"आशा साहनी के बहाने" भारतीय भाषा परिषद् की साहित्यिक पत्रिका 'वागर्थ' में प्रकाशित in october 2017

आशा साहनी के बहाने

ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग........
“इतनी रात गए किस ने की होगी फोन?”, हेमा ने आँखें मलते हुए साइड टेबल से चश्मा उठाया. नाम देख चौंक गयी. इतने बरस के बाद...
घड़ी भोर के चार बजा रही थी, फोन के दूसरे सिरे पर मौजूद मनहूस चुप्पी उसके नस नस को सिहराने लगी. हेमा अब भी फोन लिए हुए बस अनुमान लगाने की कोशिश कर रही थी कि आखिर ऐसी गलती उनसे हुई कैसे. रिश्तों का जो अथाह बर्फीला समंदर फोन के दूसरे सिरे पर था, उस ग्लेशियर की पिघलने की आशा बिलकुल नगण्य थी. शायद सूरज कभी पश्चिम से उदय हुआ हो, पर उन की हेठी उन की अकड़ उन की सोच ना कभी परिवर्तित हुई है ना परिवर्तनशील होने की गुंजाईश शेष है. पर फोन तो आया और उन्हीं का आया....
.....हेमा ने उठ कर खिड़की से परदा सरकाया पर खिसक गए यादों पर पड़ें पर्दें. दोनों ही जगह उसका सामना हुआ घने अँधेरे से. इस अंधियारे में हाथ बढ़ा रिश्तों के उलझे सिरे को कैसे सुलझाये....
  साल दो साल नहीं कोई बीस-बाईस वर्ष बीत गए होंगे. जब आखिरी बार वह “मम्मी” से मिली थी. कैसे भूल सकती है, उस मुलाकात को. उस आखिरी मुलाकात के भी चार साल पहले ही उसे घर निकाला दे दिया गया था. हेमा को बेटी हुई थी, वहीँ मुंबई में मम्मी के ही पास. हेमा तब पढाई कर ही रही थी और उसके पति की पोस्टिंग छत्तीसगढ़ के अन्दुरुनी भाग में थी. जहाँ न वह अपनी शिक्षा पूरी कर सकती थी और न ही बेटी को वहां जन्म दे सकती थी क्यूँ कि स्वास्थ्य सुविधाएँ वहां नाम मात्र को थीं. हेमा को महसूस हो रहा था कि मम्मी नहीं चाहती कि अब वह और रहे मायके.
“शादी भी तो तुमने ही की मेरी जल्दी, बिना मेरी पढाई ख़तम हुए और वो भी ऐसी जगह कि मुझे यहीं रहना ही होगा. किसी तरह अधूरी पढाई पूरी कर लूँ. तब तक बेटी भी माँ की क्षत्रछाया में पल जाएगी”,
……ऐसा हेमा सोचती.
पर जाने क्यूँ उसकी सगी माँ ही उसकी दुश्मन बन बैठी थी. सास होती तो शायद कुछ ताने देती पर यहाँ बिन सास की ससुराल थी और मम्मी ही ललिता पवार वाली भूमिका में. हेमा अनसुनी कर अपनी पढ़ाई पूरी करने की जद्दोजहद में लगी रहती. परन्तु मम्मी को लगता रहता कि जब शादी कर दिया है तो अपने घर जा कर रहे. हेमा ने एक दिन घिघयाते हुए कहा भी,
“मम्मी मैंने इसी से इतनी जल्दी शादी से भी मना किया था तुम्हें. तुम मेरी बात तब भी नहीं मानी थीं. मुझे पढ़ाई पूरी कर लेने दो, फिर मुझे जाने कहो उस अन्दुरुनी जगह पर”.
“इतनी जल्दी बच्चे पैदा करने की क्या जरुरत थी?”, मम्मी ने तंज कसते हुए कहा था.
“अब गलती हो गयी, तुम मदद कर दो उसे पालने में तो शायद मैं कुछ वर्ष और पढ़ लूँ”, हेमा ने मम्मी के पैर पकड़ लिए थे.
“हेमंत अगले वर्ष बारहवीं की परीक्षा देगा. मैं नहीं चाहती कि तुम माँ-बेटी मिल कर मेरे बेटे के भविष्य को चौपट करो. तुमलोगो के चलते यूं ही उसकी ग्यारहवीं का परिणाम बिगड़ चुका है. बेहतर होगा कि घर खाली करो और अपने घर जाओ. हो गयी तुम्हारी पढाई-लिखाई”,
मम्मी ने बेहद रूखे स्वर में दरवाजे की तरफ इंगित करते हुए कहा.
