अहिल्या गृहशोभा september second 2020
कहानी – अहिल्या by Rita Gupta,
Ranchi
आज अरमानों के पूरे होने के दिन थे, स्वप्निल गुलाबी पंखड़ियों सा नरम, खूबसूरत और चमकीला भी; तुहिना
और अंकुर के शादी का दिन. ब्यूटी पार्लर में दुल्हन बनती
तुहिना बीते वक़्त को यादों के गलियारों से गुजरती पार करने लगी. दोनों ही इंजीनियरिंग फाइनल ईयर में दोस्त बने थे जब उन दोनों की ही एक
ही कंपनी में नौकरी लगी थी कॅम्पस प्लेसमेंट में. फिर बातें
होनी शुरू हुई, नए जगह जाना, घर खोजना और एक ही ऑफिस में जॉइन करना. दोनों ने ही ऑफिस के पास ही पीजी खोजा और फिर जीवन की नई पारी शुरू किया.
फिर हर दिन मिलना, ऑफिस की बातें
करना बॉस की शिकायत करना. कभी कभी शाम को साथ ही नाश्ता करना या सड़क
पर घूमना। धीरे धीरे दोस्ती का स्वरूप बदलने लगा था. अब घर
परिवार की पर्सनल बातें भी शेयर होने लगी थी. दोनों ही अपने
परिवार में इकलौते बच्चे थे और दोनों के ही पिता नौकरीपेशा.
हाँ तुहिना की मम्मी भी जहां एक कॉलेज में पढ़ाती थी वहीं अंकुर की मम्मी गाँव की
सीधी सरल महिला थी और वो गाँव में ही रहतीं थी. अंकुर के
पिताजी शहर में अकेले ही रहते थे और अंकुर की छुट्टियाँ होने पर दोनों साथ ही गाँव
जाते थे. दोनों चार पाँच दिनों के लिए ही जाते और फिर शहर
लौट आते.
“तुम्हारी मम्मी साथ क्यूँ नहीं रहती?”,
तुहिना ने एक मासूम सा सवाल पूछा था.
“दरअसल गाँव मे हमारी बहुत प्रॉपर्टी है. सैकड़ों एकड़ खेत, खलिहान और गौशाला इत्यादि
भी. फिर घर भी बहुत बड़ा है, जैसे पीजी में मैं अभी रह रहा
हूँ वैसा तो हमारा गौशाला भी नहीं है. माँ वहाँ रह कर सबकी
देख भाल करती हैं। सालों भर तो एक न एक फसल काटने और रोपने की जिम्मेदारी रहती है. उन सब को कौन देखेगा यदि माँ शहर में आ जाएंगी, हमारे घर आने का तो वे
बेसब्री से इंतजार करती हैं. आज भी छोटे बच्चे की ही तरह वो
मुझे दुलारती हैं“
अंकुर ने बताया था.
“अच्छा तो तुम खेतिहर बैक ग्राउन्ड से हो? मैंने तो कभी गाँव देखा भी नहीं,
गाँव हमेशा फिल्मों में ही देखा है. दादा-दादी या नाना-नानी सब शहर में ही रहें
हैं और मेरी अब तक की जिंदगी फ्लैट में ही कटी है”
तुहिना ने विस्फारित नयनों से कहा.
“अच्छा शादी होने दो तो तुम भी गाँव देख लेना, वो भी अपना वाला”,
अंकुर ने हँसतें हुए कहा तो तुहिना चौंक गई,
“शादी? तुम क्या मुझे प्रपोज कर रहे हो? इस तरह भला कोई पूछता है?”,
तुहिना आश्चर्यमिश्रित खुशी से चीखते हुए पूछा.
“अब मैं ठहरा गाँव गँवई व्यक्ति, मुझे इन बातों की ज्यादा समझ नहीं। पर मैं
बाकी जिंदगी तुम्हारे साथ ही रहना चाहूँगा, क्या हम शादी कर लें?”
अंकुर ने तुहिना की हथेली को अपने हाथों में लेते हुए कहा.
