आवारागर्दियों का सफ़र - साहित्य अकादमी की पत्रिका इद्रप्रस्थ भारती दिसम्बर अंक में प्रकाशित
आवारागर्दियों का सफ़र
गर्मियों की उमस भरी शाम थी, अनु को कोठरी में
दम घुटता सा महसूस हुआ तो वह चारपाई उठा छत पर बिछा उस पर लेट गया. चार दिन की
लम्बी उबाऊ थकावट वाली सफ़र पूरी कर आज उसे फुर्सत मिली थी. नस नस में सफ़र की थकन
भरी पड़ी थी, उतारे नहीं उतर रही मानों. हर बार लौटने के बाद उसे ऐसा ही महसूस
होता. सर के नीचे हथेलियों को जोड़ तकिया बना वह आसमान की तरफ अपलक देखने लगा,
पंछियों के झुण्ड दिन भर की आवारागर्दियों के बाद लौट रहें थें. अनु को उनके उड़न
में एक हड़बड़ी एक आतुरता महसूस हो रही थी कि तभी एक बड़ा सा झुण्ड बिलकुल उसके पास
से होता गुजर गया. उनकी चहचहाट उनकी चपलता उनकी बेसब्रियाँ उनके घर लौटने की ख़ुशी
को स्पष्ट रूपेण परिलक्षित कर रहीं थीं. ‘घर’, इन सबका कोई न कोई घर कोई ठिकाना
होगा ही, वहां कोई जरुर होगा जो इनका वहां इन्तजार भी कर रहा होगा. जब ये अपनी
चोंच में दबाएँ दानों को अपने घरौंदे में धरते होंगे तो कैसी ख़ुशी की लहर दौड़ती
होगी इनके अपनों के बीच. ‘परिवार’ इन पंछियों का भी होता होगा क्या? होता ही होगा,
दुनिया में हर एक का एक परिवार अवश्य ही होता है, सिवाय उसके और अनु के आँखों से
टप से कुछ खारा पानी आज़ाद हो गएँ उसी क्षण. सीने में हूक सी उठ गयी और वह उठ कर
बैठ गया और अपने कुरते की छोर को खारे पानी से भिंगोने लगा. कुछ देर में जब नजरों
का धुंधलापन कम हुआ तो देखा कि सूरज डूब चुका था और उसके दिल से निकल अँधियारा
पूरे जग को अपने आगोश में लेने को आतुर हो चुका था.
तभी उसने देखा कि मकान - मालकिन छत पर सूखने
डाले गए गेंहू को उठाने का उपक्रम करती हुई उसकी तरफ ही ताक रही है. वह कुछ घबरा
सा गया और अचकचा के उठ खड़ा हुआ. उसे मकान मालिकों और मालकिनों से बेहद भय लगता था.
पता नहीं कब कोठरी खाली करने का फरमान सुना दें. बहुत मुश्किलों से ये ठिकाना तय
हो पाया था, अधिकतर तो साफ़ मना ही कर देतें हैं कि वे कुवांरे लड़कों को घर नहीं
देंगे.
“कैसे हो, कोई तकलीफ तो
नहीं तुम्हे?”, उन्होंने पूछा.
“जी बिलकुल ठीक हूँ. कल रात
ही उस्ताद के साथ ट्रक ले लौटा हूँ सो बहुत थकान महसूस हो रही बस. इस बार लगातार
चार दिन हम सडकों पर ही रह गएँ”, अनु ने उन्हें कहा.
बातें तो औपचारिक तौर पर समाप्त हो चुकी थी,
अनु अब उम्मीद कर रहा था कि वे अब चले जाएँगी. पर उनका एक टक देखना अनु को विचलित
करने लगा.
“क्या मैं गेहूं का थैला
नीचे पहुंचा दूँ?”, अब ऐसा कहने के सिवा कोई और चारा भी तो नहीं बचा था.
“अरे नहीं तुम आराम करो,
मनमीत ले जायेगा. मनु ओ मनु....”, वे मनमीत को आवाज देने लगी, एक क्षण को अनु को
लगा कि वे उसे ही पुकार रहीं हैं पर अगले ही क्षण सामने मनमीत नाम के लड़के को देख
उसे समझ आ गयी कि मनु उसी का नाम है.
