" वीणा के तार सी जिन्दगी" - दैनिक जागरण सप्तरंग पत्रिका पुननर्वा में प्रकाशित
संशोधित
कहानी- वीणा के तार सी जिन्दगी
अनमना सा आकर्ष अपने क्यूबिकल में बैठा हुआ
था. दफ्त्तर के आधे से अधिक लोग जा चुके थे. दो माह पहले आकर्ष भी अभी तक यहाँ
नहीं दिखता वरन दफ्त्तर छोड़ने का रिबन वही काटता था. पर आज कदमों में मानों पत्थर
बंध गएँ थे, उठ ही नहीं रहे थे. सच रख दिए ही गए थे पत्थर उसके मन, मानस और मर्म
पर. बार- बार पूरानी उन्नत्ति का सौम्य मृदुल चेहरा उसे खींच रहा था अपनी ओर, पर
हर बार कमर पर हाथ रखे शब्दों के चाबुक चलाती उसका नवीन अवतार समक्ष आ उसे परे हटा
देती. उसे शादी के पहले के दिन भी याद आ रहें थें जब वह दफ्त्तर के बाद देर तक
दोस्तों के साथ घूमता रहता, देर रात खाने-पीने के बाद घर सिर्फ सोने जाता था.
परन्तु जब से उन्नत्ति मिली उसने खुद ही दोस्तों से किनारा कर लिया था. पर
उन्नत्ति ने गजब रंग बदला था, जैसे कोई कीमती फिरोजी रंग के सिल्क ने पानी में
जाते रंग छोड़ दिया हो...
“क्यूँ यार आज घर नहीं जाना
क्या? लगता है भाभीजी मायके चली गयी हैं?”,
रक्षित ने उसके कंधे पर हाथ रख कहा तो आकर्ष
की तन्द्रा टूटी. देखा दफ्त्तर खाली हो चुका है और चपरासी ताले को हाथ में ले उसे ही
ताक रहा है. घड़ी की तरफ देखा, उसने भी सीट छोड़ने का ही इशारा किया. उसे घर जाने की
हिम्मत ही नहीं हो रही थी. कधें पर बैग लटकाए किसी तरह खुद को एक तरह से घसीटते
हुए ही वह निकला.
“ओह हाय! आ गए बेबी, पर तुमने जूतें क्यूँ नहीं
खोला अंदर आने के पहले?”
“अरे! अरे... अपने बैग
तुमने सोफे पर क्यूँ रख दिया, आज ही धुले हुए कवर लगायें हैं मैंने ”.
“उफ़! बिना हाथ धोये तुमने
गिलास कैसे उठा लिया?”
“दफ्त्तर तो छ बजे तक बंद
होने लगता है, कहाँ थे तुम अब तक?”
“कहीं कॉलेज की पीने वाली
आदत फिर तो नहीं शुरू कर दिया?” उन्नत्ति ने एक साथ सारे शब्द बाण छोड़ दिए थे.
............. उफ़ क्या करें
इन आवाजों का, एक एक शब्द मानों कील ठोक रहीं थीं.
सहसा याद आ गयी वह छुई मुई सी शर्माती हुई
उन्नत्ति जिसे उसने छ महीने पहले देखा था. पहले तो रिश्तेदारों की उपस्तिथि में
फिर अकेले भी जब मिलती, उस के ठहरे हुए परिपक्व व्यवहार से वह बड़ा प्रभावित होता. जहाँ
एक ओर वो अपने साथ की लड़कियों की तेजतर्रारेपन से बहुत घबराता था वहीँ उन्नत्ति
जैसी मृदु व् अल्पभाषी बीवी पा कर वह फूला न समाया था. सगाई से हनीमून यूं गुजरे
मानों कोई स्वप्न सलोना.
अभी दो महीने पहले उसकी शादी हुई थी.
