कोयला भई न राख फेमिना जनवरी २०१९
कोयला भई न राख
“दुल्हिन देखो ये तुम्हारे
चचिया ससुर हैं, इनके पैर छुओ”
“ये सब से बड़ी वाली नन्द
हैं, ये मझंली वाली हैं और देखो ये रमेश की दुल्हिन है”
“अरे-अरे इसकी पैर क्यूँ छू
रही हो? ये तो रिश्ते में तुम्हारी देवरानी हुई न”
सद्यःब्याहता मैं, घूँघट की आड़ लिए
निर्देशानुसार पैर छूने का कार्य मशीन बनी किये जा रही थी कि बीच में सबको हंसने
का मौका मिल गया. लगभग सभी से मेरा परिचय करा दिया गया.
“चलो हटो सब जरा दुल्हिन को आराम तो करने दो,
थकी-हारी होगी”, कहते हुए मुझे एक सजेधजे कमरे में पहुंचा दिया.
अगले दिन रसोई छुआने की
रस्म थी, वे मुझे अब हलुआ और खीर बनाने में मदद कर रहीं थी. सुबह मंडप में भी वही
कुछ रस्में करवा रहीं थीं. अब मुझे टेबल पर परोसने में मदद कर रहीं थीं.
“देखो दुल्हिन, अब घूँघट
किये रहोगी तो किसी को ठीक से देख नहीं सकोगी और हो सकता है गिर भी जाओ. यहाँ वैसे
भी घूँघट का रिवाज नहीं है. घूँघट का रिवाज तो मेरे ससुराल में था, अपनी शादी के
बाद मैं तीन दिन रही और किसी का चेहरा नहीं पहचान
पाई थी”,
“तुम्हारा नाम सुधा है ना?
मैं तुम्हें नाम से ही बोलूंगी....”, वे बोलती जा रहीं थी और लगातार कुछ न कुछ काम
भी कर रहीं थीं.
घूँघट के गिरते ही मैं सबसे
पहले उन्हें ही गौर से देखने लगी थी. दुबली पतली लम्बी छरहरी, खिलता रंग. कमर से
नीचे तक बल खाती सी दुर्लभ होती जा रही पुरातन सौन्दर्य वस्तु ‘मोटी सी लम्बी चोटी’. चेहरे की मासूमियत और
लुनाई उम्र का अंदाजा लगाने में बाधक हो रहें थें. कनपट्टी के सफ़ेद बाल अलबत्ता
कुछ बताने को उत्सुक हो रहें थें. शादी वाले घर के अनुरूप सुनहरी बॉर्डर वाली हरे
रंग की सिल्क साड़ी व् कुछ जेवर उनके तन की शोभा बढ़ा रहे थे. माथे पर सिन्दूर की
रेखा मुझ दुल्हन से कोई कम नहीं थी. कुल मिला कर बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व लगा.
कल से आज तक में मैं उनको ही सबसे ज्यादा काम करते या करवाते देख रही थी. बाकी लोग
या तो थकान उतराने की मुद्रा में थे या वापसी की तैयारियों में व्यस्त. वे सबके
लिए रास्ते का खाना पैक करा रहीं थीं, जो शादी निपटने पर जाने की तैयारियों में
मगन थे. उस बीच मेरी सास मेरे मायके से आये हुए उपहारों को ठिकाने लगा रही थीं.
“भाभी मैंने पूजा घर को
समेट दिया है, देखिये भण्डार में ये ख़राब हो जायेगा... इसे बाहर रख देती हूँ. अरे
कोई हलवाई को सब्जी का थैला पहुंचा दो.... इस डब्बे को किसने यहाँ रख दिया है, कोई
गिर जायेगा तो...भैया कहाँ हो तुमसे मिलने कोई आयें हैं....”
उनकी आवाज और उपस्तिथि
सर्वत्र मालूम हो रही थी.
बाद में मैंने अपने नए नवेले पति देव से जब
पूछा,
“वे कौन हैं? सबसे तो परिचय
हुआ पर उनसे नहीं”
“कौन वो? अरे वो तो कम्मो
बुआ हैं”,
उन्होंने बहुत लापरवाही से
कहा और उसके बाद ये, ये जा वो जा.
