कहाँ तक ये मन को अंधेरे छलेंगे उदासी भरे दिन कभी तो ढलेंगे
कहाँ तक ये मन को अंधेरे छलेंगे उदासी भरे दिन कहीं तो ढलेंगे कभी सुख कभी दुख, यही ज़िंदगी हैं ये पतझड़ का मौसम घड़ी दो घड़ी हैं (२) नये फूल कल फिर डगर में खिलेंगे उदासी भरे दिन कहीं तो ढलेंगे भले तेज कितना, हवा का हो झोंका मगर अपने मन में तू रख ये भरोसा (२) जो बिछड़े सफ़र में तुझे फिर मिलेंगे उदासी भरे दिन कहीं तो ढलेंगे कहे कोई कुछ भी, मगर सच यही है लहर प्यार की जो कहीं उठ रही है (२) उसे एक दिन तो किनारे मिलेंगे उदासी भरे दिन कहीं तो ढलेंगे
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