कोई आठ दिन ही हुए होंगे उसे इस घर में
किरायेदार के रूप में आये. नया घर नयी शहर. ठीक दस रोज पहले रांची जाने के क्रम
में रामगढ के पास एक लाइन होटल में उस्तादजी से मुलाकात हुई थी. पता चला कि उस्ताद
जी को भी एक खलासी की जरुरत है, अनु ने अपने पुराने उस्ताद जी को कहा,
“उस्ताद जी बहुत दिन
रह लिया आपके साथ, अब सोचता हूँ उस्ताद बदल लूँ, इसी बहाने एक नए शहर की सैर हो
जाएगी”
“चल जा, धर ले
उन्हें. काम ठीक से करना. वैसे भी मैं कुछ महीने ट्रक नहीं चलाने वाला अब धान
काटने के बाद ही गड्डी निकलेगी. तब तक तू मन बदल ले, घूम ले नए शहर. जब मन हो वापस
आ जाना मेरे पास”, पुराने ड्राईवर ने इतने प्यार से कहा कि साल भर उनके साथ बिताये
पल एक क्षण में आँखों के सामने से गुजर गये.
नए उस्तादजी रांची से थे, वैसे तो ट्रक
ड्राईवरों का कोई ठिकाना नहीं होता, आधी जिन्दगी तो सड़कों पर ही कटती है. हर दिन
एक नए शहर में एक नए कस्बे के ढाबे पर रात गुजरती. पर इनका परिवार रांची ही रहता
था सो कुछ दिनों की लम्बी यात्रा के बाद ये दो-चार दिन अपने घर पर जरुर टिकते. नए
उस्ताद जी ने कहा भी कि चल साथ ही रहना, जब अगली ट्रिप बनेगी तो साथ निकल पड़ेंगे.
पर अनु ने देखा कि उनका घर रेलवे स्टेशन से काफी दूर है.
‘रेलवे स्टेशन’ इसका
होना बेहद महत्वपूर्ण था अनु के लिए. यही तो एक कड़ी थी जो उसको जोडती थी उसे उसकी
यादों से जिन्दगी की बीती गुजरी बातों से. जब से होश संभाला है न जाने
बिहार-झारखण्ड सहित आस-पास के राज्यों के कितने ही रेलवे स्टेशनों की ख़ाक छान चुका
था. कल रात यहाँ पहुंचा, सुबह उठते ही आस-पास का नज़ारा लेने के साथ फिर वही भटकन
का सिलसिला शुरू कर दिया था उसने. कोई चार-पांच घंटे खूब भटका अंत में जब थकावट ने
हौसलों की क़दमों में बेड़ियाँ डाल दिया तो कमरे में आ कर ढेर हो गया. सोता रहा शाम
तक.
अब भूख से अंतड़ियाँ मरोड़ रही थी. भोर का खाया
पावरोटी और चाय जाने अंतड़ी के किस सुरंग में गायब हो चुके थें. कमरे में जा उसने
अपना कुरता पहना, जेब में अभी पैसे हैं. कुछ पुराने उस्ताद का दिया और कुछ कल लौट
कर नए उस्ताद द्वारा दिया हुआ. रसोई के कुछ सामान जुट ही जायेगें , सोचते सीढियां
उतरने लगा. सीढियां मकान मालिकन के घर से होती हुई ही नीचे जाती थी. वह सर झुकाए
उतरता जा रहा था कि मकान मालकिन की आवाज ने चौंका दिया,
“अभी सौदा लेने जा
रहे हो? पकाओगे कब और खाओगे कब, चलो बैठो मैं खिला देती हूँ. सब्जी बन ही गयी है
बस रोटियाँ सेंकनी है”.