अब फूफाजी किधर हैं या कौन
हैं ये अनुत्तरित रह गया. शाम तक शायद वो भी चली गयीं. पर चार-पांच दिनों के बाद
जब पगफेरों के लिए मैं भाई संग जा रही थी तो बुआजी फिर दिखाई दे गयीं. कभी मुझे
देने के लिए लड्डू का दऊरा बाँध रहीं थी तो कभी मेरे भाई को बिदाई दे रही थीं. एक
बात मैं आज गौर कर रहीं थी कि शायद वे मुझे कुछ कहना चाह रहीं थी. हर थोड़ी देर पर
मेरे पास आती, मेरी हथेलियों को थाम कहती,
“सुधा....”
फिर इधर उधर देख चुप हो
जाती. उनकी आँखों की बेचैन पुतलियाँ भी कुछ कहने-पूछने का आमन्त्रण दे रही थीं.
मैं भी लौटने की हड़बड़ी में थी उनको ज्यादा तवज्जो दे नहीं पाई. मायके लौटने के कुछ
दिनों के बाद मैं अपने पतिदेव संग उनकी पोस्टिंग पर चली गयी. वहीं मेरी सासूमाँ भी
आई, एक दिन स्मृतिवन में बुआजी का कीड़ा कुलबुलाया तो मैंने उनसे पूछा,
“बुआ जी कहाँ रहती हैं?
शादी वाले एल्बम में फूफा जी कौन से हैं? कितना काम वो करती हैं....”
मैंने देखा कि सासु माँ
मुझे अनसुनी कर इधर उधर हो गयीं. फिर मैं ध्यान देने लगी कि बुआ जी की चर्चा करने
पर घर में कोई कुछ बताना नहीं चाहता है. एक तरह से समझ में आने लगा कि उनकी चर्चा
पर सब कतराने लगतें हैं. बहरहाल जीवन में इतना कुछ घटित हो रहा था कि बुआ जी जल्द
ही नेपथ्य में चली गयीं; जिज्ञासाओं के मंच से. जिन्दगी की व्यस्तताएं यूं करवट
लेने लगी कि बुआजी जैसे बहुत से लोग स्मृति वन में अपने पदचाप सहित गुम हो गएँ.
ससुर जी की भी दूसरे शहर में पोस्टिंग थी. सो पुश्तैनी घर जाने का मौका एकाध वर्ष
नहीं लगा. उस वक़्त मोबाइल फोन अस्तित्व में आया भी नहीं था अन्यथा रिश्तें रिसने
से पूर्व संपर्क में आते ही. मैं नौकरी के साथ साथ अपनी गृहस्थी में भी पूरी तरह
रम चुकी थी.
हाँ, बुआ जी सबकी बातचीत में हवा के झोंके की
तरह आती-जाती रहतीं. एक बार मेरी तलाकशुदा दुर्वासा सदृश्य बड़ी ननद की बातों में कम्मो बुआ
मेरे लिए फिर जीवंत हो उठी जब उन्होंने कहा,
“मुझे तुमलोग कम्मो बुआ मत
समझना. अच्छा हुआ जो मैंने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली वरना तुम सब मुझे भी कम्मो बुआ
बना कर ही छोड़ देते”.
उस दिन दीदी ने स्मृतिवन से
बुआजी को खींच कर बाहर ला ही दिया. मन में घुमड़ने लगा जाने वे क्या कहना चाहती थी
उस दिन. दरअसल बात हो रही थी मेरे साथ किसी महिला की रहने की क्यूंकि मेरे
गर्भावस्था के अंतिम चरण थें. नन्द रानी को किसी ने कहा भी नहीं था पर वे यूं ही
सेल्फ प्रोटेक्शन में शब्द बाण छोड़ रही थीं.
“दीदी क्या हुआ था कम्मो
बुआ को, आपने जो ऐसा कहा?”,
बुआ के बारें में अपनी
समस्त उत्सुकताओं को मन की डिबिया में दबाये मैंने यथासंभव एक नन्हा सा प्रश्न
उछाला था ननद रानी की ओर. उनकी तुनुकमिजाजी और गुस्सैल स्वभाव का परिचय सूत्र मुझे
पूर्व में अनुभव हो चुका था. बोल कर मैं स्वयं उधर से मुख मोड़ चुकी थी क्यूंकि मैं
खानदान की इस व्यवहार से परिचित हो चुकी
थी कि बुआ के बारे में कुछ पूछा जाये तो झट उलटे दिशा में मुड़ जाना है. परन्तु इस
बार तो बोल फूटे ही नहीं ज्ञान वर्धन भी हुआ, दीदी ने उस रहस्यमयी परदे को अनावृत
कर ही दिया उसदिन, जाने किस मूड में थीं.