कई वर्ष हॉस्टल में गुजारने बाद घर का सुख मिला. अपनी नयी नवेली दुल्हन की सुघड़ता
की उसने बड़ी तारीफें सुनी थी, वाकई
उन्नत्ति एक कुशल और सुघड़ गृहणी थी. उसके कचरे के ढेर सदृश्य घर को उसने अपनी
जादुई छूअन से होटल के कमरे जैसा सजा दिया. हर चीज की जगह तय हो गयी, मानों घर न
हो दुकान हो. हर चीज शोकेस में सजी हुई. हर कार्य के नियम बन गए. मसलन शर्ट-पेंट
खोल कर लांड्री-बैग में ही डालना है और गीला तौलिया बाहर बालकनी में अलना पर
फैलाना है. बाहर से आ कर हाथ धोना ही है और खाना कांटे-चम्मच से ही खाना
है........
शुरू
में तो सब बड़ा ही अनूठा लग रहा था, उन्नत्ति जो भी करती वह तारीफों के पुल बाँध
देता.
पर जल्द ही आकर्ष को महसूस होने लगा कि उसकी
सुघड़ता कुछ अधिक ही बंदिशे लगाने लगी हैं. उसे लगता ही नहीं कि वो अपने घर में
अपनी मर्जी से कुछ कर सकता है. दिन भर अनुशासन का चाबुक चलता रहता.
लजाती शर्मीली सी लड़की, बीवी बनते ही डिक्टेटर हो गयी थी.
“तुम अभी तक यूं ही खड़े हो,
चाय ठंडी हो रही है”.
“देखो आज मैंने एक नया डिश बनाया है, चख कर
बताना...”
“आज मम्मी का फोन आया
था...”, उन्नत्ति बोले जा रही थी.
उसके नए डिश और मम्मी पुराण
से आकर्ष बड़ा घबराता था. अगले ही पल वह अपनी शादी शुदा जिन्दगी का पहला झूठ बोल
रहा था,
“बेबी, देखो न मुझे अचानक
कुछ जरुरी ऑफिसियल काम से दिल्ली भेजा जा रहा है. लौटने का कुछ निश्चित नहीं है
जाने कितने दिन लगेगें. सॉरी बेबी, मुझे बस तुरंत ही निकलना है”, बोल आकर्ष ने एक
लम्बी सांस लिया.
“इसी से मैं कपडे नहीं बदल
रहा था, प्लीज अब एक ब्रीफ़केस तैयार करने में मदद कर दो”, आकर्ष अब निसंकोच बोल
रहा था. जल्द ही वह कुछ जरुरी सामान ले निकल गया. टैक्सी में बैठते हुए उसने उलट
कर देखा उन्नत्ति, कुछ विस्फारित भाव से उसे जाते देख रही थी.
“बाय, बेबी लव यू”, का
जुमला उछालता वह चल पड़ा.
“हूँ, काहे का ‘बेबी’ यार? हिटलर
बोलो हिटलर, पर ये भी बोलना पड़ता है. किसी ने शादी के वक़्त ज्ञान दिया था अन्यथा
गंवार समझे जाओगे”, मन ही मन ये सोच वह मुस्कुराने लगा. अच्छा हुआ शहर के किनारे
इस होटल में चले आया, नहीं तो अभी सुनता रहता,
“कैसी सब्जी लाये हो, टमाटर
लाल नहीं हैं बैंगन गोल नहीं है”
“उफ़ तौलिया बिस्तर पर रख
दिया, नल टपकते छोड़ दिया....”
उन्नत्ति भले घर में ही थी पर उसके मर्मान्तक
शब्द आकर्ष के साथ ही टैक्सी से आ गएँ थें. उसने दोनों हथेलियों को कानों पर कस
लिया, पर पत्नी उवाच उंगलियो के पोरों से भी प्रवेश करने की जद्दोजहद में लगी हुईं
थीं. वह वहां व्याप्त शान्ति को महसूस करने की कोशिश करने लगा.