अनु संकोच से भर
उठा, कहाँ ये कहाँ वो. पता नहीं उन्होंने उसे घर में रहने की इजाजत कैसे दे दी,
यही अभी तक पहेली थी. पर ना नहीं कह सका, वाकई भूख के आगे सब निरर्थक है. सर झुका
वह खाने बैठ गया, पहले से बैठे मनमीत को शायद उसके साथ खाना या उसका वहां बैठना
पसंद नहीं आया. अनु के बैठते वह वहां से चला गया, अनु किंकर्त्तव्यविमूढ़ सा बेबस
बैठा रहा और गर्म रोटियों को सब्जी में डूबो खाने लगा. उस पल और स्वाद की अनुभूति
स्वर्गिक थी. पर मन ही मन सोच लिया कि अब नहीं ऐसे खाने बैठ जायेगा, मनमीत का उठ
कर चले जाना अब उसे साल रहा था, जाने कितनी रोटियां उदरस्त करने के बाद अब ये
ख्याल जोर पकड़ने लगा था. उसने और रोटियों के लिए मना किया तो, मकान मालकिन बोल
पड़ी,
“अरे खाओ इस उम्र
में नहीं खाओगे तो कब खाओगे. मनमीत तो तुमसे छोटा ही होगा पर रोटियाँ तुमसे ज्यादा
खाता है”.
मनमीत का जिक्र आते
अब स्वाद कसैला लगने लगा. हाथ धोने को उठने लगा तो देखा मालकिन हाथ में रोटी लिए
उसे ही ताक रही है. बहुत ही ज्यादा स्नेहिल लगी वो पास से, चेहरे से मानों स्नेह
टपक रहा हो. कलेजे में एक हूक सी उठा दिया इस भाव ने. उसने अपने मटमैले थैले को
उठाया और सीढियां उतरने लगा. पीछे से आवाज आई,
“न हो तो तुम यहीं
खा लिया करों, क्या अकेले की रसोई जोड़ोगे?”
“जी, मैं बना लूँगा
आप परेशान न हो”, अनु बिना धन्यवाद बोले उतर गया.
उस दिन कमरे में लौटते वक़्त उसका थैला कुछ
जरुर भारी था और खुद उसके कदम लड़खड़ा रहें थें. सीढ़ियों पर चढ़ते वक़्त, मनमीत से
सामना हो गया....
“मैं कह रहा था कि
ट्रक खलासी को कमरा मत दो, पता नहीं क्या सोच कर तुमने इसे रहने की इजाजत दे
दिया...”,
देर तक ये आवाज
गूंजती रही, गूंजती रही कलेजा छलनी करती रही. बीस रूपये के अद्धपौये का नशा हिरन
हो चुका था. पेट तो भरा हुआ था आज मन भी भर आया था. पर मन का क्या वह तो बस ऐसे
भरा रहता है हमेशा, जरा सा दबाव पड़ा नहीं कि बस बहने लगे आँखों से. उस दिन भी देर
तक आंसू बहते रहें, दामन भींगोते रहे. एक धुंधला सा चेहरा जेहन में फिर अक्स बनाने
लगा, मूंछों वाला वह चेहरा...... जिनकी ऊँगली पकड़ वह कूदता फांदता चल रहा होता है.
जी कर रहा था कि जैसे साबुन पानी मार मार ट्रक के शीशे को वह चमकाता है वैसे ही
अपनी यादों को साफ़ कर ले इस धुंधलेपन को दूर कर ले. लाख कोशिशों के बावजूद पिताजी
का चेहरा उसे स्पष्ट नहीं दिखता. जाने कितने वर्षों के धूल जमें हैं मानस पर. पिताजी
की लम्बाई दिखती, शायद अब वह उतना ही लम्बा होगा. मूंछे भी दिखती और दिखता वो
अच्छे कपडे जो उन दोनो ने पहन रखें है. याद आता उसको रेलवे स्टेशन के पास अपना वह घर, जहां जब कोई
ट्रेन गुजरती उसकी सीटी सुनाई पड़ती. याद आता वह जिद्द कि कभी मैं भी ट्रेन में बैठूँगा.
फिर याद आ जाता पिताजी से हाथ छुड़ा स्टेशन में भाग जाना एक दिन....
मुड कर देखना पिताजी को दरवाजे पर काले कोट
वाले का रोकना....उसका लुका-छिपी खेलते एक ट्रेन में चढ़ जाना. उसके चढ़ते ही ट्रेन
का चल पड़ना, उसका खिड़की से देखना कि पिताजी ट्रेन के विपरीत दिशा में भीड़ में उसको
खोज रहें हैं......उसका वह जोर जोर से हंसना और फिर यादों का सिरा वहीँ टूट जाना.
