स्मृतियों के आगे कुछ
स्मृतियों के आगे कुछ
सुधाकर,
निर्विकार भाव से अस्पताल के वातानुकूलित कमरे के बेड पर पड़े अपने पिता जी को देख
रहा था। बिलकुल निष्क्रिय व् निष्प्राण सदृश्य शरीर मानों बस आत्मा का बोझ ढो रहा हो। शरीर की सबसे मजबूत हड्डी, सबसे लम्बी हड्डी,
मांस-मज्जा, चतुर-चालाक मस्तिष्क, लम्बे डग भरने वाले कदम, बात बात पर उठ जाने वाला हाथ ...सब शिथिल हो चुके थे पर ‘जुबान’ बिना
हड्डी-पसली का ये अंग आज भी सक्रियता से अपनी भूमिका यथावत निभा रहा था। जीने की
अदम्य इच्छा और मोह उन्हें शायद इस संसार से अब तक जोड़े रखा हुआ था। शायद ये
गलतफहमी हो कि यदि साँसों ने चोला छोड़ा तो उनके पीठ पीछे यहाँ दुनिया में ख़ास कर
सुधाकर की जिन्दगी में कुछ उनकी चाहत के विपरीत हो जायेगा,
सुधाकर को बैठे-बैठाये कुछ ऐसा ही महसूस हो रहा था और विद्रूप सी एक स्मित मुस्कान
चेहरे पर आ गयी.
पास से गुजर रही नर्स उसे यूं
अकेले मुस्कुराते देख हंस पड़ी।
“मुझे ठंडी लस्सी पीनी है
वो भी भागीरथ हलवाई के यहाँ की, जा भाग कर ले आ ....”, रोबीला आवाज जो आज भी अपनी जवां दौर की गर्मी रखता था, गूँज उठा।
“लगता है मेरी मुस्कराहट
को देख लिया इन्होने, भला कैसे इन्हें बर्दास्त होगी, चाहे वो मैंने मन में ही किया होगा", सुधाकर
ने सोचा पर कहा,
“जी पिता जी कल लेते आऊंगा
अभी शाम को लस्सी नुकसान करेगी“.
“पिताजी की जीभ ने मानों थकना नहीं जाना है, न
खाने में न बोलने में। जीवन भर हर दिन खाने वाले च्यवनप्राश की पूरी ताकत जिह्वा
पर अपनी पूरी असर दिखा, उसे युवा बनाये रखा है”
उसने सोचा।
"रजनी क्यूँ नहीं आई
आज मुझे देखने? तुमने उसे बहुत छूट दे रखी रखी है। मैं बीमार
हूँ और मैडम जी को बैंक जाना ज्यादा जरूरी है".
"पापा, आप यूं ही बेचारी को कोस रहें हैं, मैंने बताया था
न कि आज शुभ्र आ रहा है उसे ही रिसीव करने एअरपोर्ट गयी है",
उसका बेटा शुभ्र,
पूरे दो वर्षों के बाद विदेश से वापस आ रहा था. उसे भी बड़ी उत्कंठा थी एअरपोर्ट जा
उसे गले लगा अपनी छाती से सटा लेने की, पर पिताजी अकेलापन
महसूस करते सो शाम को दफ्तर से इधर ही आ गया था। नर्स आ कर कोई दवा और इंजेक्शन
देने की तैयारी करने लगी। वह कमरे से बाहर निकल गया। श्वेत कोट में डॉक्टर्स इधर
उधर राउंड लगाते दिख रहें थें।
आज
फिर एक आह सी निकल गयी दिल से। बोर्ड के रिजल्ट के पहले ही उसने ग्यारहवीं कक्षा
की जीव विज्ञान और वनस्पति विज्ञान की आधी पुस्तक को पढ़ लिया था। पर उसे क्या पता
था कि उसके कपडे; जूते; दोस्त; खान-पान सब तय करने वाले पिताजी उसके लिए
इंजीनियरिंग का सपना पाल रखे हैं.
सुधाकर बहुत रोया था; हाथ-पाँव भी जोड़ा कि
उसे उसके प्रिय विषय को ही पढ़ने दिया जाए पर पिताजी के आगे एक ना चली थी. चूँकि
उसके पिताजी अपने वक़्त में इंजीनियरिंग नहीं कर पाए थे सो सुधाकर का ये फ़र्ज़ बनता
था कि वह उनके अधूरे सपनों को पूर्ण करें, फिर तो वह रोबोट बन
पिताजी की अधूरी कामनाओं की अर्थी ढोने ही लगा। आज भी किसी डॉक्टर को देखता तो
उसके दिल में एक हूक सी जाग जाती है.