इण्टरकॉम पर उसने कुछ खाने का आर्डर दिया, जब
तक वह आता तब तक आकर्ष पूरे कमरे में अपने सामान को पसार चुका था. उसने जूता खोला
और हवा में लहरा दिया, जो दीवाल से टकराते हुए साइड टेबल पर लैंप गिराते हुए विराजमान
हो गया. कुछ ही देर में उसकी शर्ट बेड के नीचे जूठे बर्तनों के साथ गुफ्तगू कर रही
थी और तकिया कार्पेट पर गिरा हुआ था जिस पर दूसरा जूता मोजों संग मौज कर रहा था. कोई
मनो चिकित्सक होता तो उसके व्यवहार देख समझ जाता कि वह अपनी भड़ास निकाल रहा है.
आधी रात को जब नींद खुली तो खुद को सोफे पर पाया और टीवी को फुल वॉल्यूम में. टीवी
बंद कर सोने चला तो देखा बिस्तर पर जगह ही नहीं है, अखबार, तौलिया, चाय का कप,
उसका ब्रीफ़केस और कंप्यूटर सब आराम से गहरी नींद में पसरे हुए हैं वहां. वह वापस
फिर सोफे पर ही उकडू हो लेट गया.
दूसरे
दिन देर तक सोता रहा, दिन भर कमरे जो मन आया करता
रहा. दो दिन आकर्ष
यूं ही अपनी आजादी का जश्न मनाता रहा. तीसरे दिन उसे खुद लगा कि वह क्या कर
रहा है, उठ कर उसने अपना सामान
समेटा, काउंटर पर फोन कर कमरे की सफाई का
निर्देश दिया.
अब उसे एक खालीपन महसूस
होने लगा, सच अब उसे पत्नी की याद सताने लगी थी, बेचारी दिन भर घर के काम में ही तो लगी रहती है.
शादी से पहले वह एक अच्छे विदेशी फर्म में दो साल नौकरी कर चुकी थी, पर नौकरी न करने की आकर्ष के
आदेश को उसने सर आँखों ले पूरी तरह अपने को घर में झोंक दिया था. अब वाकई उसका
सारा गुस्सा विक्षोभ बह चुका था और उन्नत्ति की याद जोरों से आ रही थी.
बीवी को सरप्राइज देने के ख्याल से उसने बताया भी
नहीं कि वह आ रहा है. काल बेल बजने पर थोड़ी देर में दरवाजा खुला, आँखे मलती हुई उन्नत्ति
उनींदी सी सामने थी,
"अरे वाह! बताया नहीं कि आ रहे हो?", हकलाते
हुए उसने कहा.
पर सबसे
चौंकाने वाली बात थी घर की हालत, पूरा घर और उन्नत्ति स्वयं,
अस्त-व्यस्त और बेतरतीब ……
थोड़ी देर बाद ही दोनों जोरो
से हँस रहे
थे. आकर्ष को आज एक नयी बात पता चली थी कि वह भी उसकी ही तरह बेपरवाह और मस्त थी, जिंदगी
को खुला छोड़ खुश रहने वाली. शादी के वक़्त उसकी बुआ, चाची, मौसी इत्यादि ने उसे समझा दिया था कि
पति और घर दोनों को बिलकुल कस कर
अनुशासन की चाबुक से बांध कर रखना चाहिए और उसी को करने की वह कोशिश कर रही थी.
वास्तव में वह भी छद्म रूप जीते हुए इन दो महीनों में थक गयी थी, सो उसके
दिल्ली जाने की सुन सारे नियम कानून बंधन तोड़, थोडा रिलैक्स करने लगी.
सच है ना
जिन्दगी वीणा की तार की तरह ही होती है, इतना भी ना कसो कि टूट जाये
और इतना भी ढीला ना छोड़ो कि तरंगित ही ना हो.
……अब दोनों अपनी तरह से अपनी गृहस्थी की गाडी हांकने लगे, ख़ुशी-ख़ुशी. आकर्ष के घर
में प्यार का रंग और चटकीला होते जा रहा था क्यूँकि अब उन्नत्ति भी अपनी पुरानी
नौकरी पर जाने लगी थी और घर के काम ?
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