  अब तो कुछ बचा ही नहीं कहने-सुनने को. अपने-पराये की परिधि सुनिश्चित कर दी गयी थी. अवाक रह गयी थी हेमा, हतप्रभ सी जीवन की इस सच्चाई से रूबरू हो रही थी कि वह कितनी बड़ी बोझ थी. जिस बात को बचपन से अबोले शब्दों के द्वारा महसूस करती आई थी आज, पूरी नग्नता से पूरी भीषणता के साथ अपने विकराल स्वरुप में उजागर हो गयी थी. इतना भेदभाव, कोई माँ कैसे कर सकती है. हेमा के अफसर पिता इन सभी घरेलू बातों से अनभिज्ञ दफ्त्तर में व्यस्त रहतें थें. मम्मी अपनी सभी कुटिल चालों को हेमा पर आजमाती रहतीं. उसे याद आ रहा था मम्मी की वो बातें जब उसके पति शादी से पहले, पहली बार उसे देखने आयें थें. मम्मी उन्हें कह रही थीं,
“मेरी तो एक ही बेटी है. मैं इसे बिलकुल दुखी नहीं देख सकती. पलकों से चुन लुंगी इसकी राह की मुश्किलों की”
     हेमा को ताली बजाने का दिल कर गया था, मम्मी के इस शुद्ध हिंदी डायलाग प्रवचन पर. अचानक याद आ गया आज उसके द्वारा इंगित कर बाहर का रास्ता दिखलाना और टप से चू गए मोती नयन से. तभी गोद की बेटी रोने लगी और उसे अपने कलेजे से चिपका हेमा भी बिलख पड़ी. कुछ और याद आ गया जो मम्मी कहा करती थी. रिश्तें की बुआ की शादी में जो मम्मी ने कहा था और हेमा उसे सच मान कितने सपने संजो लिए थे.
“लड़कियों को खूब पढ़ा देनी चाहिए. कम से कम इतना कमा सके कि अपने पति के समक्ष उसे हाथ न पसारना पड़े. मैं तो इस लायक न बन सकी पर मैं हेमा को अवश्य इतना पढ़ाउंगी कि वह अपने पैरों पर खड़ा हो सके. आर्थिक आत्म निर्भरता बहुत बड़ी चीज है”
   बुआ ने कम पढ़ाई की थी और उनकी शादी कम उम्र में ही हो रही थी. ये मम्मी का एक चारित्रिक रूप था, जो अब उसे समझ आ रहा था. हेमा ने थोथे बातों को उड़ाते हुए सार ग्रहण कर सिर्फ पढ़ाई करने को मकसद बना लिया था. पर मम्मी तो शायद उसके पंखों को मजबूत करने की कभी सोची ही नहीं थी. बेकार हेमा डॉक्टर बनने के ख्वाब पालती रही. हेमा को मम्मी के इस दोहरे चरित्र का पर्दाफाश उसी दिन हुआ जब सुबह उसे घर खाली करने का फरमान सुना शाम को पापा के समक्ष ठुनकती हुई आवाज में कहते सुना,
“हेमा को अब मन नहीं लगता है हमारे यहाँ. सुधीर के पास जाने की जिद्द कर रही है. आखिर अब अपना घर-द्वार हो गया है, क्यूँ कर इसे यहाँ मन लगेगा....”
  मम्मी बोल रही थी और हेमा का दिल चाक-चाक हुआ जा रहा था. बचपन से एक दब्बू व्यक्तित्व की स्वामिनी हेमा, बोल भी नहीं पाई पापा को कुछ. जाने सुधीर उसे अपने संग ले भी जायेंगे कि नहीं. अभी तक उसने कहा नहीं था कि शायद मम्मी का मन पलट जाये. मम्मी बिसात बिछा चाल पर चाल चल रही थी. हर आने जाने वाले से वह सुबह से यही बात दुहरा चुकी थी कि हेमा को अब यहाँ मन नहीं लग रहा और वह अपने घर जाना चाहती है. हेमा ने उस दिन कुछ नहीं खाया था, सारा दिन रोती रही थी. बेटी को भी मम्मी ने गोद में उठाना छोड़ दिया दिया था.
 दूसरे दिन, दिन चढ़े जब भूख से आंतें कुलबुलाने लगी तो रसोई की तरफ जाने लगी, मम्मी उधर ही मिल गयीं. हेमा की सूजी पलकों को नजर अंदाज करती हुई उससे दो टूक पूछा,
“सुधीर को बता दिया न कि तुम जाना चाहती हो और वह आ कर तुम्हें ले जाये?”
