लेख- अकेलें हैं तो क्या गम है सरिता दिल्ली प्रेस
लेख- अकेलें हैं तो क्या गम है
अभी दो दिन पहले
आये एक फोन ने मुझे चौंका दिया, मेरे दूर के एक बुजुर्ग रिश्तेदार का फ़ोन था. उन्होंने
कहा,“एक सरप्राइज पार्टी है कल. होटल अंश में तुम सब चले आना शाम सात बजे तक और
खाना मेरे संग खाना”.
शाम तक पता
चला कि शहर में रहने वाले अन्य रिश्तेदारों को भी उनका फोन आया आया है. अचानक भूले
बिसरे से हमारे ये बुजुर्ग चाचाजी हमारी चर्चा में आ गएँ. वर्षों पहले चाची जी का
निधन हो चुका था. चाचाजी पेंशन पाते थे और एक सामाजिक संस्थान से जुडे थें. पहले
तो बहुत दिन/ महीनें चाचीजी की गम में बीमार ही पड़े रहें थें. बाद में उनके ही एक
मित्र ने उन्हें उस संस्थान से जुड़ने को प्रेरित किया. धीरे धीरे वे उसके क्रिया
कलाप में व्यस्त रहने लगे थें. नियत समय से कुछ पहले ही मैं होटल पहुँच गयी थी,
चाचाजी अकेले ही बैठे होटल मेनेजर से कुछ बातें करते दिखें. पता चला उन्होंने खुद
ही अपना ८० वां जन्मदिन मनाने का फैसला किया और सभी जीवित दोस्तों और रिश्तेदारों
को आमंत्रित किया है. यहाँ तक कि दूसरे शहरों में रहने वाले उनके बच्चें भी मेहमान
की ही तरह पहुंचे थे, उन्हें भी भनक नहीं लगने दिया था चाचाजी ने. मैनेजर ने बताया
कि,
“अंकल जी कोई दो-तीन महीने से तैयारी कर रहें हैं. कभी कोई
सुझाव देते हैं कभी कोई बदलाव करतें हैं”
सच हमसब ने चाचाजी को बिसरा ही दिया था, पिछले साल मेरे
बेटे की शादी में ही उनसे मिलना हुआ था. मैंने पूछा, “चाचाजी आपके उस संस्थान में
क्या और कैसी गति विधियां चल रहीं हैं?” तो चाचाजी ने बताया कि,
“मैं जिस सामाजिक संस्थान से जुड़ा हूँ वह बेसहारा और गरीब
बुजुर्गों के लिए कार्य करती है. उस से जुड़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि सच में
मेरा गम बहुत कम है. दूसरों को देख मुझे महसूस हुआ कि मेरे पास जो मौजूद है वह खुश
रहने के लिए काफी है”.
नियत समय पर सबके
आने पर पार्टी शुरू हुई. बड़ी सी सुंदर ८० लिखे केक को उन्होंने काटा. धीमी संगीत
पर हम सबके साथ उन्होंने भी थोड़ा कदम मिलाया. उन्हें देख मैं सोच रही थी कि कोई
मेरे लिए करे कि जगह इन्होने खुद ही अपने लिए सारा आयोजन कर लिया था. दोस्तों-रिश्तेदारों
के संग हँसते बोलते चाचाजी जीवन का कितना बड़ा सबक हमे सिखा रहें थें कि खुद के लिए
भी जीना चाहिए. मेहमानों में उनके संस्थान से आयें बुजुर्ग भी थें. चाचाजी की बड़ी
सी मित्र मण्डली भी बड़ी कमाल की दिखी, कोई बचपन का मित्र था तो कोई सहकर्मी तो कोई
सुबह मिल्क बूथ का साथी. सभी बेहद खुश मिजाज़ और जीवन से भरपूर दिखे. जीवन के प्रति
उनकी सकारात्मकता देख बहुत ही अच्छा लगा. सभी मित्रों को बच्चों की तरह पोज़ दे
सेल्फी लेते देखना सुखकर था. कितने दिनों तक चाचाजी व्यस्त रहे होंगें अपनी जन्मदिन की पार्टी की
तैयारियों में, उस के रहस्य को बनाये रखने में और अभी कितने दिनों तक शायद
तस्वीरों के जरिये खुश होंगें.
बुढ़ापा और तिस पर
अकेलापन अक्सर लोगो के लिए अभिशाप बन जाता है. जब उम्र की फसल पकने लगती है और उसी
समय किसी एक का चले जाना दूजे के लिए बेहद कष्टमय हो जाता है. यही वह समय होता है
जब जीवन साथी या संगनी की सबसे ज्यादा जरूरत है. परन्तु मृत्यु पर किसका बस है.