बुआ चौदह साल की थीं जब उनकी शादी हुई, उनके
पति तब उन्नीस-बीस साल के रहे होंगे. इनकी रूप की चर्चा बचपन से ही थी. घर की बाकी
बहनें इर्ष्या करती इनकी सुन्दरता पर. एक विवाह समारोह में देख कर उनकी सास ने वहीं
हाथ में अपने कंगन खोल पहना कर लड़की छेक लिया था कि कोई और न इसे अपनी बहू बना ले.
दूसरी बहनों के वर संधान में जहाँ दादा ससुर की एड़ियाँ घिस गयी थी वहीं सबसे छोटी
कमला को बैठे-बिठाये इतने बड़े घर से रिश्ता मिल गया था. इन सबके बीच उनके कम उम्र
को ले किसी को भी कोई फिक्र नहीं हुई थी. बहनों की आँखों का कांटा बन गया कम्मो का
सौभाग्य. शादी में अभी कुछ महीने थे पर भावी ससुराल से आये दिन कोई न कोई आता,
उनसे मिलता और कुछ नेग पकड़ा कर ही जाता. भावी सास भी दो-तीन बार चक्कर लगा गयी और
जब आतीं कम्मो के लिए महंगी साड़ियाँ, गहने और उपहार ले कर आती और अपने हाथों
उन्हें सजा सवांर कर निहाल होतीं. नहीं
आये तो बस उनके भावी पति. चौदह वर्ष की बालिका अपने नए गहनों-कपड़ों में ही मगन थी
कि शादी का दिन करीब आ गया.
शादी बहुत धूमधाम से हुई थी, घर खानदान में
वैसी वैभवशाली बारात नहीं आई थी. दादा ससुर जी ने भी दिल खोल कर स्वागत सत्कार
किया था. सबसे छोटी बेटी की विदाई जो थी. बारात तीन दिनों तक रखी गयी थी. हर दिन चारों
वक़्त अलग अलग मेन्यू और मिष्ठान की व्यवस्था की गयी थी. कम्मो बुआ के पति जब
दरवाजे पर आये तो एक साथ कितनों के दिल पर सांप लोट गया. कमला बुआ से पहले वाली
बहन के मुंह से निकल भी पड़ा था,
“बाबूजी को मेरे वक़्त इस
लड़के का पता क्यूँ नहीं चला”
दुल्हे को परीछते वक़्त दिए
की लौ से पान पत्ते को कुछ अधिक ही सेंक लिया था; जिसने नवेले दुल्हे के गोरे
मुखड़े पर जलने के लक्षण उभारने में कोई कसर नहीं छोड़ा और अपनी दिल की भावना को
उसके गाल पर परिलक्षित कर ही दिया. दर्द से तिलमिला सहम कर उसने भरे नैनों से
उन्हें देखा था. एक विद्रूप सी हंसी के साथ मझली बुआ ने आरती परिछावन का थाल किसी
को पकड़ा दिया था अपनी चमड़ी और दिल के रंग को अपनी करनी से चरितार्थ करते हुए. जयमाल
का रिवाज न था. फेरों के वक़्त भारी साड़ी और उस पर जड़ाऊ चादर के तले दबी-सिमटी बुआ
कपड़े गहने संभालती ही दुहरी हुई जा रही थी. किनके संग फेरे लिए; किसने मांग भरी
उसका मुखड़ा तब तक नहीं ही देख पायी थी. विवाह समाप्त होते होते भोर हो गयी, विदाई
का मुहूर्त सूर्योदय से पहले का ही था. सो कोहबर के रस्मों को जल्दी निपटा कर;
खोइंचा भर उनकी विदाई कर दी गयी. तीन दिनों से मेहमान बने उनींदे से सारे बाराती
झटपट पहले से तैयार बस में जा बैठे थे.