ब्यूटीपार्लर में बैठी
तुहिना के दिमाग में रील की तरह ये सब घूम रहा था. कितनी आनन फानन में फिर
सारी बातें तय हो गईं. नौकरी के एक साल होते होते दोनों
विवाह के बंधन में बंधने जा रहें, ये सोच कर तुहिना रोमांचित हो रही थी. दोनों के ही घर वालों को कोई आपत्ति भी नहीं हुई थी. तुहिना के पापा-मम्मी तो खुश ही हुए थे कि अंकुर की पृष्ठभूमि इतनी मजबूत
है. अंकुर के पिताजी जो पटना में एक बैंक में काम करते थे,
तुहिना से मिलने बैंगलोर चले गए और तुहिना के माता-पिता भी उसी वक़्त बैंगलोर जा कर
उनलोगों से मिल लिए. ऐसा लगा मानों सब कुछ पहले से तय हो बस
औपचारिकता पूरी करनी है. अब बारात दिल्ली, तुहिना के घर कब
आएगी ये सब तय होना था। तुहिना के माता-पिता जहाँ डरे हुए थे कि जाने अंकुर के
पिता की क्या मांग हो, कितना दहेज की इच्छा जाहिर करेंगे पर हुआ इसका उलट ही. उन्होंने ऐसा कोई भी मांग या विशेष इच्छा प्रकट नहीं किया बल्कि दो सेट
महंगे भारी भरकम जड़ाऊ सेट तुहिना को आशीर्वाद में दे दिया.
तुहिना का मेकअप अब समाप्त
प्राय ही था, तुहिना ने जल्दी से अपनी मोबाईल निकाली और चार पाँच सेल्फ़ी ले लिया. बारात
में गिनेचुने लोग ही आए थें और शादी में अधिक मेहमान तो तुहिना के ही तरफ के थे. महिलायें तो एक भी नहीं आईं थी क्यूंकि अंकुर के गाँव में महिलायें बारात
नहीं जाती हैं, ऐसा ही कुछ उसके पिताजी ने बताया था.
शादी खूब अच्छे से सम्पन्न हुई, विदा
हो कर तुहिना उसी होटल में गई जहां अंकुर के पापा ठहरे हुए थे. मोबाईल
पर विडिओ कॉल पर अंकुर ने अपनी माँ से उसे मिलवाया. सचमुच
बेहद स्नेहिल दिख रही थीं उसकी माँ, बार बार उनकी आंखे छलक रही थी.
“माँ अब बस तुम्हारे पास ही तो आ रहे हैं, तुम रो मत।“,
अंकुर उन्हें भावविभोर होते देख कहा.
तभी उसके पापा आ गए और कॉल समाप्त हो गई. अंकुर के पापा बेहद खुश दिख रहे थे,
उन्होंने बच्चों के सर पर हाथ फेरा और एक लिफाफा पकड़ाया.
“लो बच्चों ये तुम दोनों को मेरी तरफ से शादी का गिफ्ट, यूरोप का पंद्रह दिनों
का हनीमून पैकेज, कल सुबह ही निकलना है यहीं दिल्ली से ही, सो तैयारी कर लो”
तुहिना और अंकुर आश्चर्य चकित रह गए,
“पर पापा फिर माँ से मिलना कैसे होगा? हम घूमने बाद में भी तो जा सकते हैं”
अंकुर ने आनाकानी करते हुए कहा.
“घूम कर सीधे गाँव ही आ जाना, अभी शादी इन्जॉय करो। गाँव में तुमलोग बोर हो
जाओगे”
इस तरह अंकुर और तुहिना फिर यूरोप
टूर पर निकल गए. पंद्रह दिन कैसे गुजर गए दोनों को पता ही नहीं चला, सबकुछ एक
स्वप्न की तरह मानों चल रहा हो. लौट कर दोनों सीधे बैंगलोर
ही चले गए. इस तरह तुहिना अपनी सास से नहीं ही मिल पाई. तय हुआ कि दो महीनों के बाद दिवाली के वक़्त गाँव चल जाएगें दोनों.
दो महीनों के बाद जब तुहिना पहली
बार गाँव जा रही थी तो उसे अंदर ही अंदर बहुत घबराहट हो रही थी. जाने
कैसी होंगी अंकुर की माँ, वहाँ लोग कैसे होंगे या फिर गाँव का घर कैसा होगा. बँगलोर से वे लोग पटना पहुंचे और वहाँ से अंकुर के पापा के साथ वे लोग
सड़क मार्ग से गाँव की ओर चल दिए. कोई तीन साढ़े तीन घंटों में
वे लोग गाँव पहुँच गए. रास्ते की हरियाली उसका मन मोह रही
थी, बरसात बीत चुकी थी पेड़ पौधे खेत सब चमकदार हरे परिधान पहन नई दुल्हिन का मानों
स्वागत कर रहें थें. अंकुर बीच बीच में अपनी माँ को बता रहा
था कि वो लोग कहाँ तक पहुंचे या कितनी देर में पहुँच जाएंगे.