पसीने पसीने हो उठ कर बैठ गया. कमरे के दीवार पर टंगे शीशे पर उसने अपने अक्स को
देखा कि तभी पास के स्टेशन से गुजरती ट्रेन की सीटी सुनाई देने लगी. कितने दिनों
से शेव नहीं किया था उसने. अचानक विचार आया कि यदि वह मूंछे बढ़ा ले तो शायद पिताजी
जैसा दिखने लगे. ये सोच अच्छी लगी और अगले ही क्षण वह गहरी नींद की आगोश में था.
अगली
सुबह जल्दी जाग वह फिर अपनी मकसद पूरी करने की हसरत में निकल पड़ा. स्टेशन के पास
वह दो कमरों का मकान, जिसकी दीवालें बाहर से नीले रंग की थी और अंदर से पीली पर दरवाजा
सफ़ेद. उस छोटे से प्लाट के बीचो बीच बना वह घर जो घिरा हुआ था आम, अमरुद और केले
के पेड़ों से, जिसे हर सुबह पिताजी पिछवाड़े के कूएँ से पानी खींच तर किया करतें
थें. धुंधली सी याद आज भी अब तक सांसे ले रही थी एक आकृति की जो साड़ी पहन, सर पर
पल्लू रख उसी वक़्त कुँए के बाजू में तुलसी चौरे पर दीपक जला परिक्रमा करती थी.
उसके गीले बालों से टपकती बूंदे .... जिन्हें वह अपनी हथेलियों में समेटता रहता
था. हथेलियों में वह गीलापन आज भी महसूस होता है पर दीखता वह उसकी आँखों से टप-टप
गिर कर.
“माँ” जो उसकी माँ होगी, क्यूँ नहीं उसका
चेहरा अब याद है. उसे लगता जिस प्रकार आँखों को बार बार मलने से कभी दृष्टि स्वच्छ
हो स्पष्ट दिखने लगती है. वह कैसे अपनी स्मृतियों को मलें कि यादाश्त स्पष्ट हो
उठे. रांची स्टेशन से दो-तीन किलोमीटर की परिधि में वह दिन चढ़े घूमता रहा. पर हर
बार की ही तरह उसे वह नीली दीवालों सफ़ेद दरवाजे का दो कमरों का घर नहीं दिखा. अब
शायद रंग बदल गएँ हों पर पिछवाड़े में जिसके कुआं हो और आम अमरुद के पेड़ हो वह भी
दृष्टिगत नहीं हुआ.
स्टेशन के पास ही उसने चाय और ब्रेड का नाश्ता
किया और थोडा चावल और भाजी खरीद घर की ओर चल पड़ा.
“अब से नहीं खायेगा
वह मकान मालकिन का खाना, क्या पता कल को किराये में न जोड़ दे”, उसने मन में सोचा.
फिर उस मनु की
निगाहों का वह सामना नहीं करना चाहता था. पेट भरा होने के बावजूद कल रात का वह
स्वाद होठों पर मानों फिर आ बसा और उसने धीरे से जीभ फिरा दी.
“जहाँ तक होगा वह
उनलोगों से बचता रहेगा. मकान मालिकों को भाई दूर से सलाम”, सोचते हुए उसने जैसे ही
सीढ़ी पर चढ़ना शुरू किया कि मनु की अम्मा ने फिर टोक दिया, सलवार के पायेंचे चढ़ाये
कुर्सी पर वहीँ मानों डेरा डाल उसी का इन्तजार कर रही थी.
“कहाँ से आ रहे हो?”
“जी जी .. स्टेशन की
तरफ गया था”, अनु ने हकलाते हुए कहा. अब बचना मुश्किल था.
“कौन से स्टेशन?
रांची या हटिया?”, मकान मालकिन ने अपने दुपट्टे को कंधे पर सँभालते हुए फिर गोली
दागा.
