स्त्री स्वतंत्रता - चिंतन और चुनौतियां

स्त्री स्वतंत्रता - चिंतन और चुनौतियां
एक सच्चाई है ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’. फिर चाहे स्त्री हो या पुरुष जो पराश्रित है जो आर्थिक रूप से कमजोर है वह निर्बल है. आज जब शहरी आबादी में कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत बढ़ रहा है; तो स्त्री स्वतंत्रता की बात बेमानी महसूस होती है. प्रत्यक्ष दिखता है जब एक आत्मविश्वासी महिला पास से गुजरती है, उसकी आभा मंडल की चमक के समक्ष किसी पुरुष की आँखों को चुंधियाते हुए.
पर ऐसा कोई जरुरी नहीं भी नहीं कि हर कामकाजी महिला अपने घर-परिवार-समाज में अपनी रुतबा या आत्मविश्वासी नसैनी का उपयोग कर ही पाती होगी. फिर भी कुछ बेड़ियाँ तो उसने तोड़ी ही, कुछ कदम खुद के बढ़ाये तो. मोटे तौर पर मुझे महसूस होता है कि शिक्षा और आत्मनिर्भरता ही वो हथियार है जो किसी को भी सबल और स्वतंत्र बनाने का माद्दा रखती है. ये ही वो तलवार होती है जो सदियों की सड़ी-गली मानसिकता को कतरा कतरा करने की क्षमता रखती है.
जहाँ तक स्वतंत्रता की बात है वो तो हर स्त्री को खुद ही कमाना होगा, कोई दूसरा इस आजादी को परोस कर नहीं देने वाला आपको. यहाँ हर कोई तत्पर है अगले की पीठ पर चढ़ नई ऊँचाइयों को छूने को तो फिर क्यूँ कर कोई शोषित होती जा रही स्त्री को मुक्ति उपहार देने की सोच रखेगा. कोई मजदूरनी हो या कोई महरी या कोई अपर क्लास की महिला; जिस दिन वह अपनी पीठ पर पड़ने वाली लाठी को अपने घुटनों से दो टुकडो में तोड़; दोनों हाथो में ले मारने वाले को उलट कर जवाब देना सीख जाएगी, उसकी गुलामी की बेड़ियाँ उसी दिन से टूटना शुरू हो जायेंगीं. जिस दिन वह अपनी ओर उठने वाली ऊँगली को उमेठना शुरू कर देगी उस दिन से वह हर क्षण आजाद होने लगेगी.
पुत्रों को अतिरिक्त स्नेह देना, लड़कियों को कमजोर समझना और औरतों को अबला मानना एक मानसिकता है, एक विकृत सोच है जो हावी है पूरे समाज में. एक बेहूदा सा रिवाज है जो मनोवैज्ञानिक प्रभाव तारी कर सबको अपने प्रभाव में ले लेता है कि एक औरत कमजोर है और उसे किसी पुरुष की आवश्यकता है. जबकि आत्मबल की ताकत ही सबसे बड़ी शक्ति है. ये बात कुछ ऐसी ही है कि पहली रात बिल्ली जिसने मारी जीत उसी की. जो हावी हो जाए पहले, वही ताकतवर हो जाता है. महिलाओं को विनम्रता, संतोषी, सहनशीलता और समझौतावादी अपनी छद्म छवि को तोडना होगा जिसके आड़ में उसका शोषण चलता रहता है और उसे भान तक नहीं होता है. क्यूँ ये गुण किसी पुरुष में नहीं हो सकतें हैं? जैसे एक हाथी को महावत एक पतली सी रस्सी से ही बांधे रखता है और जिसे वह तोड़ता नहीं है, क्यूंकि बचपन से ही उसे उस पतली रस्सी से बाँध विश्वास दिला दिया जाता है की वह उसे नहीं तोड़ सकता है.
विकास के क्रम में महिलायें पुरुषों से बेहतर हैं सो वे तो उनसे अधिक उन्नत हैं. सो डरने, दबने, झुकने और सहने वाली मानसिकता को जड़ से उखाड़ना ही सबसे बड़ी चुनौती है. इसके लिए किसी विशेष दिन की नहीं जरुरत है बल्कि हर दिन ही महिला दिवस है. सिर्फ एक दिन के भाषणों और सभाओं की टॉनिक से कुछ नहीं होने वाला बल्कि ये तो खुद के लिए भीख में विशेषाधिकार मांगने वाली बात है. जो स्त्री जहाँ है जो भी काम कर रही जिस भी उम्र की हो अपने अधिकारों के प्रति खुद सजग हो और अपने मौलिक अधिकार को मांग कर नहीं बल्कि जीत कर हासिल करें.
रीता गुप्ता


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