राजनीति की गरम गरम रोटियाँ और बच्चों की नरम नरम बोटियों का शोरबा 

राजनीति और सत्ता लोभ आज कोई नई बात नहीं है। आदि काल से हर सभ्यताओं, संस्कृतियों और देश-काल में इस की  मुखरता ने समाज को प्रभावित किया है। कोई भी तंत्र रहा हो लोकतंत्र या राजतन्त्र, तानाशाही  या और कोई और सत्ताधारियों के हर निर्णय को नहीं ही मान्यता मिलती है, विरोध का स्वर जायज़ है।
फिर लोकतंत्र में ये एक स्वस्थ परम्परा भी है जो सत्ताधारियों को निरंकुश होने से रोकती है। 

    आज फिर वही परस्पर विरोध स्वर है पर दुःख इस बात का है कि एक बार फिर राजनीति के धुरंधर 'बाल अभिमन्यु' का ही उपयोग कर रहें हैं, जब चुनावी जंग और सदन में चक्रव्यूह भेदने में असफल साबित हुए। 

मुझे बच्चों की भविष्य की चिंता है जिनको  सीढ़ी बना हर कोई ऊपर चढ़ रहा है चाहे वो नेता हो, प्रतिपक्ष हो,  कुटिल बाज़ारू मिडिया हो या फिर अभिनेता-अभिनेत्री। 
जब सीधे वार नहीं झेल पाया गया तो बच्चों को शिखंडी बना खड़ा कर दिया गया है। 

युवा जिन को इस वक़्त पढ़ाई लिखाई करनी चाहिए उन्हें मिडिया क्षणिक हीरोइज़्म का खून चटा रही है। वोट देने का अधिकार दे युवाओं से राजनैतिक दल शतरंज की गन्दी बिसात पर पैदल सैनिकों का रोल करवा रही है। 

कितनी छिछली और फिसलन भरी राह होती है ये राजनीति, एक बार फिसले बच्चें तो जाने जिंदगी में कैसे संभलेंगे?
बड़े घाग नरभक्षी हैं वो जो राजनीति की 'गरम गरम रोटियाँ युवाओं के नर्म नर्म बोटियों 'संग निगल रहें हैं। 
मैं भी एक माँ हूँ,
अपील करती हूँ सभी माँओं से कि आप अपने बच्चों को संभाले नहीं थामने दे उनकी सोच की वल्गा मौकापरस्तों को। 

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