“अच्छा क्या यहाँ दो
स्टेशन हैं?”, अनु की आशाएं फिर लहलहाने लगीं. अब अगली फुरसत में उधर घूम आएगा
सोचते हुए उसने कहा,
“आंटी जी कल फिर
ट्रक के साथ बाहर जा रहा हूँ, पता नहीं कितने दिनों के बाद लौटूं”
.....मनु की अम्मा
ने फिर कुछ कहा था पर उसने ध्यान नहीं दिया.
“अब इतना सुनने लगूं
इनकी तो बस हो गया मेरा काम, चलो बढ़िया हैं कुछ दिन छुटकारा मिलेगा इसकी टोकाटोकी
से. कल से फिर नई जगह- नए लोग और एक मौका अपने बचपन को खोजने का”.
अगले दिन वह अलसुबह ही ट्रक के साथ निकल पड़ा
था. कोशिश थी कि दिनों दिन जितनी दूरी तय कर ली जाये फिर नो एंट्री का समय कहीं
शुरू न हो जाए फिर तो शहर में घुसना ही मुश्किल हो जायेगा और माल ले कर शहर की
मुहानी पर ही इन्तजार करना पड़ेगा.
कोयले से लदे ट्रक के साथ जब वह झारखण्ड से
बाहर निकला तो रास्ते में नए ड्राईवर जी को अपनी दास्ताँ सुनाता रहा. कैसे कोई
दस-ग्यारह वर्ष पहलें वह एक चलती ट्रेन में उत्सुकता वश बैठ गया था और अपने
माता-पिता से महरूम हो गया. वह उन्हें बता रहा था कि कैसे वह पिताजी का हाथ छुड़ा
ट्रेन में छुप गया था और ट्रेन चल पड़ी थी. उसके आंसू छलछला गए कि कुछ ही देर छुपने
के बाद जब उसने खिड़की से दोबारा देखा तो नज़ारा बदल चुका था. स्टेशन की भीड़ भाड़ और
काले कोट वाले से बात करते पिताजी की जगह अब पीछे छूटते नदी-नाले और खेत दिख रहे
थें.
उस्ताद जी ने देखा कि उसके बगल में बैठा अनु अब
चुप्पी का चोला ओढ़ विचारमग्न हो गया था. उन्होंने एक ढाबे में गड्डी रोकी,
“चल अनु चाय पी
जाए....”, शायद अनु पर जमी उदासी की बर्फ तोड़ने की ही कोशिश थी.
“ओये बन्दे, बता फिर
क्या हुआ तुझे याद नहीं?”
एक गहरी लम्बी
चुप्पी के बाद अनु ने कहा,
“फिर जब होश संभाला
तो खुद को एक काले कोट यानी टीसी के घर पर घरेलु काम करते ही पाया. जाने कितने बरस
उसके बर्तन-कपड़े धोया याद नहीं. किसी स्टेशन के पास ही रहता था अकेले, ड्यूटी के
बाद अपने क्वार्टर में ही पड़ा रहता. पता नहीं कितने बरस रहा वहां, पर जो भी हो
उससे कोई रिश्ता नहीं जोड़ पाया. न ही नफरत का न ही स्नेह का”
अब ट्रक फिर चल पड़ी
थी और साथ ही अनु के यादों का सफ़र भी.
“हर रात माँ सपने
में आती कभी लोरी सुनाती तो कभी बाल सहलाती. दिन भर पिताजी मेरी उँगलियों को थामे
रहते. वास्तव में मैं कभी दूर हुआ ही नहीं उनसे मानसिक रूप से. शायद तभी उस
पियक्कड़ टीसी के घर में मैं बरसों रह पाया. पर खुद को कभी जोड़ नहीं पाया किसी से.
उस्ताद जी! जानतें हैं मेरा कोई दोस्त भी नहीं है जिसे अपना कह सकू.”
इस बार उस्ताद जी की
आँखे छलछलाने की बारी थी. ट्रक अब एन एच २ पर दौड़ रही थी.
“तुझे ड्राइविंग आती
है?”, बात बदलने की गरज से उन्होंने पूछा.
“हाँ सीख तो गया हूँ
पर लाइसेंस नहीं है.”
“अबे, पहले अठारह का
तो हो जा. कित्ती उम्र है तेरी ?”
