जाना था जापान पहुँच गए चीन
जाना था जापान
पहुँच गए चीन
मैं वैसे बहुत ही
इंटेलिजेंट हूँ, चाहे उन्नीस का पहाड़ा उल्टा सुन लो या
भौतिकी का कोई सूत्र पूछ लो, महादेवी की रचनाएं सुन लो या
फिर राजनीती पर बहस कर लो; पर दिमाग का एक हिस्सा ऐसा अड़ियल
घोडा है कि दो विलोम शब्दों का अंतर करने में अड़ जाता है नतीजन परिणाम भी उल्टा आ
जाता है. मसलन दायें-बाएं, ऊपर-नीचे, खींचो-धकेलो(पुल-पुश)
इत्यादि. जाने क्यूँ मेरे दिमाग का उसी क्षण ब्रेकडाउन हो जाता है और आर्डर देने
में हैंगआउट हो निष्क्रिय साबित हो जाता है और इस फेरे में कुछ का कुछ हो जाता है.
स्कूल में हिंदी या
अंग्रेजी परीक्षा में कभी भी विलोम शब्द बताओ प्रश्न में नंबर नहीं कटे फिर भी
वास्तविकता की धरातल पर ये ज्ञान अपना दम तोड़ देती है. आज
जब स्मृति कपाट खोलने बैठ रहीं हूँ तो बेवकूफ़ियों का पैंडोरा बॉक्स खुलने को
उतावला हो उठा है. जैसे ठीक उसी वक़्त गैस का गुब्बारा छोड़ देना जब माँ ने कहा था
पकड़ो, शोरूम के दरवाजे पर लिखे ‘पुल’
को पढ़ते ही इतनी जोर से ‘पुश’ यानी धकेल दिया कि वह क्रैक ही कर गया, सड़क पार करने
के दौरान पापा ने जैसे ही कहा रुको और मैं अगले ही क्षण दौड़ पड़ी.. एक घटना जरुर
सुनाना चाहूंगी, जब अनहोनी होते होते रह गयी.
भैया मुझे उन दिनों कार
चलाना सीखा रहें थे, उनके हर निर्देश को मैं दो पल रूक;
सोच कर ही अमल करती, सो निर्बाध ड्राइविंग
करने लगी थी. भैया के साथ साथ मुझे भी आत्मविश्वास आने लगा था. उस दिन बगल की सीट
पर बैठे भैया गुनगुना रहें थे और मैं कल से सड़क पर चलाने का सपना देखते उस बड़े से
मैदान में मंथर गति से कार हांक रही थी कि अचानक भैया ने कहा,
“देखो आगे बायीं गली में मुड़ जाना,
घर जल्दी पहुँच जायेंगे”
उनका ये कहना था और मैंने
कार झट दायीं ओर घुमा दिया और कार सीधे वहां मौजूद एक छोटे से मंदिर को जा भिड़ी.
डर से मेरी आँखें मुंद गयीं, अगले क्षण जब आँखों को खोला तो
उस नुक्कड़ के रखवाले हनुमानजी अपनी गदा मुझे दिखा रहें थे यानि उस छोटे से मंदिर
के एक हिस्से को मैंने ध्वस्त कर दिया था. भैया झट चैतन्य हो मुझसे चाभी छीना,
कार को ला कर घर के गैराज में पार्क कर दिया. हमने घर पर किसी से भी
जिक्र तक नहीं किया, शुक्र था कि गर्मी की दोपहरी थी और
मैदान-गली सब सुनसान थें. शाम को जब मैं लम्बी तान कर उठी तो दोपहर की अपनी
कारगुजारी भूल चुकी थी कि गली में हो रहे शोर ने ध्यान आकर्षित करना शुरू कर दिया.
उसी वक़्त पापा ऑफिस से लौटे और फिर शोर का कारण भी बताया,
“कुछ असामाजिक सांप्रदायिक तत्वों ने
नुक्कड़ के हनुमान मंदिर को अपवित्र कर तोड़ दिया है. मोहल्ले के सब लोग जुट रहे हैं
इसका बदला लेने के लिए. जाने क्या अनहोनी होने को है”
उन्होंने चिंतित होते हुए कहा.
मुझे काटो तो खून नहीं वाली स्तिथि हो गयी, भैया के चेहरे पर भी हवाइयां उड़ने
लगी. मेरी बेवकूफी ने तो काण्ड कर डाला था. भैया ने आगे बढ़ पापा को सब बताया पर ये
बात साफ़ छुपा गएँ कि कार में मैं भी थी. पापा उसी क्षण उनके कान उमेठते हुए उन्हें
बाहर ले गए. धीरे धीरे शोर कम हुआ, लोग अपने अपने घर चले गए.
पापा ने मंदिर का अच्छे से जीर्णोधार अगले ही दिन करवा दिया. जब भय कुछ कम हुआ तो
मैंने उन्हें अपनी बेवकूफी की कहानी सुनाई.
पर इस घटना ने मेरे
मष्तिष्क के हिले तारों को ठीक कर दिया और अपनी विलोमात्मक मजबूरियों को हैंडल
करना भी सीखा दिया. हाँ! मैं कार भी अब अच्छे से चलाना सीख गयी हूँ भले ही खोये
आत्मविश्वास को पाने में वर्षों लग गए.
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