक वक़्त होता है, जो सही वक़्त पर पूरी हो जानी चाहिए. हम भी तो बुड्ढे हो चले हैं", रमण की सास ने कहा था.
               काजल के कर्ण सिरे रक्ताभ हो उठे थे. पर "होइहिं सोइ जो राम रचि राखा". कुछ ही महीनों में ये भान होने लगा कि कहीं तो कुछ गड़बड़ है. फिर शुरू हुआ भटकाव जांच और रिपोर्ट के अंतहीन सिलसिले. जब तक चाह नहीं थी तब तक इतनी बेसब्री और संवेदनाएँ भी जागृत नहीं थी. अब जब असफलता और अनचाहे  परिणाम मिलने लगें तो दोनों की बच्चे के प्रति उत्कंठा भी उतनी ही तीव्र और चरम हो गएँ थें. घर की बुजुर्गों की आशंकाएं मूर्त हो रही थीं. रमण की प्रजनन क्षमता ही संदेह के दायरे में आ गयी थी. किसी ने कभी सोचा भी नहीं था कि हर तरह से स्वस्थ दिखने वाले और स्वस्थ जीवन शैली जीने वाले रमण को ये समस्या होगी.
"अब जब विज्ञान ने इतनी तरक्की कर लिया है तो हर चीज का समाधान है. हम किसी अच्छे क्लिनिक या अस्पताल से बात करने की सोच रहें हैं. जहाँ से शुक्राणु ले कर मेरे गर्भ में निषेचित किया जायेगा", पूरे परिवार के सामने काजल ने रमण के हाथ को थामे हुए रहस्योद्घाटन किया.
“आप कहीं और जाने की क्यूँ सोच रहें हैं? मेरे ही हॉस्पिटल में कृत्रिम शुक्राणु निषेचन का अच्छा डिपार्टमेंट है. मैं सम्बंधित डॉक्टर से बात कर लूँगा, सब अच्छे से निष्पादित हो जायेगा”, रोहन ने कहा.
फिर तो चारो माता-पिता घंटों सर जोड़े इस समस्या के निदान में जुट गएँ. वहीं काजल और रमण बालकनी से नीचे पार्क में खेलते हुए छोटे छोटे बच्चों को देख ख्वाबों का एक लिहाफ बुन लिया. 

        उनदिनों काजल उसका हाथ मानों एक क्षण को भी नहीं छोडती थी. रमण को उसने ये एहसास ही नहीं होने दिया कि कमी उसमे है. दोनों ने इस आती रुकावट को पार करने हेतु जमीन आसमान एक कर दिया था. दोनों दो शरीर एक जान हो गएँ थें. 

"लेकिन...पर..." अपनी सास की बनती बिगडती माथे की लकीरों को काजल भांप रही थी.
"उस तरीके से जन्मा बच्चा क्या पूरी तरह से स्वस्थ होगा?  रमण के पिताजी ने पूछा था.
“फिर जाने किस कुल या गोत्र का होगा वह ...?”, रमण की सास ने बुझी हुई वाणी में कहा.
देर तक एक लम्बी चुप्पी छाई रही. जब चुप्पी के नुकीले नख़ रक्त वाहिनियों से खून टपकाने की हद तक पहुँच गए तो रमण ने ही चुप्पी तोडा,
"हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है. हम चाहते तो किसी को कुछ नहीं बताते पर आप सब को जानने का हक है".
"एक रास्ता है यदि घर का ही कोई स्वस्थ पुरुष अपने शुक्राणु दान करे इस हेतु. तो वह अनजाना कुल - परिवार की भ्रान्ति नहीं रहेगी", काजल के पिताजी ने कहा था.
“आप सब निश्चिन्त रहें, बहुत लोग इस विधि से बच्चे प्राप्त कर रहें हैं. हर नये आविष्कार को संशय और अविश्वास की दृष्टि से देखा ही जाता है. मैं खुद ध्यान रखूँगा कि सब अच्छे से सम्पन्न हो”, रोहन के इस आश्वासन ने उन्हें फ़ौरी तौर पर थोड़ी राहत दे दी.