कभी ना कभी एक को अकेले जीने को विवश होना ही होता है.
मेरी एक सहेली है
ताप्ती, बेहद चुस्त-दुरुस्त और फुर्तीली. घर बाहर के सारे काम करती, पति को बिलकुल
दैन्दिनी कार्यों से मुक्त रखती परन्तु पति की असमय मृत्यु से उसे ऐसा सदमा पहुंचा
कि उबर ही नहीं पायी. वो कहतें हैं ना कि मरने वाले के संग कोई थोड़े चले जाता है
पर ताप्ती ने सच में जीते जी मानों दुनिया छोड़ दिया. लोगो से खुद को काट लिया.
जीवन के हर रंग से मुहं मोड़ लिया. आज सालों बीत गएँ हैं पर उसकी दुनिया वहीँ ठहरी
हुई है. उदास, बेजार, बीमार .......अफ़सोस होता है उस जिन्दा लाश को देख जिसके
बच्चें उसके जीते जी अनाथ हो गएँ.
सच अकेले जीवन
व्यतीत करने के लिए बेहद आत्मबल की आवशयकता है. दूसरों को कहना आसान लगता है पर
जिस पर बीतती है वही जान पातें हैं. परन्तु कुछ लोग धीरे धीरे घर-परिवार,
दोस्तों-रिश्तेदारों की मदद से धारा में फिर लौटने की कोशिश अवश्य करने लगतें हैं.
मुझे श्रीमती
शर्मा की याद आ रहीं जो शर्मा जी के जाने बाद बदहवास सी हो गयीं थीं, घर उन्हें
मानों काटने को दौड़ने लगा था. फिर एक दिन बेटे के साथ अपने गाँव गयी, जहाँ पहले
दो-चार सालों पर ही जाती थी. इस बार उन्हें वहां की ठहरी हुई जिन्दगी सुकूनदायी
लगी और जिद्द कर वहीँ रूक गयी. बेटे ने भी सोचा कि स्थान परिवर्तन से शायद माँ को
अच्छा महसूस हो. अधबना सा घर था और थोड़े खेत. पहले खेत को बटाई पर दिया करती थीं,
इस बार उन्होंने मजदूर रख खुद ही धान लगवाया और अधबने घर को पूरा करवाने लगीं. गाँव
में रहने वाले उनके रिश्तेदार उनकी मदद कर दिया करतें थे. महीना दो महीना
बीतते-बीतते बेटा वापस आने की जिद्द करने लगा. पर श्रीमती शर्मा कभी कहती कि खेतों
में दवा का छिडकाव करवाना है तो कभी कहती कमरे का छत ढलवाना है. आज कल करते वे
सात-आठ महीने वहां रह गयी. इस बीच वह इतना व्यस्त रही कि शर्मा जी के गुजरने के
बाद की बदहवासी से वे उबर गयीं. अब उन्हें एक मकसद मिल गया हर साल धान लगवाने के
मौसम में वे गाँव चली जाती और कुछ महीने वहां रहती और कुछ न कुछ निर्माण और
रचनात्मक कार्य करवा कर साल भर खाने लायक चावल व् अन्य फसल रख कुछ बेच कर ही वापस
लौटती. साठ वर्ष की आयु में उन्हें पहली बार आर्थिक रूप से आत्म निर्भरता और
आत्मबल का अनुभव हुआ.
मेरे ससुरजी बेहद
चुस्त-दुरुस्त और पेशे से इंजिनियर थे. सास-ससुर दोनों आराम से अपने शहर में बिना
किसी के सहारे के रहते थे. फिर जब सास चली गयी सत्तर की उम्र में तो उन्हें
अकेलापन खाने लगा. हमारे साथ रहने लगे पर उनकी उदासी देखी ना जाती थी. इस बीच मेरी
बेटी आई, वह अपने दादाजी के लिए एक स्मार्ट फोन लेती आई,
जो उस वक़्त नया नया ही निकला था. टेक्निकल आदमी तो वे थे ही, नयी तकनीक सीखने की ललक उन्हें व्यस्त रखने
लगी. जब तक बेटी रही वह दादा जी को सीखाती रही. कभी जल्दी समझते नहीं तो कभी भूल
जातें. पर फिर सीखते फिर पूछते. फिर तो वह नौजवानों की ही तरह अपने मोबाइल पर
व्यस्त रहने लगें. हमसब की सहायता से उन्होंने ना सिर्फ मोबाइल चलाना सीखा बल्कि
लैपटॉप भी चलाने लगें. ७४ की उम्र में उन्होंने सोशल-नेटवर्किंग, गूगल और डाउन
लोडिंग सीख अपने जीवन को काफी रोमांचक और व्यस्त बना लिया था. उनके दोस्त जहाँ भजन
और पूजा पाठ में दिन गुजारतें वे नेट पर दुनिया में क्या नया हो रहा है देखते-पढ़ते.
