जब आयें माता-पिता अपने घर” गृह शोभा published feb 1st 2017

“जब आयें माता-पिता अपने घर”
             मैं अपनी पड़ोसन कविता को कुछ दिनों से बहुत व्यस्त देख रही थी. बाज़ार के भी खूब चक्कर लगा रही थी. हर दिन शाम की वाक हम साथ ही लेते थें पर अपनी व्यस्तता के कारण वह आजकल नहीं आ रही थी. तो पार्क में खेलती उसकी बेटी काव्या को बुला कर मैंने पूछ ही लिया,
“काव्या बहुत दिनों से तुम्हारी मम्मी नहीं दिख रहीं हैं सब ठीक तो है?”
“आंटी, दादा-दादी आने वालें हैं मेरे घर, मम्मी उनकी आने की तैयारियों में ही लगी है”, काव्या ने बताया.
     पता नहीं क्यूँ ‘मेरे घर’ शब्द देर तक हथौड़े सा बजता रहा मन में. फिर दूसरे ही दिन कविता के पति कामेश को देखा कि वो अपने माता-पिता को शायद स्टेशन से ले कर घर आ रहा था. उसके बाद कोई दस दिनों तक कविता बिलकुल दिखी ही नहीं. दफ्तर से भी उसने छुट्टी ले रखी थी, शाम की वाक बंद थी ही उसकी. एक दिन मैं उसके सास-ससुर और उससे मिलने उसके घर जा पहुंची. देखा कि सास-ससुर ड्राइंग रूम में बैठे हुए हैं और कविता अस्त-व्यस्त सी रसोई और अन्य कमरों के बीच दौड़ लगा रही है. मैं उसके सास-ससुर से बात करने लगी.
“हमारे आने से कविता के कार्य बढ़ जातें हैं, मुझे बुरा लगता है”, उसके ससुरजी ने कहा.
“सच, मुझे भी कोई काम करने नहीं देती, बिलकुल मेहमान बना के रख दिया है”, उसकी सासुमाँ ने कहा.
उनलोगों के बात-चीत से लगा कि वे लोग जल्दी ही वापस चले जायेंगे, ताकि कविता अपने दफ्तर जा सके. आने लगी तो कविता मुझे गेट तक छोड़ने आई, तो मैंने पूछा,
“क्यूँ मेहमानों जैसा ट्रीट कर रही उनके साथ. जबकि वे दोनों अभी इतने भी बूढ़े या लाचार नहीं हैं.”
“नहीं बाबा मुझे अपने सास-ससुर से कुछ भी नहीं करना है. मेरी बहन ने अपनी सास को कुछ करने कह दिया था तो बात का बतंगड़ बन गया था, जब वे उसके साथ रहने आयीं थीं. मेरे पति की भी यही इच्छा रहती है कि मैं उन्हें हाथों हाथ रखूं पर ये अलग बात है कि मैं अब इन्तजार करने लगीं हूँ इनके लौटने का”, कविता ने माथे पर आई पसीने को पोंछते हुए कहा.
  मैं सोचने को मजबूर हो गयी कि क्यूँ बोझा बना दिया है कविता ने सास-ससुर के विजिट को. वे लोग अपने बेटे और बहू के साथ रहने आयें हैं अपना घर समझते हुए. परन्तु उनके साथ मेहमानों जैसा सलूक किया जा रहा है. मुझे याद आया उसकी बेटी काव्या का वह कथन, ‘मेरे घर’ दादा-दादी आ रहें हैं. जबकि वास्तव में घर तो उनका ही है यानी सबका है. भेद यहीं हो जा रहा मेरा घर-तेरा घर.
   वहीँ तस्वीर का एक और पहलू भी होता है. जब बहू सास-ससुर के आगमन को अपने कलह और कटुता से रिश्तों में कडुवाहट भर लेती है. मेरी मौसी को जोड़ों के दर्द का भयानक तकलीफ था, रोजमर्रा के काम करने में भी उन्हें दिक्कत आने लगी तो वे मौसाजी के साथ अपने बेटे के पास चली गयीं. परन्तु महीना पूरा होते होते वे वापस अपने घर के ताले को खोलते दिख गयीं. वहां बेटे के डुप्लेक्स घर में सीढ़ियों पर चढना उतरना और कष्टकर था और कमरा ऊपर और बैठने वाला कामोड  नीचे तले पर था. फिर वे उतना घरेलू कार्य करने में अक्षम थी जितनी की उनसे वहां उम्मीद की जा रही थी. अगर मेरे मौसेरा भाई-भाभी जरा सी संवेदनशीलता और समझदारी दिखातें तो शायद उन्हें अफ़सोस नहीं रहता कि उसकी माँ दुखी हो कर लौट गयी.