इतना बताने के बाद मेरी ननद अब बिलकुल गंभीर
मुखमुद्रा अख्तियार कर किसी सोच में डूब चुप हो गयी. मुझे उनके भाव भंगिमा देख एक
सिहरावन एक भय सा तारी हो गया. मैं चुप हो इन्तजार करने लगी कि स्वत: ही उनकी
अन्मयस्कता दूर हो. तलाकशुदा अपनी इस प्रोफेसर ननद के कड़क व्यवहार से मैं क्या सब
डरते थे घर पर. पर मैंने महसूस किया था कि जब से मैं गर्भवती हुई थी इनका व्यवहार
मेरे प्रति दिनोंदिन नरम होते जा रहा था. आये दिन वे अपने शहर से इधर का चक्कर
लगाने लगी थीं. उसी मुलायमियत का ही नतीजा था जो मैं बैठी उनसे बुआ जी के विगत को जान रही थी.
“देखो सुधा, अब तुमसे क्या
छुपाना; अब तो तुम इसी घर की हो”, दीदी की आवाज कहीं दूर से आती प्रतीत हुई.
“हम सबने भी तो सुना ही है
बस. घर पर कोई जिक्र नहीं करता है उस घटना के बारे में”
उनके चेहरे पर उगती जा रही
गमगीन लकीरें मुझे किसी बहुत बड़े रहस्योंदघाटन का संकेत देने लगी थी. बारात विदा
कर सब इधर उधर लेटे-बैठे थकान उतारने लगे. अधिकतर लोगो को जिधर जगह मिली पैर फैला
सोने का उपक्रम करने लगे. हलवाई ने दिन चढ़े कढ़ाई चढ़ा नाश्ते का प्रबंध शुरू किया.
“अब तक कमला अपने ससुराल
पहुँच गयी होगी, मंगलाचार स्वागत गीत हो रहे होंगे....”
“यहाँ से रांची कितनी देर
लगती होगी?”
“ओरमांझी घाटी में जाम न
मिले तो भी सात-आठ घंटें तो लग ही जायेंगे”
घर में बातें चल रही थीं कि
किसी मोटरसाइकिल वाले की रुकने की आवाज आई. बड़े जोरों की धम से गिरने की भी आवाज
आई अचानक. ननद कुछ क्षणों के लिए चुप हो गयीं, मुझे अनिष्ट का भान हो गया.
“उस दिन बारातियों से भरी
बस घाटी में पलट गयी थी और बारातीगण वापस रांची पहुंचे ही नहीं.”
दीदी की बातों को सुन मन
ऐसा विचलित हो गया कि कुछ और सुनने की उत्सुकता ही नहीं बची. दीदी की आँखों से भी
अविरल आंसू बहते रहें. घर-परिवार यही होता है ना, सब एक दूजे से जुड़े हुए;
दुःख-सुख के साथी भागीदार.
कुछ ही दिनों में मैं एक शरीर से दो हुई और तब
तक बुआ जी भी आ ही गयी थीं. अब इतने दिनों में ये समझ आ गया था कि उनके बिना यहाँ
कोई प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता है. फिर धीरे धीरे सब अपनी नौकरियों पर लौट गए.
बुआजी रह गयीं मुझे व् बच्चे की देखभाल के लिए. उसी बीच में हरियाली तीज पड़ी.
बुआजी को पूरे नेम धर्म से व्रत पूजा और साज श्रृंगार करते देख आश्चर्य लग रहा था.
किसके लिए ये सुहागिनों वाला पर्व कर रहीं, किसके नाम की मेहँदी रचाई हैं इन्होने.
फिर मन ने कहा अब जिसमें ख़ुशी मिले, करनी चाहिए. उस दिन गौरी पूजा कर शाम को वे
मेरे बगल में लेटी हुईं थी.
“सुधा! मुझे लगभग चालीस साल
हो गए तीज करते हुए, जाने उस जन्म में क्या गलती की थी .... अब कम से कम अगले जन्म
में सब ठीक हो..”, ये कहते उनका गला भर आया. कुछ इन्तजार के बाद बुआ जी उठ कर
बैठते हुए पूछा,
“सुधा तुम तो रांची से हो
ना?”
“जी बुआजी”, अचानक मुझे याद
आया दीदी ने बताया था कि इनकी शादी रांची ही हुई थी.