रास्ते में पहली बार तुहिना अपने ससुरजी से भी इतना घुलमिल बातें करती जा रही थी. उसके ससुरजी काफी लंबे बलिष्ठ कद काठी के व्यक्ति थे जिनपर उम्र अपना छाप
नहीं लगा पाई थी अब तक.
जब कार लंबी चौड़ी बाउंड्री वाल को
पार करती हुई एक दरवाजे के सामने जा कर रुकी तो तुहिना हैरान रह गई उस दरवाजे को
देख कर. अर्धगोलकार बड़े से उस नक्काशीदार लकड़ी के दरवाजे के ऊपर महीन काष्ठकारी
की हुई थी, दरवाजा तो इतना बड़ा था मानों उस में से हाथी निकल जाए. अवश्य इन दरवाजों का प्रयोग हाथी घुसाने के लिए की जाती होंगी, वह अब तक
मुहँ बाये दरवाजे को ही देख रही थी कि अंकुर ने कुहनी मारी.
सामने उसकी सासू माँ खड़ी थी, आरती की थाल ले कर। गोल सा चेहरा, गेंहुआँ रंगत मझौला
कदकाठी, उल्टे पल्ले की गुलाबी रेशमी साड़ी पहनी उसकी सास ने उसे सिंदूर का टीका
लगाया, बेटे बहू दोनों की आरती उतारी लुटिया में भरे जल को तीन बार उनके ऊपर वार
कर अक्षत के साथ ढेर सारे सिक्के हवा में उछाल दिया. गाँव की
मुहानी से कार के पीछे पीछे दुल्हन देखने को उत्सुक दौड़ते बच्चे झट उन्हें लूटने
लगे. वो तो अच्छा हुआ था कि तुहिना ने आज सलवार कुर्ती और
दुपट्टा पहन हुआ था वरना बड़ी शर्म आती कि सास सर पर पल्लू लिए हुए हों और बहू जींस
टॉप में. अंकुर ने कुछ भी नहीं बताया था, वह पूछती रह गई थी
कि वह क्या पहने कैसे कपड़े ले कर वह गाँव चले.
उसकी सास उससे सब नई दुल्हन वाले
नेग करवा रही थी. जब उसने अंदर प्रवेश किया वह चकित रह गई कि घर कितना बड़ा है. उसे घर नहीं हवेली, कोठी या महल ही कहनी चाहिए.
सारी जिंदगी फ्लैट में रहने वाली तुहिना ने सपने में भी नहीं सोच था कि उसकी
ससुराल का घर इतना विशाल होगा. मुख्य दरवाजे को पार कर बड़ा
सा दालान था, उसके बाद एक बहुत बड़ा सा आँगन था. आँगन बीचों
बीच था और उसके चारों तरफ कमरे दिखाई दे रहें थें। आँगन और फिर दालन पार कर दो
कोनों पर सीढ़ियाँ दिखाई दे रही थी, वहीं तीसरे कोने में एक मंदिर था एक तरफ; जहां
उसे शीश नवाने हेतु ले जाया गया, वहाँ उसने देखा कि सास बाहर ही रुक गई और ससुर उन
दोनों को देवता घर में ले गए. घर के अंदर इतना सुंदर सा
मंदिर, वहाँ एक पंडित जी भी बैठे हुए थें जिन्होंने इन दोनों से कुछ पूजा कुछ
रस्म करवाए. फिर सासू माँ तुहिना का हाथ पकड़ सीढ़ियों से ऊपर
ले जाने लगी, अंकुर को भी दुलारते हुए वे ले चली. तीसरे तले
तक पहुंचते पहुंचते तुहिना हाँफ गई थी.