  विदेशों से उलट हमारे देश में माँ-बाप बच्चों को काफी बड़ी उम्र तक देखभाल करतें हैं. मध्यम वर्गीय पेरेंट्स के जीवन का मकसद ही होता है बच्चों को सेटेल करना. वही बच्चे जब सेटेल हो जाते  हैं उनका अपना घर-संसार  बन जाता है तो माता-पिता को बाहर वाला समझने लगतें हैं. बेटा-बहू  हो या बेटी-दामाद क्या वे सहजता से माता-पिता के आगमन को स्वीकार नहीं कर सकतें हैं? हो सकता है रहने का ढंग कुछ अलग हो पर क्या उन्हें अपनी दिनचर्या के हिसाब से इज्जत से साथ नहीं रखा जा सकता है? ये वही होतें हैं जो बिना बोले आपकी जरूरतों को समझ लिया करतें थे. 
        विकसित देशों में वृद्धों के लिए सरकार की तरफ से बहुत कुछ होता है कि वे अपने बच्चों के बगैर भी अच्छी जिन्दगी जी लेतें हैं. पर हमारे यहाँ सामाजिक ढांचा ही कुछ ऐसा होता है कि सब आपस में जुड़े ही रहतें हैं. संयुक्त - परिवारों की एक अलग सरंचना होती है, यहाँ हम वैसे माता-पिता का जिक्र कर रहें हैं जो साल-छ महीनों पर अपने बच्चों से मिलने जातें हैं. कुछ दिनों या महीने-दो महीने के लिए. काश कि बच्चें कुछ बातों का ध्यान सिर्फ रख लें तो आपस में मिलना-जुलना साथ रहना सुखद हो जायेगा.
१- मिलते-जुलते रहना चाहिए. वरना एक दूसरे के बिना जीने की आदत हो जाएगी. हमेशा मिलते रहने से दोनों ही एक दूसरे की आदतों से परिचित रहेंगे.
२- वे ‘आपके घर’ नहीं वरन ‘अपने घर’ आतें हैं. इस सोच का आभास उन्हें भी कराएँ और अपने बच्चों को भी.
3- उनके आने पर अपनी रूटीन को ना बदलें बल्कि उन्हें भी अपनी रूटीन के हिसाब से सेट कर लें. अन्यथा उनका आना और रहना जल्दी ही बोझ महसूस होने लगेगा.
४- उनके साथ मेहमानों जैसा बर्ताव बिलकुल ना करें. इससे अपनापन नहीं पनपेगा हमेशा एक परायेपन का आभास होगा.
५- आप जो खातें हैं जैसा खातें हैं वही उन्हें भी खिलाएं. हां यदि स्वाथ्य की समस्या हो आप को उसी हिसाब से कुछ बदलाव करना चाहिए.
६- यदि वे स्वेच्छा से कुछ करना चाहें तो अवश्य करने दे. जितना उनका सेहत आज्ञा दें उन्हें गृहस्थी में शामिल करें.
७- ना अति चुप भली ना ही अति बोलना. जब माता-पिता साथ हो तो उनके लिए कुछ समय अवश्य रखें क्यूंकि वे उसी के लिए आपके पास आयें हैं. साथ टहलने जाएँ या छुट्टी वाले दिन साथ कहीं घूमने जाएँ. अपनी रोजमर्रा की कुछ बातें शेयर करें कुछ उनकी बातों को सुने.
७- उनकी बदलती आदतों को गौर से देखें, कहीं किसी बीमारी के लक्षण तो नहीं. जरूरत लगे तो डॉक्टर को दिखाएँ. याद करें कि कैसे माँ आपके चेहरे को देख आपकी तकलीफों को भांप लेती थी.
८- अपने बच्चों को उनके नाना-नानी/दादा-दादी से जुड़ने दें. सौभाग्यशाली होतें हैं वो बच्चें जिन्हें बुजुर्गों के सायें मिलतें हैं. ये बहुत जरुरी है कि बच्चें बूढ़े होते ग्रैंड पेरेंट्स को जाने. उनके प्रति वे संवेदनशील बने. ये बात उन्हें एक बेहतर इन्सान बनने में मदद करेगी. कल को आपके बुढ़ापे को आपके बच्चे भी सहजता से ग्रहण कर लेंगे.
१०- कुछ बातों को नज़र अंदाज करें. जब दो बर्तन साथ होंगे तो टकराहट लाज़मी है. परन्तु छोटी बातों को छोटी समझ दफ़न कर देना ही समझदारी है.

   रिश्तें कठपुतलियों की तरह होती हैं जिनकी डोर हमारी आपसी  सोच, समझदारी , सामंजस्य और सहजता में होती है. खुश नसीब हैं आप कि आपके माता-पिता इतने सक्षम हैं कि उनका अपना भी एक संसार है, वे कुछ दिनों के लिए ही आपके पास आतें हैं. उनके आगमन हो सहजता से ग्राह्य करें और ऐसा सहज सौहाद्र माहौल दे कि जब वे लौटें तो आपको दिल से आशीष देते जाएँ. बेटा हो या बेटी माँ-बाप दोनों की ही जिम्मेदारी हैं और इस जिम्मेदारी से भागना मतलब खुद से भागना. जग से चाहे भाग ले कोई मन से भाग ना पाए. 





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