“मम्मी, कैसे बोलूं? उन्हें लगेगा कि मैं अपने घर ही नहीं रहना चाहती हूँ. फिर वो भी तो चाहतें हैं कि मैं अपनी पढाई पूरी कर लूँ”, हेमा ने हकलाते हुए आशा भरे लहजे में कहा.
“वो सब मुझे नहीं पता. तुमको अब जाना तो होगा ही. हेमंत अगले वर्ष प्रतियोगी परीक्षाएं देगा और मैं नहीं चाहती कि तुम और तुम्हारी बेटी उसे डिस्टर्ब करें यहाँ रह कर. शादी हो गयी तुम्हारी, अब जान छोड़ो.....”
 मम्मी दो दिनों से वैसे भी बेटी को पकड़ नहीं रही थी तो वह कॉलेज नहीं जा पा रही थी. हेमा अब इस फरमान के बाद असहाय सी वहीँ बैठ गयी. अब कोई चारा नहीं बचा था सुधीर को सारी बातें बताये बिना.
“देखो बेटी को हमने जन्म दिया है तो हमारी प्राथमिकता वही है. मम्मी को अपशब्द नहीं कहना. हेमंत का रिजल्ट अच्छा होता तो ये इल्जाम हम पर नहीं आता. मैं आज ही निकलने की कोशिश करता हूँ. तुम हमेशा के लिए आने के लिए तैयार हो जाओ”,
   सुधीर उसकी मन:स्थिति भांप उसे समझा रहें थें और हेमा रोती रही....वह फोन पर बातें कर रही थी और मम्मी चौखट पर खड़ी उसकी बातें सुन रही थी. मम्मी के विद्रूप चेहरे पर राहत की उगती लकीरों को देख हेमा का सर्वांग सुलग उठा था.
“दीदी, मम्मी बता रही कि तुम जा रही हो? जीजाजी लेने आ रहें हैं. मत जाओ दीदी मैं छुटकी के बिना कैसे रहूँगा? तुम वहां जंगल में कैसे पढ़ोगी?”,
निश्छल हेमंत बोलता जा रहा था, पूछता जा रहा था...
“हेमंत! आज शाम से ही तुम आईआईटी कोचिंग के लिए जाना शुरू कर दो. मैंने दो और ट्यूटरों से भी बात कर ली है. तुम उनसे भी अपनी प्रॉब्लम सोल्व करने में मदद ले सकते हो......
दीदी के जाते तुम इस कमरे में शिफ्ट हो जाना....”, मम्मी बेटे की फ्यूचर प्लानिंग करने लगी थी.
  एक और कड़वा अद्ध्याय खुल गया, जब मम्मी ने कहा था.
“या तो तुम्हारे कोचिंग पर पैसा खर्च करुँगी या शादी पर. चूँकि शादी ज्यादा जरुरी है. सो खुद ही पढो और अपने प्रॉब्लम सोल्व करो. वैसे भी प्रतियोगी परीक्षा वाली समझ और बुद्धि तुम में नहीं है”
......
    यदि विमाता होती तो ये बातें ग्राह्य भी होतीं. पर एक सगी माँ की ऐसी बातें हेमा के मन में शक पैदा करने लगी थी कि कहीं वह गोद ली हुई बेटी तो नहीं. उसने सुना था कि माता कभी कुमाता नहीं होती है, फिर ये जो उसकी मम्मी है, यह कौन सी श्रेणी की माँ है. बेटी की पढ़ाई छुड़ा बेटे को पढ़ाना चाहती है. क्या इतने बड़े से इस घर के लिए वह इतनी बेगानी हो गयी कि समा ही नहीं सके.
“क्या कभी माँ ने उसे सच में प्यार किया होगा?”
“क्या हमारे पढ़े-लिखे घर में भी वही पुरानी मानसिकता पैठ किये हुए है कि बेटी पराई और बेटा अपना है?”
...हेमा सोचती जा रही थी ...
अब तक मम्मी से घिघयाते रहने वाली हेमा के मन में पहली बार एक घृणा भाव ने प्रस्फुटन किया. अब तो उसे बचपन की बहुत सी बातें साफ़ दिखने लगीं थीं. कभी इस चश्मे से उसने देखा ही नहीं था सोचा भी नहीं था. मम्मी की दोरंगी-तिरंगी बातों में से अपने लिए हमेशा सकारात्मक पक्ष को मान वह आज तक जीती रही थी उस घर में.