उसे लगने लगा कि अभी लस्सी मांग रहें थें, कहीं से गर्म चाय लाऊं और इन्हें जबरदस्ती पिला दूँ। फिर पूछूँ कि कैसा
लगता है जब मन के विरूद्ध होता है। कमरें में झाँका, नर्स
अभी कुछ कर ही रही थी। पिता की लाचारी देख मन गीला-गीला हो द्रवित हो उठा सुधाकर
का ....
... छोड़ो जब तब नहीं कह पाया तो अब क्या. ना इनकी डराने; दबाने; हावी
रहने की प्रवित्ति गयी न मेरी इनसे डरने; दबने; सहने की। अपने मित्रों के पिताओं
को देखता तो सोचता काश! कभी मैं भी मित्रवत इनसे दिल की बात कर पाता। उसे हमेशा यह
महसूस होता रहा कि दब्बूपन का ये अनुवांशिक गुण उसे माँ से ही प्राप्त हुए हैं। घर
की शान्ति बनी रहे के नाम पर वह अपनी माँ को सदैव दबते -चुप रहते देखा था। सुधाकर
की जिन्दगी तो उनकी मिल्कियत थी, जिन्दगी में जब भी सुधाकर का अपने
पिता के साथ विरोध हुआ, माँ अटल हो पति का ही साथ देती फलत:
सुधाकर को उनकी बात माननी ही पड़ती।
तभी उसकी तन्द्रा
भंग हुई, सामने से शुभ्र अपनी माँ के साथ आ रहा था,
"कितना सजीला कितना
आत्मविश्वासी दिख रहा; मेरा बेटा",
उसने सोचा और अस्पताल के कोरिडोर
में ही बाप-बेटे का भरत मिलाप हो गया।
"चलो दादाजी से मिल
लो फिर घर चलेंगे",
सुधाकर ने कहा .
तबतक शुभ्र दादा जी से गले मिल,
उनके बिस्तर पर उनके बगल में पसर चुका था, अपने पिता की
आँखों की आद्रता और स्नेहिल भाव देख उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कुछ देर
पहले ही उसे कोस रहें थें,
"तुम्हे बेटा पालने
नहीं आया रे सुधि, क्या जरुरत थी विदेश भेजने की, क्या पढ़ाई
यहाँ नहीं होती? उसने
जिद्द किया तुमने मान लिया। अब क्या जरूरी है वही पढ़ने की जो सिर्फ विदेश में ही
होती है। गया हाथ से तुम्हारा बेटा भी..."
"छोड़िये ना पापा,
अब उसकी इच्छा थी यही पढने की", सुधाकर
ने कहा था। वह जानता था उन्हें समझाना फिजूल है.
आज सुधाकर और रजनी को घर,
घर लग रहा था. रात गहराने लगी थी, रजनी सोने चली गयी.
रजनी के जाते ही,
शुभ्र अपने लैपटॉप को खोल एक लड़की की तस्वीर और प्रोफाइल दिखाने लगा. वेनेशा,
उसके साथ ही काम करती थी। सुधाकर समझ रहा था कि, यूं तस्वीर दिखाने की मंशा क्या है। मुस्कुराते हुए वह देखता रहा और
सुनता रहा.
अटकते हुए गर्दन झुकाए झुकाए शुभ्र ने आखिर कह
ही दिया. कुछ देर से जो तनाव की लकीरें वह शुभ्र के माथे पर महसूस कर रहा था अब
नदारद थीं।
सुधाकर ने एक गहरी नज़र वेनेशा पर
डाला और फिर शुभ्र के माथे को सहलाते हुए कहा,
"बेटा हम इस पर अच्छे
से विचार करेंगे। मुझे तुमपर पूरा विश्वास है। थक गए होगे अब तुम सो".
रजनी की
नींद न खुले सो वह स्टडी रूम में सोने चला गया, दीवान पर
लेटने से पहले एक किताब अल्मारी से निकाल पन्ने पलटने लगा,
पलटा तो उसने पुस्तक के पन्ने थे पर पलट गए अतीत के। यूं भी शुभ्र की बातों के बाद
दिल का एक कोना जोर-जोर से धडक उठा था, कि एक सूखा गुलाब
खिसक कर आ गिरा गोद में। फूल भले सूख चुका था पर उसमें खुशबू शायद आज भी थी।
खींच कर ले गयी वह खुशबू उसे सिद्धि के पास.