“कभी जनप्रिय भण्डार गयी
हो? जो एम जी रोड पर ही है”
आँखों के सामने दुकान तैर
गया, मम्मी तो महीने का समान वर्षों से वहीँ से लेती थी. दरअसल दुकान मालिक से
पापा मम्मी का दोस्ताना व्यवहार भी था.
“जब से जानी थी कि तुम
रांची से हो, मुझे बहुत उत्कंठा थी तुमसे जानने कि वो कैसे हैं.”, उपवास के बाद
क्लांत चेहरे पर एक स्पष्ट लज्जा की किरण परिलक्षित थी.
“कौन बुआ जी?”, आश्चर्य
अपनी सीमाओं को अतिक्रमित करने को आतुर था.
“जो उसके मालिक हैं वही तो
तुमलोग के फूफा जी हैं.”
“ क्या फूफा जी... ?” पर
दीदी ने कहा था ....मानस द्वन्द द्विगुणि गति से गतिमान था.
“तुम्हें तो पता ही होगा कि
अपनी शादी में मैं साक्षात् यमराज ही साबित हुई थी. ससुराल की देहरी पर पावं धरने
के पूर्व ही मेरी सास, ननदों और जेठानी की मांग उजड़ चुकी थी. सच मैं पूरे
बारातियों के लिए मौत का सामान ही साबित हुई, उंघते उनींदे ड्राईवर की गलती की सजा
मुझे ताउम्र भोगनी है. पर अपने पति के लिए तो सावित्री साबित हुई ना, उन चार छोटे
बच्चों के लिए भी; तो मुझे जीवनदायनी तब समझनी चाहिए जो मेरे साथ कार में थे और
सकुशल घर तक पहुँच गए.”
...और मैं अब तक समझ रही थी
कि फूफा जी भी....
“इसी से करती हूँ तीज, पहने रहती हूँ मंगलसूत्र और सिन्दूर; ताकि वो जिनके साथ फेरे लिए थे वो सकुशल रहें. मैं
तो उन्हीं लाल कपड़ो में गठरी बनी बैठी रह गयी उस आँगन में क्षत विक्षत शरीरों और
क्रंदन के बीच. गुनाहगारों की तरह हर आंसू की छड़ी से पिटती रही, हर प्रत्यापित दोष
से हथेलियों की मेहंदी रगड़ती सुनती रही.”
चौथे दिन मुझ घोषित ठुकराई हुई अशगुनी को
तीनों भाई उठा कर लेते आयें. बाबूजी तो उस दिन खबर सुन जो गिरे फिर उनकी अर्थी ही
उठी. भाइयों ने न सिर्फ अपनी गृहस्थी में मुझे जगह दी बल्कि जायजाद में भी
हिस्सेदारी दिया. दुनिया के लिए मैं अपशकुनी हुई होगी पर मेरे भाई भाभियों ने
हमेशा सब शुभ कार्य मुझसे ही करवाएं. कभी किसी ने मेरे समक्ष चर्चा तक नहीं किया,
पर मैं भूली ही कब थी.
“न कभी कोई विदा कराने आया; न कभी किसी ने मेरी फिर विदाई की सोची. चाभियों के गुच्छों के कमर बदल गएँ, घर के मालिकों के चेहरे बदल गएँ. पर मैं तो जस की तस रही, न कुंवारी रही न ब्याहता. सासें चलती रही जिन्दगी रुकी रही.".
“लकड़ी जल कोयला भई, कोयला भई राख. मैं पापन ऐसी जली कोयला भई न राख”
सुधा, बता न जनप्रिय
भण्डार के मालिक को देखा है? कैसें हैं वो?” बुआ जी निर्विकार भाव से बार बार पूछ
रही थी.
और मेरी आँखों के समक्ष तैर
गया जनप्रिय भण्डार के मालिक का सुंदर गौर वर्ण, लंबा ऊँचा कद मुस्कुराता सौम्य
चेहरा, जिन्हें मैंने सैकड़ों बार बचपन से देखा होगा. मन ही मन मैं जोड़ने लगी इन
दोनों को. एक सपना बनने-बिगड़ने लगा, बुआ-फूफा जी को साथ कर देने की स्वप्निल बदरियाँ तैरने लगी इन पगले दृगों में. पर, घर के लोग जब इस विषय पर तटस्थ रहतें हैं तो मैं
क्यूँ चालीस वर्ष पूर्व के गड़े मुर्दे को उखाड़ने का काम करूँ.