       आखिर वर्षों बाद वह दिन आया जब काजल के गर्भवती होने की डॉक्टर ने पुष्टि की. अब मन्नतों को उतारने के दिन थे. काजल ने अपनी नौकरी से अनिश्चित कालीन छुट्टी ले लिया. एक बच्चे की आहट ने ही परिवार में हर्ष का झिलमिलाता झालर टांग दिया था. आँगन में घुटनों के बल चलते शिशु की कल्पना से ओतप्रोत एक एक सदस्य अपनी तरह से ख़ुशी जाहिर कर रहा था. अचानक घर में काजल सबसे महत्वपूर्ण हो गयी, आखिर क्यूँ न होती ? आती खुशियों को तो उसी ने अपने में सहेज़ रखा था. हर कोई फ़िकरमंद रहता काजल के लिए, बड़ी मुश्किलों के बाद जो ये अनमोल क्षण आयें थें. रमण देखता उसकी प्रिया उससे ज्यादा उसके माता-पिता के साथ वक़्त गुजार रही है, आज कल उसके सास-ससुर भी जल्दी जल्दी आते और अपनी बिटिया की बलैयां लेते रहतें. रमण भी एक विजयी भाव से हर जाते पल को महसूस कर रहा था. पापा-पापा सुनने को बैच़ैन उसके दिल को कुछ ही दिनों में सुकून जो मिलने वाली थी.
      सब ठीक चल रहा था. डॉक्टर हर च़ेकअप के बाद संतुष्टि जाहिर करते. माह दर माह बीत रहें थें. इस दौरान रमण महसूस कर रहा था कि आज कल रोहन भी कुछ ज्यादा ही जल्दी-जल्दी आने लगा है. जल्दी आना तो तब भी चलता, आखिर उसका भी घर है ऊपर से डॉक्टर. सब को उसकी जरूरत रहती. कभी माँ को कभी पिताजी को, बुड्ढे जो हो चले थें. पर देखता जब रोहन आता, वह काजल की कुछ अधिक ही देखभाल करता. ये बात रमण को अब चुभने लगी थी. श़क का एक बुलबुला उसके मानस में आकार पाने लगा था.
“कि कहीं ये वीर्य-दान रोहन ने तो नहीं किया है?”
 हालाकिं उसके पास इस बात के कोई सबूत नहीं थे. पर जब कमी खुद में होती है तो शायद ऐसे विचार उठने लाज़मी है.
    रोहन को देखते ही उसे अपनी कमी और बड़े बड़े स्पष्ट अक्षरों में परिलक्षित होने लगतें. रोहन का काजल के साथ वक़्त गुजारना उसे बड़ा ही नाग़वार गुजरता. शनैः शनैः उसे महसूस हो रहा था कि जब तक वह कुछ करने की सोचता है काजल के लिए, रोहन तब तक कर गुजरता है. रोहन सहित घर के सभी सदस्य जब आपस में हंसी-मजाक कर रहे होतें, रमण कोई न कोई बहाना बना वहां से खिसक लेता. धीरे धीरे रमण अपने पलक- पांवड़े समेटने लगा जो बिछा रखे थे नव अंकुरण के लिए. एक अजीब सी विरक्ति हो चली उसे ज़िन्दगी से. रमण खुद को बिलकुल अनचाहा सा अब महसूस कर रहा था. काजल बुलाती रह जाती वह उसके पास नहीं जाता. माता-पिता अक्षम हो चलें थें अपनी गर्भवती दुहिता हेतु, पर रमण निर्विकार भाव से एक निर्लिप्त अवस्था प्राप्त कर कमल के पत्तों पर अनछुए बूंदों सा रहता.
   रोहन और काजल की घनिष्ठता उसे बेहद नागवार गुजर रही थी. रमण सोचता,
“यदि बच्चे का पिता रोहन ही है तो मैं क्यूँ दाल-भात में मसूरचंद बनूं?”
इस सोच ने उसकी दुनिया पलट दी थी, वह अपना ज्यादा वक़्त दफ्त्तर में गुजारता, कभी कभी तो वह टूर का बहाना कर कई कई  दिनों तक घर भी नहीं आता था. गर्भावस्था के आखिर के दिन बड़े ही तकलीफ़देह थें. काजल को बैठाना-उठाना सब रोहन करता. रिश्तें बेहद उलझ गएँ थे, सिरा अदृश्य था और उलझनों के मकड़जाल पूरी शबाब पर. रमण को याद आता, जब उसकी शादी हुई थी तब रोहन छोटा ही था. काजल को भाभी माँ कहता था. काजल कितनी फ़िकरमंद रहती थी उसकी पढ़ाई के लिए.
“छि सब गडमड हो गएँ, अचानक मैं घर की चौखट पर बैठ गया, उफ़! इससे अच्छा बेऔलाद रहता”,
बे सिरपैर के ख़्यालात रमण के सहभागी बन उसे मतिभ्रष्ट किये जा रहें थे कि रोहन की आवाज आई,
“भैया जल्दी आइये भाभी की तबियत ख़राब हो रही है. हॉस्पिटल ले जाना होगा तुरंत”
“......ऊऊऊँ तुम जाओ मैं भला जा कर क्या करूँगा, कोई डॉक्टर तो हूँ नहीं. मुझे आज ही पंद्रह दिनों के लिए हैदराबाद जाना है”, रमण ने उचटती हुई भाव से कहा था.
.........कोई दस दिनों के बाद काजल भरी गोद से वापस आई थी. इस बीच रमण एक बार भी हॉस्पिटल नहीं गया था, स्वर्ग-नर्क बीच कहीं त्रिशंकु सा लटका रहा था. कोई पन्द्रहवें दिन घर वापस आया था.
काजल से बेहतर उसके मनोभावों को कौन समझता पर उसने भी शायद अब वही रुख़ अख्ति़यार कर लिया था जो रमण ने. उस दिन उसी कोने वाले कमरे में तेज संगीत को चीरती एक मधुर सी रुनझुन संगीतमय लहरी रमण को बेचैन किये जा रही थी.
हाँ, ये तो शिशु की आवाज है, क्वें क्वें ......
रमण ने कर्णफोडू म्यूज़िक ऑफ़ किया और ध्यान मग्न हो शिशु की स्वर  लहरियों को सुनने लगा. जाने लड़का है या लड़की? उफ़ कोई चुप क्यूँ नहीं करा रहा. मन उद्वेलित होने लगा. एक क्षण को चुप्पी छाई फिर रुदन .......
रमण कमरे में चहलकदमी करने लगा, अब तो लग रहा था कि बच्चे का कंठ सूख रहा हो. रुदन मद्ध्यम होती धीमी होती और फिर तीव्र उच्च स्वर. इस आरोह अवरोह ने शीत शिला को धीमी आंच पर पिघलाना आरम्भ कर दिया.
  इसी बीच उसकी मोब़ाइल बज़ने लगी, जाने कौन है नया नंबर है सोचते उसने कान से लगाया.
“भैया मैं रोहन बोल रहा हूँ, प्लीज़ फ़ोन मत काटिएगा. मैं आज सुबह ही सिडनी, ऑस्ट्रेलिया आ गया हूँ, यहाँ के एक अस्पताल में मुझे काम जो मिल गया है. साथ ही साथ मैं कुछ कोर्स भी करूँगा. कई दिनों से आपने खुद को हम सब से बिलकुल काट लिया है, आप ने हैदराबाद से एक बार फोन भी नहीं किया, आप का फोन लगातार स्विच ऑफ बता रहा था. सो मैं आपको बता नहीं पाया चलते वक़्त.
आप और भाभी माँ ने जीवन में मेरे लिए बहुत कुछ किया है. भैया, पिछले कुछ महीनों में भाभी माँ बेहद मानसिक संत्रास से गुजरीं हैं. आपकी ब़ेरुखी उन्हें जीने नहीं दे रही. छोटी मुहँ बड़ी बात हो जाएगी पर मैं कहना चाहूँगा कि आपने भाभी माँ को उस वक़्त छोड़ दिया जब उनको सर्वाधिक आपकी ज़रूरत थी. जानें कौन सी नाराजगी है आपको उनसे?
एक लम्बी सी चुप्पी पसरी रही कुछ क्षण रिसीवर के दोनों तरफ़ ....