‘सिद्धि’ उसकी सिद्धि। सांस बन बसी थी, खुशबू बन रह गयी थी उसके
संग। इंजीनियरिंग कॉलेज में शायद वह नहीं होती तो वह एक भी सेमेस्टर पास नहीं हो पाता।
वह सिर्फ समझाती और पढ़ाती ही नहीं थी बल्कि दब्बू से सुधाकर की हमेशा हौसला आफजाई
भी करती थी। फाइनल इयर तक आते आतें दोस्ती का रंग बदलने लगा था।
कॉलेज के अंतिम
दिन पीछे वाली नहर में पैर डुबाये सुधाकर और सिद्धि, एक
दूसरे से दिल की बातें कहने की हिम्मत जुटा रहें थें, जाने
कहाँ से अचानक पिताजी वहां प्रकट हो गए, जरूर हॉस्टल के किसी
लड़के ने खुन्नस निकाली थी। सिद्धि के सामने ही उसे दो झापड़ लगाया था। सुधाकर की तो
घिघ्घी बंध गयी थी। अलबत्ता सिद्धि ने जरूर कुछ कहना चाहा था, तबतक पिताजी उसे कान पकड़ घसीटते वहां से ले गएँ। मुठ्ठी में बंद वह लाल
गुलाब आज तक बेजुबान किताब में ही कैद हो रह गया स्मृतियों की भाँति।
फिर तो पिताजी को मानों दौरा ही पड़ गया था कि सुधाकर की शादी करा दिया जाएँ।
सुधाकर गुमसुम सा निर्विकार भाव से आत्म समर्पित हो पिता का गाय बना रहा पूरे
परिदृश्य में। नौकरी शुरू करते ही उसकी शादी हो गयी।
सुहागरात को जब वह पहली बार रजनी के पास गया
तो देखा वह बुरी तरह बिलख रही थी, धीरे धीरे ढाढस देते हुए उसने कारण
पूछा तो उसने सुबुकते हुए कहा,
"मैं अभी पढ़ाई कर ही
रही थी कि मेरी शादी कर दी गयी। मुझे अभी पढ़ना और कुछ करना था पर किसी ने मेरी
नहीं सुनी"
सुधाकर का दिल भर आया कि एक सेज
पर दो लोग अधूरे कामनाओं के साथ गृहस्थी की शुरुआत करने जा रहें।
"रजनी तुम चिंता मत
करो, तुम्हारी पढ़ाई की जिम्मेदारी मेरी है"
जिम्मेदारी की भावना और आत्मनिर्भरता के साथ
थोड़ी आत्मविश्वास में भी वृद्धि हुई। पिताजी जी की एक ना सुनी उसने रजनी को पढाने
के मामले में। रजनी पढ़ती रही, आखिर वह बैंक में पीओ के लिए चयनित हुई।
उसके कोई दो वर्षों बाद ही शुभ्र का जन्म हुआ। इस बीच घटना क्रम बहुत तेजी से
घटे पर उसने रजनी की पढाई को नहीं रूकने दिया, घर - बाहर की
दोहरी जिम्मेदारियां निभातें रहा। पिताजी को वह भी जान चुका था कि उन्हें प्रसन्न
और संतुष्ट रखना असंभव है। पर वह हमेशा उनकी इज्जत और देखभाल करता रहा.
"अरे! आप क्या रात भर
सोये नहीं?"
चाय ले कर रजनी ने पास में बैठते
हुए पूछा.
"ओह! सुबह हो गयी
मुझे तो पता ही नहीं चला...", चौंकते हुए सुधाकर ने
कहा.
"आज मैं आराम करूँगा, बहुत थकान महसूस हो रही। तुम सब संभालो, उससे पहले
लो ये किताब अलमारी में रख दो"।
गुलाब
अपनी यादों को समेटे फिर से अलमारी में किताब संग दुबक कर जा बैठा. पूर्व की
आत्महीन व्यक्तित्व को प्रदर्शित करता वह कमजोर नाज़ुक सूखा गुलाब अब बस स्मृतियों
में ही शेष था। पिता की क्रोधाग्नि से दग्ध लता सा व्यक्तित्व अब एक विशाल छायादार
वृक्ष था जिसके छांव तलें सब सुकून से पल्लवित-पुष्पित हो रहें थें।
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