“पता नहीं, दिखने
में मैं कितना लगता हूँ?”, अनु अब सामान्य हो चला था.
“मुझे लगता है तू
सत्रह-अठारह का होगा ही. अब ये क्या हाल बना रखा है, बेतरतीब सी दाढ़ी और मूंछ.”
“सोचता हूँ मूंछे
बढ़ा लूँ, तब शायद अपने पिताजी जैसा दिखने लगूं.”, अनु वापस अपनी यादों की पटरी पर
चढ़ने लगा था.
उस्ताद जी ने जोरों
से एक भोजपुरी गाना चला दिया, ट्रक अब हजारीबाग पार कर रही थी. कोयले से भरी होने
के चलते स्पीड अधिक नहीं होने पा रही थी, पहाड़ी रास्तों और चढ़ाई पर तो मानों उसकी
साँसें ही फूल जाती. एक चेक पोस्ट नाका-बंदी पार करने के बाद उस्ताद जी ने उसे
स्टीयरिंग थमा दिया और खुद बगल में बैठ झपकी लेने लगे.
“ओये तू मत सोइयो,
सड़क पर ध्यान रख...”, बोलते हुए वे उनींदे से वहीँ पसर गएँ.
अब अनु ने भी अपनी
यादों को ब्रेक लगा दिया और पूरी तन्मयता से सड़क पर ध्यान देने लगा. कोई दस दिनों
के बाद पंजाब में कोयला अनलोड कर जब वे लोग लौट रहें थें तो ट्रक में गेंहूँ भरा
हुआ था. उस्ताद जी भी पूरे दिलदार आदमी थे, खूब खिलाया-पिलाया था उन्होंने इस
दौरान और सबसे अच्छी बात कि उन्होंने उसे गाहे-बेगाहे स्टीयरिंग थामने का भी खूब
मौका दिया था. स्टीयरिंग और ब्रेक हाथ में आतें तो सबसे अच्छी बात होती कि उसका
पूरा ध्यान सड़क पर ही होता और यादें उसकी मानस तक अपनी पैठ बनाने में असफल रहतीं.
कई घंटों की ड्राइविंग के बाद, वे लोग हजारीबाग
पहुंचे ही थे कि ट्रक में कुछ बड़ी खराबी आ गयी. उस्ताद जी की खीज देखने लायक थी,
अब जब तीन-चार घंटों में घर पहुँच जाते रांची तो अब ये मुसीबत. ट्रक गैराज में लगा
दी गयी और वे लोग अपनी बारी का इन्तेजार करने लगे. उनके आगे पहले से ही बहुत सारी
ट्रक इन्तजार में बेसब्र हो रहीं थी.
“उस्ताद जी चार-पांच
घंटों के पहले अपना नंबर नहीं आने वाला”, अनु ने सूचना दिया.
“तो अब तो समय काटनी
ही है.....”, खीजते हुए उस्ताद जी ने कहा.
“बीवी ने खाना भी
तैयार कर लिया होगा जब उसने सुना होगा कि मैं हजारीबाग पहुँचने वाला हूँ. अब तो
लगता है रात तक भी घर पहुँच जाएँ तो गनीमत है”.
“घर”, शब्द सुनते ही
यादों का सुसुप्त कीड़ा कुलबुलाने लगा.
“उस्ताद जी मैं थोड़ी
देर में आता हूँ, एक चक्कर यहाँ के स्टेशन का भी लगा लूँ, कहीं कोई सुराग मिले उस
नीली दीवारों वाले घर का जिसका दरवाजा सफ़ेद था”, अनु ये कह झट से निकल पड़ा.
“हाय! रब्बा मिला दे
इसको इसके घर से. इसकी बेचैनी देखी नहीं जाती...”, उस्ताद जी के दिल से यही दुआ
निकली.
“ओये हजामत तो
बनवाते जा पुत्तर. कहीं वे लोग मिल गए तो इस वनमानुष में अपना बेटा कहाँ ढूंढ पाएंगे”
उनकी ये बात उसे जम
गयी और वहीँ पास बैठे हजाम से वह हजामत बनवाने लगा. पर जैसे ही उस्तरा उसकी मूंछों
तक पहुंचा उसने रोक दिया. थोड़ी ट्रिम करवा वह स्टेशन एरिया की तरफ भागा.
