" साहित्य के क्षेत्र में स्त्रियों की क्या भूमिका है मनीषा श्री को भेजे हैं


" साहित्य के क्षेत्र में स्त्रियों की क्या भूमिका है "

   साहित्य समाज का दर्पण है, महिलाओं की सामाजिक स्थिति का परिलक्षण साहित्य जगत  में भी स्पष्ट परिलक्षित होता है।
    प्राचीन भारत में महिलाओं को जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा हासिल था।  प्रारम्भिक वैदिक काल में महिलाओं को शिक्षा दी जाती थी। ऋग्वेदिक ऋचाएं यह बताती हैं कि महिलाओं की शादी एक परिपक्व उम्र में होती थी और संभवतः उन्हें अपना पति चुनने की भी आजादी थी। ऋग्वेद और उपनिषद जैसे ग्रंथ कई महिला साध्वियों और संतों के बारे में बताते हैं जिनमें गार्गी और मैत्रेयी के नाम उल्लेखनीय हैं। संत-कवयित्री मीराबाई भक्ति आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण चेहरों में से एक थीं। इस अवधि की कुछ अन्य संत-कवयित्रियों में अक्का महादेवी, रामी जानाबाई और लाल देद शामिल हैं। बाद में महिलाओं की स्थिति में गिरावट आनी शुरु हो गयी, मुगल साम्राज्य के इस्लामी आक्रमण के साथ और इसके बाद ईसाइयत ने महिलाओं की आजादी और अधिकारों को सीमित कर दिया। 
 तत्कालीन साहित्य में महिला रचनाकारों की अनुपस्थिति स्वतः ही इस तरफ इंगित करती ही है। जबकि महिलाएं अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील और भावुक प्रवृत्ति की होती हैं, जब जब समाज ने उनकी उपस्थिति को सराहा, समझा या मान दिया महिलाओं ने मुखर हो साहित्य रचा। फिर भी साहित्यिक पटल से उनकी लम्बी और अपेक्षाकृत  कम अनुपस्थिति संदिग्ध और शोचनीय है। भक्ति काल की समस्त कवियित्रियाँ स्त्री वेदना और विद्रोह को अभिव्यक्त करती हैं चाहे वो मीरा हो या लल्लेश्वरी; भक्ति रस में भी इनकी आक्रोश को महसूस किया जा सकता है। मौखिक साहित्य रचने के काल में मानों स्त्री रचित रचनाओं को सकंलित या सहेजा ही नहीं गया।
    आजादी की लड़ाई के समय जो स्वर साहित्य में उभरा उसमे देशकालिक परिस्थितियां और देश प्रेम की अभिव्यक्ति साफ़ लक्षित होती है महादेवी वर्मा , सरोजिनी नायडू ,सुभद्रा कुमारी चौहान ,उषा देवी मिश्रा आदि कई लेखिकाओं ने अपने समय को अभिव्यक्ति दी और उनके प्रति लिखी गयी कविताएं या अन्य सशक्त लेखन का योगदान हिंदी साहित्य को प्राप्त हुआ। अब तो परिस्थितियां काफी बदल गई हैं जीवन के हर क्षेत्र की तरह साहित्य में भी महिलाएं महती भूमिकाएँ निभा रहीं हैं। हालांकि पुरुष साहित्यकारों पर स्त्रियों के स्वर को कुचलने, दबाने और महत्व न देने के आरोप लगते रहें हैं। फिर भी महिलाएं मुखरा हो अपनी अभिव्यक्ति की आजादी का उपयोग तो कर ही रही हैं। हालांकि उनकी कलम ज़्यादातर उनकी व्यथा व्यक्त करती है। पितृसत्तातमक समाज के खिलाफ भी उनकी छटपटाहट स्पष्ट परिलक्षित होती है। सही भी है साहित्य समाज का ही प्रतिबिंब होता है, लेखक लेखिकाओं पर ये दायित्व है कि वे न सिर्फ समाज की विसंगतियों और बदलावों को इंगित करे बल्कि ईश्वर प्रदत्त छठी इंद्रीय का उपयोग कर राह भी सुझाए। लाख दबाने पर भी महिला लेखिकाएँ और कवयित्रियाँ संवेदनशील रचनाएँ रचती रहीं, एक ओर जहाँ अपनी व्यथा को व्यक्त करती रहीं वही दूसरी ओर अपनी कोमल भावनाओं को प्रेम गीतों और सौंदर्य बोध रचनाओं से इजहार करती रहीं हैं। समकालीन साहित्य काल में स्त्रियां हाशिए पर कतई नहीं हैं, हर क्षेत्र की की ही तरह यहाँ भी उनके सशक्त हस्ताक्षर दर्ज हो रहे हैं। नई टेक्नोलोजी और आधुनिक प्लेटफार्मो का सदुपयोग करते हुए वे विविध विषयों पर कलम चला अब अपनी उन्नत सोच का परिचय दे रही हैं।
रीता गुप्ता



Comments

Popular posts from this blog

अहिल्या गृहशोभा september second 2020

कहानी—“हम-तुम कुछ और बनेंगे” published in grih shobha jan 1st 2017

दुल्हन वही जो पिया मन भावे सरिता नवंबर सेकंड

"भैया मुझे कुछ कहना है" दैनिक भास्कर मधुरिमा २४/०८/२०१६

एक लोटा दूध

इश्क के रंग हज़ार madhurima bhaskar 08/02/2017

कोयला भई न राख फेमिना जनवरी २०१९

#METOO