“दुल्हिन, ये तुम्हारा कमरा है अब तुम आराम करो.“
कोई उसका समान पहले ही वहाँ पहुँच
चुका था. वह कमरा कहने को था वह तो पूरा हॉल था, शायद महानगरों के बहुमंजिले
इमारतों का एक ‘दो बेडरूम फ्लैट’ इसमें समा जाए. कमरे से
निकला बालकनी जिस के रेलिंग पर सुंदर नक्कासीदार काम किए हुए थे. झरोखेनुमा खिड़कियाँ अलग मन मोह रही थी. तुहिना कमरे
का मुआयना कर ही रही थी कि उसने देखा अंकुर माँ की गोदी मे सर रख लेट चुका था। माँ
उसका सर सहलाते हुए कह रहीं थी,
“ये घर आज घर लग रहा है, वरना मैं अकेले एक कोने मे पड़ी रहती हूँ. वर्षों
से रंग रोगन नहीं हुए थे और न ही मरम्मत. जब शादी की खबर
मिली तो मैंने झट मरम्मत का काम शुरू करवाया पर इतना बड़ा घर, काम पूरा ही नहीं हुआ. मेरी इच्छा थी कि तेरी बहू को मैं साफ सुथरे घर में ही उतारूँगी उस
भूतिया हो चुके घर में नहीं. अभी दो दिन पहले तो मजदूरों ने
अपने बांस बल्लियाँ हटायें हैं. बहू के आने से आज घर में
मानों रौनक आ गई”
अच्छा तो ये राज है उस अचानक हनीमून पैकेज का, तुहिना ने मुसकुराते हुए सोचा.
फिर अंकुर की माँ ने तुहिना को पास बुला कर चाभियों का गुच्छा थमाते हुए कहा
कि,
“लो संभालो अपनी जिम्मेदारी, अब मैं थक चुकी हूँ। मैंने वर्षों इंतजार किया कि
कब अंकुर की बहू आएगी जो ये सब घर-गृहस्थी संभालेगी“
उनके ऐसे बोलते ही तुहिना को मानों बिच्छू ने काट लिया उसने बेबसी से अंकुर की
तरफ देखा। अंकुर ने उसके भाव समझते हुए कहा,
“माँ ये बस आप ही संभाल सकती हैं। तुहिना नौकरी करती है, उसे छोड़ वह कहाँ इन
सब झमेलों में रहने आएगी”,
अंकुर ने माँ को गुच्छा लौटाते हुए कहा।
“अच्छा जब तक है तब तक बहूरानी ये संभालें, सब कुछ देखे समझे”,
कहती हुई वे चाभियाँ वहीं छोड़ कर चली गईं.
उस दिन तो थकान उतारने मे ही बीत
गया, अगले दिन से तुहिना हवेली में घूम घूम देखने लगी सब कुछ. कौतूहल
वश हर झरोखे से झाँकती, हर खंबे के पास खड़ी हो सेल्फ़ी लेती तो कभी बंद दरवाजे की
ही खूबसूरती को कैमरे में कैद करती. चाभी के गुच्छे को भी
हैरानी से देखती, वैसे ताले चाभी तो अब दिखते भी नहीं कम से कम तुहिना ने तो नहीं
ही देखा था. हर कमरे पर बड़ा सा ताला लटका हुआ था, उसे देख
उसे किसी लटके चेहरे वाले बूढ़े की याद आ रही थी. दिवाली में
अभी दो दिन और थे पर घर तो उसी दिन से सजा हुआ था जिस दिन से वे सब आयें थें.
अंकुर देर तक सोता रहता और तुहिना
को समझ आ रहा था कि अंकुर घर सिर्फ सोने और खाने ही आता है. शायद
उसे भी सभी कमरों की कोई जानकारी नहीं थी.
“अंकुर उठो न मैं बोर हो रहीं हूँ, बारह बजने को आए तुम तो उठ ही नहीं रहे”
तुहिना ने अंकुर को हिलाने का असफल प्रयास किया. हार कर वह चौके के दरवाजे
को पकड़ कर खड़ी हो गई. चौके में मम्मी खाना बनाने में व्यस्त
थीं, सब की पसंद के पकवान बन रहें थें.
“जब सब घर आते हैं तभी इस रसोई के भाग जागते हैं वरना मैं उधर अपने कमरे में
ही कुछ पका लेती हूँ. अब सीढ़ियाँ भी तो चढ़ी नहीं जाती हैं। न - न बिटिया तुम रहने
दो, अपने घर पर तो करती ही होंगी, कुछ दिन यहाँ मेरे हाथ के खाने का स्वाद लो. जा बिटिया घूमो फिरो, अपने घर को देखो समझो. अंकुर तो कभी देखता ही नहीं और न ही उसके बाबा. तुम संभाल लो तो मेरी जिम्मेदारी खतम हो”,
तुहिना को हाथ बँटाने के लिए आते देख उन्होंने टोक दिया.