“कितना बड़ा हो गया रे रोहन और कितना समझदार. मैं ही खुद को अदृश्य उलझ़नों और विकारों में कैद कर लिया था.....”, रमण शायद कुछ और भी कहता कि रोहन बोल पड़ा,
 “भैया क्या बच्चे रों रहें हैं? मुझे उनकी रोने की आवाज़ें आ रही हैं”.

“बच्चे ... आयें क्या जुड़वाँ हैं ?”, रमण उछल पड़ा और दौड़ पड़ा उनकी तरफ. दो नर्म नर्म गुलाबी रुई के फ़ाहें हाथ-पैर फेंकते समवेत स्वर में आसमान सर पर उठायें हुए थे.
काजल औऱ चारों माता-पिता कमरे के एक कोने में निर्लिप्त निर्विकार भाव से यूं बैठे हुएं थें मानों उन्हें बच्चों का रोना सुनाई ही नहीं दे रहा हो. अचानक रमण के मन में छाई धुंध साफ़ होने लगी. उसका मन त्वरित ग्लानि से आद्र हो नम हो गया कि क्यूँ उसने अपनी कमजोरी को शक और लांछन की ढाल के पीछे छुपाया.

“धन्यवाद रोहन, धन्यवाद भाई. घर जल्दी आना”
फोन काटते  हुए रमण ने कहा और अश्रु सिक्त दृगों से अपने बच्चों को गोद में उठा लिया.
"हाँ, ये मेरे ही बच्चें हैं. मेरे नहीं हमारें .....मेरे और काजल के."
कमरें में सबकें नयनों से अब खुशियों की धार फूट चली थी.   





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