राधिका जब अपने
घर एक झबरे पप्पी को ले कर आई थी तो सबसे ज्यादा उसकी सास ने ही विरोध किया था.
परन्तु धीरे धीरे दोनों एक दुसरे के पक्के साथी बन गएँ. जब सब स्कूल और दफ्त्तर
चले जाते तो राधिका की विधवा सास को टीवी देखने के अलावा कोई चारा नहीं बचता था पर
उस पशु के आने बाद न चाहते हुए भी वे उसकी देख भाल करने लगी और वह एक सच्चे मित्र
की तरह दिन भर उनके साथ डोलता रहता. उस पप्पी ने उनके अकेलेपन की शून्यता को अपनी
मूक उपस्तिथि से हर लिया था.
मुग्धा अपने
दादाजी के मरने के बाद अपनी दादी जी को अपने साथ बंगलोरु लेती गयी थी, जहाँ वह एक
पब्लिकेशन हाउस में काम करती थी. वह देखती कि दादी अक्सर एक डायरी को सीने लगाये
रहती थीं, कभी झुक कर कुछ लिखती हुई भी दिखतीं.. एक दिन उसने चुपके से उत्सुकता वश
उस डायरी के पन्ने को पलटना शुरू किया.
डायरी क्या वह तो दस्तावेज था दादा-दादी के प्रेम भरी गृहस्थी का, जीवन का. उनके
विवाह के शुरूआती दिनों में लिखी प्रेम कवितायें थी तो सासु माँ के द्वारा दिए
दुःख भी गीतों की शक्ल में अश्रु अंकित थें वहां. मुग्धा के पापा के जन्म के वक़्तकी ममता भरी रचनाएं थी.... तो आखिर में उसके दादाजी
के बीमारी की दौरान उनके मन में उठती भावनाएं और जाने के बाद की विरह विछोह का
दर्द भी शब्द बन वहां रचे-बसे थें. इतनी शुद्ध और तत्सम शब्दों से सजी सुंदर
रचनाएं हिंदी में दिखती कहाँ हैं, मुग्धा ने एक दिन चुपके से डायरी ले जा कर अपने
बॉस को दिखाया और फिर अचानक जब पुस्तक की शक्ल में जब दादी की हाथों में थमाया तो
उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. उम्र के उस चौथेपन में उनकी लेखन प्रतिभा को
पहचान मिली और आगे जीने का आत्मबल.
मेरे दफ्त्तर में
शेषाद्री साहब थे. ठीक रिटायरमेंट के पहले उनकी पत्नी लम्बी बीमारी के बाद चल बसी.
दोनों बेटियों की शादी हो चुकी थी और दोनों ही विदेश में रहतीं थी. रिटायरमेंट के
बाद सुना कि उन्होंने अपनी सेक्रेटरी कुंवारी अधेड़ मरियम से शादी कर ली. बेटियाँ
ऐसे भी कम ही आती थी उसके बाद आना ही छोड़ दिया. लोगबाग कहते कि पहले से ही चक्कर
था या सेक्रेटरी ने पैसे के लालच में फाँस लिया. जितनी मुहं उतनी बातें. परन्तु
दिल का एक कोना खुश होता उन्हें देख, जब वे रोज मरियम को कार से ऑफिस छोड़ जातें
शाम को लेने आतें. बाज़ार में दोनों साथ खरीदारी करते या टहलते दिख जाते तो याद आ
जाते विधुर महेश्वर जी जो बेटी के घर के एक कोने में चुपचाप सिर्फ मृत्यु के
इन्तजार में मानों दिन काट रहें हो, पड़े रहतें हैं या मोहल्ले के नुक्कड़ पर रहने
वाली कृशकाय सविता ताई जो साठ वर्ष की आयु से दिन भर मंदिर के चौखट पर बैठ अपनी
मौत की भीख मांग रहीं थी. कम से कम उनलोगों से तो बेहतर जीवन चुना शेषाद्री जी ने.
Comments
Post a Comment