“बेटी तुम किस्मत वाली हो जो ऐसे सास-ससुर मिले तुम्हें”,
तुहिना की माँ फोन पर उसे बोलती.
अब तुहिना को वाकई इधर उधर डोलने के
सिवा कोई काम नहीं था. सो वह अब हर कमरे को
खोल खोल देखने लगी. हवेली के पिछवाड़े में खलिहान था, जहां
शायद फसल कटने पर रखा जाता था. अनाज की कोठरियाँ थी और बड़ा
सा गौशाला भी जहाँ कई मजदूर जन थे जो वहाँ मौजूद दसियों गायों की देखभाल करते थे. तुहिना ने सब पता किया, दूध हर दिन विशेष गाड़ी से पटना स्थित एक डेयरी
फार्म में जाता था और अनाज की बोरियाँ भी ट्रकों में भर मंडियों मे बिकने जाती थी।
अब तक थैली मे दूध खरीदने वाली आश्चर्य से अपनी मिल्कियत देख रही थी.
एक बात उसे अजीब लगती कि उसकी सास
अपने पति यानि उसके ससुर से पर्दा करती थी जब कि तुहिना को कुछ भी मनाही नहीं थी. एक दिन
उसने सुबह सुबह देखा था, आँगन में ससुर जी कुर्सी पर बैठे थे और सास एक बही नुमा
खाते को खोल कुछ बता रही थी. वह ऊपर तले की मुंडेर से नीचे
झांक रही थी, पूरे वक़्त उसकी सास कुछ समझाने की प्रयास कर रहीं थी. उसने देखा उन्होंने बहुत सारे रुपये एक पोटली में जो बंधे हुए थे, उनके
हाथ में दिया. ससुर जी ने न उसे गिना या ठीक से देखा उसे फिर
से बांध सास की ही हाथ में थमा दिया. वे बिल्कुल वैसे ही कर
रहें थें जैसे अंकुर से कुछ जबरदस्ती करवाओ तो करता है। वह हाव-भाव से समझ रही थी
ऊपर से.
दिवाली का दिन था, अंकुर दोपहर
में खाना खा कर फिर सो रहा था. उसके ससुर जी नीचे पूजा रूम में थे और
तुहिना रसोई के बगल वाले स्टोर रूम में घुस संदूकों और बक्सों को खोल खोल देख रही
थी. बहुत पुराने पुराने कपड़े थें, कई बक्सों में तो सिर्फ
साड़ियाँ भरी हुई थी. भारी भारी बनारसी साड़ियाँ थी ज्यादातर. एक लकड़ी का सुंदर सा अलमारी था, उसमें बहुत सारी ब्लैक एण्ड व्हाइट
तस्वीरें थी. एक सन्दूक था, जिसे खोलने तुहिना को आ ही नहीं
रहा था. वह दीवाल में लगा हुआ था और उसके दरवाजें पर अंदर
घुसा कर खोलने वाले तालें थे,
चरमर्र की आवाज से मम्मी भी आ कर खड़ी हो गई थी. पहले तो तुहिना को भान ही
नहीं हुआ, फिर जब देखा कि वे उसे ही मूक हो देख रहीं हैं तो तुहिना थोड़ा झेंप सी
गई. क्या सोच रही होंगी वो कि कैसी लड़की है सब कुछ मानो देख
ही लेगी. तुहिना झट से हाथ में पकड़ी तस्वीर को अलमारी मे
रखने लगी.
“रुको बहू रानी, मैं खुद तुम्हें इस कमरे में लाना चाह रही थी पर तुम्हारे
ससुर जी राजी ही नहीं हो रहे थें.“,
मम्मी ने कहा तो वह थम गई.
उसके बाद देर तक वे उसे अलमारी के
फोटो दिखाती रहीं, बताती रही सुनाती रहीं। सन्दूक खोल उसे दिखाया जिसमें सोने
चांदी, हीरे मोती के गहने भरे पड़े थें.
एक लाल बनारसी साड़ी उसमें से निकाल उसे पहना दिया और गहनों से लाद दिया ऊपर से
नीचे. तुहिना किंकर्तव्यविमूढ़ हो सब कराती रही. शाम हो
चली थी, उसे ले कर वे उसे पूजा घर में पहुँचा आईं और खुद बाहर जा कर बैठ दिया-बाती
की तैयारी करने लगी. अंकुर भी कुर्ता पायजामा में सजीला बन
पूजा घर में आ बैठ, पापाजी तो थे ही. देर रात तक पूजा चली
फिर सबने माँ के हाथ के पकवानों को चाव से खाया, मम्मी बार बार आंखे पोंछ रहीं थी.