“नहीं बुआजी मैंने तो नहीं देखी ऐसी कोई दुकान”,
मेरे इस सपाट पटाक्षेप पर उन्होंने अविश्वसनीय दृष्टि से मुझे ताका. मैंने पारिवारिक परम्परा को निभाते हुए मुहं घुमा लिया. देर तक अपनी पीठ पर उनकी प्रश्नवाचक नयनों के तीर को महसूसती रही. अलबत्ता अपनी मम्मी से उनके बारे में अवश्य बातें करती रहती. मम्मी ने ही बताया कि फूफाजी ने दुबारा शादी नहीं की थी और सारी जिन्दगी भाभी, बहनों और दूसरों के बच्चों को पालने में होम किया; मानों कोई प्रायश्चित करते रहे. अब अकेलेपन की जिंदगानी काट रहें.
एक बात मम्मी ने और की थी, बरसों से सुप्त पड़ी चिंगारी हो हवा देना आरम्भ कर दिया था. यदा-कदा उनकी पत्नी यानी हमारी बुआ सास का जिक्र छेड़ उनकी वियोग गाथा भी सुना डालती. जो होता है वह संयोगवश नहीं बल्कि किसी कारण से ही घटित होता है और मेरी शादी भी शायद अकारण नहीं हुई होगी इस घर में. इधर कुछ दिनों से मम्मी ने फूफाजी की बिमारी और अकेलेपन की बातें मुझे सुनानी शुरू कर दिया था. जिन रिश्तेदारों के लिए उन्होंने अपनी पत्नी को त्याग दिया था वे आज उन्हें त्याग चुके थे. लोग तो आजकल माँ-बाप के नहीं होते हैं तो फिर ये तो किसी के मामा थे तो किसी के चाचा. समय के साथ सबके घाव भर गएँ; सब जिन्दगी में आगे बढ़ गए रुकी रह गयी जिंदगानियां तो यहाँ बुआ जी और वहां फूफाजी की.
मैंने ऑफिस जाना शुरू कर दिया था और बुआजी को वहां पुश्तैनी मकान में वापस नहीं जाने दिया था कि अकेले ही तो रहना होगा उन्हें. हर कोई इतने बरस से उनसे स्वार्थ ही तो साधता रहा था परिवार में; मैं भी अपवाद नहीं थी, नहीं कहूँगी कि मैंने नि:स्वार्थ ही रोका था.
उस दिन मेरे मम्मी-पापा आने वाले थें, हमसब व्यस्त थें कि डोर बेल बज उठी.
"सुधा लगता है तेरे पापा मम्मी आ गएँ, मैं दरवाजा खोलती हूँ", बुआजी ने मुन्ने को गोद में खिलाते हुए कहा.
"मुन्ने की नानी आएँगी, नानी खिलौने लायेंगी....", कहती बुआ दरवाजा खोलने लगी.
"सुधा देख जरा कोई आया है बाहर, मैं नहीं पहचान रही",
बुआजी ने रसोई में आ कर धीरे से मुझे कहा. मैं रसोई से बैठक में आई तो मानों मुझे करंट लग गया. तभी पापा मम्मी भी अंदर आ गएँ.
"बुआ बुआ.... आओ इधर", मैंने उन्हें पुकारा.
"बुआ इनसे मिलो इनका रांची में जनप्रिय भण्डार नाम की दुकान है".
अब बुआ के चौंकने की बारी थी, वे आँखे मलती हुई दुबारा हड़बड़ी में बैठक में आ खड़ी हो गयी.
सच में मेरे पापा मम्मी उसदिन मेरे ससुराल वालों के लिए खुशियों की चाभी ले कर आयें थें.
"कमला, मैं तुम्हें लेने आया हूँ, जो गलती मैंने की है तुम्हारे साथ उसकी कोई माफ़ी तो नहीं होगी मैं जानता हूँ. पर जीवन संध्या में तुम संग होगी तो कुछ प्रायश्चित अवश्य कर सकूँगा. जवानी तो कट गयी पर बुढ़ापा तन्हा काटे न कट रही", उन्होंने अपनी धीर गंभीर वाणी में कहा.
