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Showing posts from December, 2018

शुरू से शुरू करते हैं दैनिक भास्कर २७/१२/2018

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शुरू से शुरू करतें हैं- "अनु तुमने उससे बात की?" आज मम्मी ने फिर अनुश्री से पूछा. पिछले कुछ दिनों से ये नया सिलसिला शुरू हुआ था।  मम्मी उसे याद दिलाती कि अनुश्री को आकर्ष से पूछना चाहिए। बदले में अनु फटी फटी दृगों से मम्मी को तकती रह जाती,  फिर उसकी दृष्टि स्वत: ही शून्य में विलीन हो जाती और भावनाशून्य हो मृतप्राय बोझिल देह देर तक आत्मा पर हो रहें दंश को झेलती रहती।       आत्मा तो उसकी जाने कब से जख्मी लहुलुहान ही थी. पहले रो कर, आंसू बहा कर तपती मरुभूमि से मन को सिंचित कर फिर से हरा भरा करने का अथक प्रयास करती थी. पर अब जाने मन कैसा उजाड़ मरुस्थल हो चुका था कि अश्रु सैलाब एक कैक्टस उगाने में भी असफल हो रहे थें . कितना भारी लगा था उसे अपनी भावी सास के द्वारा अंजुरी में दिया गया अक्षत और शगुन. इतना वजन कि उसकी आत्मा उसी वक़्त दब गयी-कुचल गयी. कितनी चुभन थी उस महावर में जो उसके पैरों में रचाई गयी थी. जख्मी रक्त टपकते ह्रदय से उसने ससुराल में प्रवेश लिया था. क्या वो आलता रचे पैरों के छाप थे जो वह नयी दुल्हन के रूप में छम छम  कर बनाती जा रही थी,  ऐसा सबको लगा होगा पर उस

स्त्री स्वतंत्रता - चिंतन और चुनौतियां

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स्त्री स्वतंत्रता - चिंतन और चुनौतियां एक सच्चाई है ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’. फिर चाहे स्त्री हो या पुरुष जो पराश्रित है जो आर्थिक रूप से कमजोर है वह निर्बल है. आज जब शहरी आबादी में कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत बढ़ रहा है; तो स्त्री स्वतंत्रता की बात बेमानी महसूस होती है. प्रत्यक्ष दिखता है जब एक आत्मविश्वासी महिला पास से गुजरती है, उसकी आभा मंडल की चमक के समक्ष किसी पुरुष की आँखों को चुंधियाते हुए. पर ऐसा कोई जरुरी नहीं भी नहीं कि हर कामकाजी महिला अपने घर-परिवार-समाज में अपनी रुतबा या आत्मविश्वासी नसैनी का उपयोग कर ही पाती होगी. फिर भी कुछ बेड़ियाँ तो उसने तोड़ी ही, कुछ कदम खुद के बढ़ाये तो. मोटे तौर पर मुझे महसूस होता है कि शिक्षा और आत्मनिर्भरता ही वो हथियार है जो किसी को भी सबल और स्वतंत्र बनाने का माद्दा रखती है. ये ही वो तलवार होती है जो सदियों की सड़ी-गली मानसिकता को कतरा कतरा करने की क्षमता रखती है. जहाँ तक स्वतंत्रता की बात है वो तो हर स्त्री को खुद ही कमाना होगा, कोई दूसरा इस आजादी को परोस कर नहीं देने वाला आपको. यहाँ हर कोई तत्पर है अगले की पीठ पर चढ़ नई ऊँच

स्मृतियों के आगे कुछ

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कड़ी धूप थी जलते पांव बन गया वृक्ष हो गयी छांव   by RITA GUPTA     सुधाकर, निर्विकार भाव से अस्पताल के वातानुकूलित कमरे के बेड पर पड़े अपने पिता जी को देख रहा था। बिलकुल निष्क्रिय व् निष्प्राण सदृश्य शरीर मानों बस आत्मा   का बोझ ढो रहा हो। शरीर की सबसे मजबूत हड्डी, सबसे लम्बी हड्डी, मांस-मज्जा, चतुर-चालाक मस्तिष्क , लम्बे डग भरने वाले कदम , बात बात पर उठ जाने वाला हाथ ...सब शिथिल हो चुके थे पर ‘जुबान’ बिना हड्डी-पसली का ये अंग आज भी सक्रियता से अपनी भूमिका यथावत निभा रहा था। जीने की अदम्य इच्छा और मोह उन्हें शायद इस संसार से अब तक जोड़े रखा हुआ था। शायद ये गलतफहमी हो कि यदि साँसों ने चोला छोड़ा तो उनके पीठ पीछे यहाँ दुनिया में ख़ास कर सुधाकर की जिन्दगी में कुछ उनकी चाहत के विपरीत हो जायेगा , सुधाकर को बैठे-बैठाये कुछ ऐसा ही महसूस हो रहा था और विद्रूप सी एक स्मित मुस्कान चेहरे पर आ गयी. पास से गुजर रही नर्स उसे यूं अकेले मुस्कुराते देख हंस पड़ी। “ मुझे ठंडी लस्सी पीनी है वो भी भागीरथ हलवाई के यहाँ की , जा भाग कर ले आ .... ”, रोबीला आवाज जो आज भी अपनी जवां दौर की गर्मी रखता थ