दूसरे दिन सुबह तीनों पटना के लिए
निकाल पड़े, अंकुर माँ के गले लग रोने वाला इस बार अकेला नहीं था, तुहिना भी उसी
व्यग्रता से रो रही थी. पापाजी कार में पहले ही जा बैठे थे, लौटते वक़्त रास्ते भर
शायद ही किसी ने आपस में बातें कि होंगी मानों सब गमगीन हों.
पर तुहिना अब तक सुन रही थी गुण रही थी जो उस दोपहरी मम्मी ने उसे बताया था,
“दुल्हिन ई सब संभाल लो, अब मुझसे नहीं होता है. न न ई फोटो को नहीं रखो
अंदर पहले इन्हें ध्यान से देखो, प्रणाम करो इनको. ये ही
तुम्हारी सास हैं “राधा”, अंकुर को जन्म देने वाली. मैं तो
राधा दीदी के मायके से आई अनाथ हूँ जो राधा के संग उसके ब्याह के साथ ही आई थी
उसकी देखभाल करने. क्या जानती थी कि ऐसा हो जाएगा कि सब चले
जाएंगे और मैं ही रह जाऊँगी देखभाल करती हुई सब कुछ. सब कुछ
है इस घर में बस रहने वाले आदमी ही नहीं हैं. अंकुर के पिता
भी अकेले थे उसके दादा भी अकेली संतान ही थें“
फिर उन्होंने तुहिना को वो बात
बताई जिससे अंकुर भी अनजान है,
“अंकुर को जन्म देने के बाद से ही राधा दीदी बीमार रहने लगी थी, अंकुर के छ
महीने का होते होते वे चल बसी. अब इत्ते बड़े घर में रह गए अंकुर के पापा
और दादाजी और नन्हा सा अंकुर. मैं कहाँ जाती मैं बच्चे को
सीने से लगा पालने लगी, जब तक अंकुर के दादाजी रहे वे कोशिश करते रहें कि मेरी
शादी हो जाए. पर न मेरी शादी हुई और न अंकुर के पापा ने
दूसरी शादी किया. हम अंकुर के माँ-बाप जरूर थे पर पति पत्नी
नहीं. बचपन में अंकुर यहीं गाँव के स्कूल में पढ़ता रहा फिर
कुछ बड़ा होने पर ठाकुर साहब पटना में बैंक की नौकरी करने लगे कारण यहाँ गाँव मे
लोग तरह तरह कि बातें करने लगे थे हम दोनोंको ले कर.
फिर अंकुर को आगे अच्छी शिक्षा भी
तो देनी थी, इतना बड़ा आदमी अपना सब कुछ मुझ दाई के हाथों सौंप एक छोटी सी नौकरी
करने लगा. अंकुर की माँ बन मैं यहीं इस घर में रह गई, राधा की अमानत समझ संभालती
रही. सुनती भी रही जमाने के विषाक्त बोल, ठाकुर साहब तो
मुझसे हिसाब भी न पूछते पर मैं कैसे कुछ गलत करती आखिर सब मेरे बेटे अंकुर का ही
तो है. पर अब अकेलापन हावी होने लगा है, ये सब धन दौलत
तुमलोगों का है, दुल्हिन अब संभालो अपनी अमानत.“
“अंकुर मुझे माँ समझता है, बस सही भरम मेरे जीने के लिए बहुत
है, उम्मीद है दुल्हिन तुम हमेशा उसकी माँ को जिंदा रखोगी कमसे कम गब तक मैं जिंदा
हूँ. मत तोड़ना ये भरम”
मम्मी हाथ जोड़ कहने लगी थी।
कार पटना एयरपोर्ट पहुँचने को थी, तुहिना को अपना कहा याद आ रहा था जिसे उसे
जल्दी ही पूरा करना भी है,
“माँ, अब आप अकेली नहीं हैं। आप यहाँ जितना होता है समेट दें। बहुत काम कर
लिया, अब आप अपने बेटे बहू के संग रहेंगी, बस अगले महीने मैं फिर आ कर आपको ले
जाऊँगी”
तुहिना सोच रही थी कि अचानक ध्यान आया कि मम्मी का नाम तो पूछा ही नहीं, अवश्य
उनका नाम “अहिल्या” ही होगा. Story by Rita Gupta, Ranchi.
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