बुआ इस औचक आगत से अवाक थी, अविश्वसनीयता से निढाल हो वहीँ एक कुर्सी पर ढेर सी हो गयीं. बस डबडबाई नयनों से सब को ताक रही थी, जिनमें हजारों हज़ार सवाल आंसुओं संग सैलाब बनने को आतुर हो रहें थे.
जब तक सबने खाना-पीना किया, मैंने उनका बक्सा तैयार कर दिया, जिसमें उनके कुछ कपड़े और दवाइयां थी. पर उनके आसुओं को मैं कैसे समेटती, हजारों तन्हा रातों की बेबसी को कैसे भरती बक्से में. बक्सा तो इतना बड़ा था ही नहीं जो उस इल्जाम को पनाह दे देता जिसकी मार वह ताउम्र झेलती रही थीं थी. चौदह साल की बच्ची के मानस पर छाई उस खौफनाक यादों का मैं क्या करती जो उम्र के साथ प्रौढ़ नहीं हुआ था. उस आस्था और विश्वास का मैं क्या करती जो बिना पति का मुख देखे तीज करते रहे थें, वे भी उस बकुची में समाने से विद्रोह कर रहें थे. फिर बुआ की आँखों के प्रश्न सबको मथने में कोई कसर नहीं छोड़ रही थी कि,
"आखिर बुढ़ापे में ही क्यूँ याद आई? मानों न पहले मेरी अस्तित्व की कोई अहमियत थी न अब...."
मैंने बहुत जतन किया कि अपनी प्रौढ़ा बुआ सास के आँचल में मैं खुशियों का ही खोइंचा भरूं....
बुआ अपने घर जा रहीं थीं. पर खुश नहीं दिख रहीं थीं. उसी तरह विचारों में मग्न वे फूफाजी के साथ कार में जा बैठी. सजा की अवधि भले पूरी हो गयी थी पर साँसों के परिंदे तो कारावास के बाहर उड़ना भूल चुके थे. जिन्दगी भर सबने स्वार्थसिद्धि ही की थी आज भी स्वार्थ की अग्नि में समिधा बन जलने ही जा रहीं थीं. शायद राख में कुछ अंगारे जलने से शेष रह गए थे.
“नहीं बुआजी मैंने तो नहीं देखी ऐसी कोई दुकान”,
मेरे इस सपाट पटाक्षेप पर उन्होंने अविश्वसनीय दृष्टि से मुझे ताका. मैंने पारिवारिक परम्परा को निभाते हुए मुहं घुमा लिया. देर तक अपनी पीठ पर उनकी प्रश्नवाचक नयनों के तीर को महसूसती रही. अलबत्ता अपनी मम्मी से उनके बारे में अवश्य बातें करती रहती. मम्मी ने ही बताया कि फूफाजी ने दुबारा शादी नहीं की थी और सारी जिन्दगी भाभी, बहनों और दूसरों के बच्चों को पालने में होम किया; मानों कोई प्रायश्चित करते रहे. अब अकेलेपन की जिंदगानी काट रहें.
एक बात मम्मी ने और की थी, बरसों से सुप्त पड़ी चिंगारी हो हवा देना आरम्भ कर दिया था. यदा-कदा उनकी पत्नी यानी हमारी बुआ सास का जिक्र छेड़ उनकी वियोग गाथा भी सुना डालती. जो होता है वह संयोगवश नहीं बल्कि किसी कारण से ही घटित होता है और मेरी शादी भी शायद अकारण नहीं हुई होगी इस घर में. इधर कुछ दिनों से मम्मी ने फूफाजी की बिमारी और अकेलेपन की बातें मुझे सुनानी शुरू कर दिया था. जिन रिश्तेदारों के लिए उन्होंने अपनी पत्नी को त्याग दिया था वे आज उन्हें त्याग चुके थे. लोग तो आजकल माँ-बाप के नहीं होते हैं तो फिर ये तो किसी के मामा थे तो किसी के चाचा. समय के साथ सबके घाव भर गएँ; सब जिन्दगी में आगे बढ़ गए रुकी रह गयी जिंदगानियां तो यहाँ बुआ जी और वहां फूफाजी की.