घंटों बाद जब ट्रक
रामगढ़ घाटी पार कर रही थी, उस्ताद जी ने देखा कि अनु शीशे से सर टिकाये किसी गहरी सोच
में डूबा हुआ था. साफ़ जाहिर था कि हमेशा की ही तरह हजारीबाग स्टेशन के पास भी वैसा
कोई घर नहीं दिखा था जिसके बगीचे में आम अमरुद के पेड़ हों और दीवालें.......
आधी रात के बाद ट्रक रांची पहुंचा था, अनलोड करते करते पौ
फटने का वक़्त हो चला था. बाकी रात अनु ट्रक में ही सोता रहा. जब नींद खुली तो अपने
ठिकाने की ओर चल पड़ा, उसे याद आया कि मकानमालकिन ने बताया था कि रांची में दो
रेलवे स्टेशन हैं, एक की तो पड़ताल वह रहते हुए कर ही रहा है. दूसरे की अब करनी
होगी जिसका नाम हटिया स्टेशन है. एक स्मित मुस्कान चेहरे पर फैल गयी एक और मौका के
नाम पर. कल हजारीबाग में मिली नैराश्य के बाद एक राहत सी महसूस हुई.
दरवाजा अभी बंद ही था, कुछ देर के बाद
मकानमालकिन अपनी घूरती निगाहों के साथ फिर उपस्तिथ थी. नमस्ते बोल वह सीढियां चढ़ने
लगा, कि ‘धम्म’ सी आवाज पर वह चौंक कर पीछे मुड़ा, देखा कि वह सभ्य महिला अपने सर
को पकड़े नीचे की तरफ गिरने को है शायद उनका सर दीवाल से टकराया था. अनु ने दौड़ कर
उनको गोद में थाम लिया. मुंदती आँखों से देखते हुए उन्होंने फिर कुछ बुदबुदाया था.
“मनु-मनु....”
चिल्लाते हुए उसने मकानमालकिन को उनके घर में
एक कमरे में ले जा कर लिटा कर मुड़ने को ही था कि उन्होंने उसके हाथ को पकड़ लिया.
तब तक मनु भी आँखें मलता आ गया था.
“बेटा, तू मेरा ही
बेटा है.....मैंने तो पहले ही दिन पहचान लिया था”, वे बोलती जा रहीं थीं. मनु भी
कुछ विस्फारित हो उसे देख रहा था, फिर उन्होने दीवाल पर टंगे एक आदम कद फोटो की
तरफ ऊँगली कर दिया, जिस पर तुलसी माला चढ़ा हुआ था. अनु को मानों करंट लगा, लगा
उसने आईना देख लिया. यादों के धुन्धलेपन पर सचमुच साबुन का पानी पड़ ही गया. ये .....
ये... तो पिताजी हैं, बिलकुल अच्छे से याद आ गया उसे.
मनु दौड़ कर एल्बम ले आया. हर पीछे पलटते पन्ने
के साथ उसके अतीत पर बंद पड़ा ताला भी खुलते जा रहा था.
“मेरा अनुगीत मेरा
अनुगीत”, बोल अम्मा उसे बेतहाशा चूमे जा रही थी.
“अम्मा तूने साड़ी
पहनना कब छोड़ दिया?
अम्मा तूने आम अमरुद
के पेड़ कटवा वहां कमरे क्यूँ बनवा दिया?
अम्मा तू बुड्डी
क्यूँ दिखने लगी?
“मैं कैसे पहचानता,
कैसे खोजता.....
“फिर ये कब आ
टपका?”,
अनु ने मनमीत के सर
पर चपत लगाते हुए कहा.
“तेरे जाने के कुछ ही महीनों के बाद.
तुम्हारे पिताजी तुम्हे खो देने का सदमा परन्तु बर्दास्त नहीं कर पायें और एक
ग्लानि भाव के साथ तभी सिधार गएँ जब ये जन्मा भी नहीं था. परन्तु मुझे तो जीना था,
तेरे लिए इसके लिए......”, अम्मा की आँखों से अविरल रसधार हो रही थी.
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