उसे याद आ गएँ वे अनगिनत पल...
बिस्तर पर लेट कर मम्मी का हमेशा हेमंत को गोद में भर कर लेना और हेमा को अपनी चोटी पकड़ा देना. हेमा को हमेशा मम्मी की पीठ ही मिलती चिपटने को, लिपटने को. जाने दो बाहों के बीच जब मम्मी हेमंत को भरती होंगी तो कैसा महसूस होता होगा.
.....................
    “पढ़ाई क्यूँ नहीं पूरा करना चाहती? क्यूँ हड़बड़ी हो रही जाने की, टीसी तो कम से कम ले लेती ....”,
पापा पूछतें जा रहें थें. हेमा चुप हो अपना और बेटी के सामानों को समेटती जा रही थी. अब उसे भी नहीं ठहरना था. वाकई अब उसे यहाँ से जाने की हड़बड़ी हो रही थी.
“नहीं रहना अब इन बेगानों की बस्ती में”
“काश कि हेमंत का आईआईटी में हो जाए, काश कि वह बहुत अच्छी नौकरी पाए, पर काश कि उसकी पढ़ाई-लिखाई और ऊँचे पद का तुम सुख नहीं लेने पाओ ....”,
चलते वक़्त मम्मी के पैर छूते वक़्त बस यही आह! उसके दिल से निकली थी.
  फिर बिलकुल काट लिया हेमा ने मम्मी पापा और हेमंत से. उनलोगों ने भी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखाई जुड़े रहने में. “मैं ठीक तुम ठीक” टाइप बेहद औपचारिक बातों में सिमट कर रह गए उनके रिश्ते. शायद सैकड़ों जागी रातों ने भी हेमा को भरोसा नहीं दिला पाईं थीं कि उसकी पढ़ाई बस बिना किसी मुकाम के ख़तम हो गयी है. हर आंसू के साथ मम्मी के लिए एक बद्दुआ निकलती ही रही. सब भूल झोंक दिया उसने खुद को अपनी गृहस्थी में. लाखों लड़कियों की शायद यही नियति होती है, सोच तसल्ली देती खुद को.
  इस बीच पापा के गुजर जाने की खबर आई. दौड़ी दौड़ी पहुंची हेमा. रोती हुई मम्मी को देख सारे गिले-शिकवे भुला बैठी और गले लग बस रोती रही. पन्द्रह दिनों के बाद उसे उहापोह होने लगी कि कैसे छोड़ कर जाए मम्मी को अकेली. पर रस्सी सिर्फ जली थी, ऐंठन बाकी थी.
“हेमंत फाइनल इयर में है, कैंपस प्लेसमेंट हो ही चुका है. कुछ ही महीनों के बाद वह वाशिंगटन में अपनी नई नौकरी ज्वाइन करने जायेगा. बहुत कुछ अभी होना है इसमें मैं तुम्हारे यहाँ कैसे जा कर रहूँ? जिनके बेटे होतें हैं वो अनाथों की तरह बेटी के घर जा कर क्यूँ रहें? फिर मैं तो बेटी के घर का पानी तक नहीं पी सकती हूँ. तुम अपनी सोचो मेरी चिंता छोड़ो, मेरा बेटा है सब देखने सोचने के लिए”,
   मम्मी की अहंकारी बातों का कोई अंत नहीं था.
........................
 साल दर साल गुजरतें रहें........
     हेमंत वाशिंगटन चला गया. कुछ महीनों के बाद मम्मी भी चली गयी वहीँ. वहीँ हेमंत ने किसी एनआरआई लड़की से विवाह किया. मुझे खबर मिलती रही. जब-जब बेटा की उपलब्द्धियों का ढिंढोरा पीटना होता मम्मी हेमा को फोन कर देर तक सुनाती रहती. उन्हें सुनाना ही पसंद रहा हमेशा, सुनना उनकी फितरत में नहीं था. फिर धीरे धीरे रिकॉर्ड बदलने लगा. अब बहू की कारगुजारियों की लम्बी फेहरिस्त थी उनके पास. वही वो दिन थे जब मम्मी ने हेमा से सबसे ज्यादा बातें की होंगी. वहां सात समन्दर पार हेमंत के घर में तलवारें म्यान छोड़ चुकी थीं. लड़ाई वर्चस्व की थी. पत्नी को छोड़ना यानी एनआरआई की स्टेटस त्यागना, अब इतना भी श्रवण कुमार नहीं था हेमंत. मम्मी को देश लौटना पड़ा.