मैंने ऑफिस जाना शुरू कर दिया था और बुआजी को वहां पुश्तैनी मकान में वापस नहीं जाने दिया था कि अकेले ही तो रहना होगा उन्हें. हर कोई इतने बरस से उनसे स्वार्थ ही तो साधता रहा था परिवार में; मैं भी अपवाद नहीं थी, नहीं कहूँगी कि मैंने नि:स्वार्थ ही रोका था.
उस दिन मेरे मम्मी-पापा आने वाले थें, हमसब व्यस्त थें कि डोर बेल बज उठी.
"सुधा लगता है तेरे पापा मम्मी आ गएँ, मैं दरवाजा खोलती हूँ", बुआजी ने मुन्ने को गोद में खिलाते हुए कहा.
"मुन्ने की नानी आएँगी, नानी खिलौने लायेंगी....", कहती बुआ दरवाजा खोलने लगी.
"सुधा देख जरा कोई आया है बाहर, मैं नहीं पहचान रही",
बुआजी ने रसोई में आ कर धीरे से मुझे कहा. मैं रसोई से बैठक में आई तो मानों मुझे करंट लग गया. तभी पापा मम्मी भी अंदर आ गएँ.
"बुआ बुआ.... आओ इधर", मैंने उन्हें पुकारा.
"बुआ इनसे मिलो इनका रांची में जनप्रिय भण्डार नाम की दुकान है".
अब बुआ के चौंकने की बारी थी, वे आँखे मलती हुई दुबारा हड़बड़ी में बैठक में आ खड़ी हो गयी.
सच में मेरे पापा मम्मी उसदिन मेरे ससुराल वालों के लिए खुशियों की चाभी ले कर आयें थें.
"कमला, मैं तुम्हें लेने आया हूँ, जो गलती मैंने की है तुम्हारे साथ उसकी कोई माफ़ी तो नहीं होगी मैं जानता हूँ. पर जीवन संध्या में तुम संग होगी तो कुछ प्रायश्चित अवश्य कर सकूँगा. जवानी तो कट गयी पर बुढ़ापा तन्हा काटे न कट रही", उन्होंने अपनी धीर गंभीर वाणी में कहा.
बुआ इस औचक आगत से अवाक थी, अविश्वसनीयता से निढाल हो वहीँ एक कुर्सी पर ढेर सी हो गयीं. बस डबडबाई नयनों से सब को ताक रही थी, जिनमें हजारों हज़ार सवाल आंसुओं संग सैलाब बनने को आतुर हो रहें थे.
जब तक सबने खाना-पीना किया, मैंने उनका बक्सा तैयार कर दिया, जिसमें उनके कुछ कपड़े और दवाइयां थी. पर उनके आसुओं को मैं कैसे समेटती, हजारों तन्हा रातों की बेबसी को कैसे भरती बक्से में. बक्सा तो इतना बड़ा था ही नहीं जो उस इल्जाम को पनाह दे देता जिसकी मार वह ताउम्र झेलती रही थीं थी. चौदह साल की बच्ची के मानस पर छाई उस खौफनाक यादों का मैं क्या करती जो उम्र के साथ प्रौढ़ नहीं हुआ था. उस आस्था और विश्वास का मैं क्या करती जो बिना पति का मुख देखे तीज करते रहे थें, वे भी उस बकुची में समाने से विद्रोह कर रहें थे. फिर बुआ की आँखों के प्रश्न सबको मथने में कोई कसर नहीं छोड़ रही थी कि,
"आखिर बुढ़ापे में ही क्यूँ याद आई? मानों न पहले मेरी अस्तित्व की कोई अहमियत थी न अब...."
मैंने बहुत जतन किया कि अपनी प्रौढ़ा बुआ सास के आँचल में मैं खुशियों का ही खोइंचा भरूं....
बुआ अपने घर जा रहीं थीं. पर खुश नहीं दिख रहीं थीं. उसी तरह विचारों में मग्न वे फूफाजी के साथ कार में जा बैठी. सजा की अवधि भले पूरी हो गयी थी पर साँसों के परिंदे तो कारावास के बाहर उड़ना भूल चुके थे. जिन्दगी भर सबने स्वार्थसिद्धि ही की थी आज भी स्वार्थ की अग्नि में समिधा बन जलने ही जा रहीं थीं. शायद राख में कुछ अंगारे जलने से शेष रह गए थे.
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