घर के कोने कोने में वर्षों पहले जमे हेमा के आंसू, मम्मी की आंसूओं से जागृत को अंगार बन उन्हें लपलपाने और डराने लगी. जाने मम्मी को भान हुआ कि नहीं कि आशीर्वाद से कम ताकत नहीं रखती है बद्दुआएं भी. यही वो दिन थे जब मम्मी के फोन आने बंद हो चुके थें. दरअसल हेमा चार साल के बाद जान पाई कि मम्मी हमेशा के लिए लौट आई है. हेमंत का ही फोन आया था,
“दीदी मुंबई आया हुआ हूँ मम्मी से मिलने. उन्हें अब हमारे साथ रहने मुश्किल होती है सो मैं ही साल में एक बार आ जाता हूँ. तुमसे मिलने बहुत मन हो रहा. अगली बार आऊंगा तुम्हारे पास”.
  साल में एक बार हेमंत का कुछ ऐसा ही फोन आ जाता था.
“अच्छा मम्मी अकेली कैसे रहती हैं? उनके मोबाइल में प्लीज सबसे ऊपर मेरा नंबर सेव कर दो. हेमंत, पड़ोस में क्या आशा आंटी अभी भी रहती हैं? उनका नंबर भी मुझे देना और उन्हें मेरा. ताकि कभी जरुरत पड़ें तो वो मुझसे संपर्क कर सकें.....”
हेमा की नसीहतों और सुझावों का अंत ही नहीं था जब पिछली बार हेमंत ने फोन किया था, दो वर्ष पहले.
“मम्मी बिलकुल ठीक हैं, मेरे साथ अमेरिका जाने से अब भी इनकार ही कर रहीं हैं. वहां हाथ बांधे खड़े नौकर बांदी जो नहीं मिलतें हैं उन्हें. मुझे और रोमी को इतना वक़्त नहीं कि दिन भर इनकी सेवा करूँ या इनकी बातों को सुनूँ. दोनों बच्चों से भी मम्मी को प्रॉब्लम ही है. इनकी नसीहतों और अपेक्षाओं की कोई सीमा नहीं है. हर वक़्त एहसान जताते रहतीं हैं कि मैंने तुम्हें ये किया मैंने तुम्हें वो किया...”,
  हेमंत बोल रहा था और हेमा को अफ़सोस हो रहा था कि क्यूँ कभी उसने मम्मी को बद्दुआ दी थी, कि तुम मेरी पढ़ाई रोक बेटे को पढ़ा रही हो, कभी उससे सुख नहीं पाओगी.
  हेमा मम्मी को फोन करती तो वह फोन उठाती ही नहीं. ज्यादातर फोन की घंटी बजती रहती लम्बी लम्बी. कभी कभार फोन एक दो रिंग के बाद ही काट दी जाती तो हेमा समझ लेती कि मम्मी ठीक है और  उनकी अकड़ पर पकड़ बरक़रार है. मान अभिमान की दीवार अगर हद से ऊँची हो जाती है तो मिलने के सारे रास्तें बंद हो जाते हैं. मैं समझ रही थी कि मम्मी मुझसे ये स्वीकार नहीं करना चाहती है कि हेमंत ने उन्हें यूं तन्हा कर दिया है, उस बेटे ने जिसके गुमान पर वह दुनिया के हर रिश्तों को तुच्छ समझती रही थी, ख़ास कर मुझे.
   पड़ोस की आशा आंटी से कभी कभार बातें हो जातीं और उनसे ही पता चलता कि मम्मी ठीक हैं, आज या कल ही उनसे हुई मुलाकात का आंटी जिक्र करतीं. आशा आंटी अलबत्ता अपना रोना अवश्य रोती कि बेटे के विदेश जाने और अंकल के गुजर जाने के बाद अकेलापन उन्हें जीने हैं दे रहा.
“हेमा तुझे एक खबर देनी है, मैं अब हमेशा के लिए बेटे के पास सिडनी जा रही हूँ. सो शायद अब ये नंबर काम न करें. तुम्हारी मम्मी ठीक हैं, हेमंत आने वाला है. शायद वे भी उसी के पास हमेशा के लिए चली जाएँ”
आशा आंटी के इस फोन के बाद हेमा एक तरह से निश्चिन्त हो गयी कि चलो अच्छा है मम्मी अब अकेली नहीं रह रहीं. मम्मी का अतिरेक पुत्र प्रेम आखिरकार रंग लाया ही....
              इस बीच न कभी हेमंत का फोन आया और न किसी और का जो मुझे उस दुनिया का समाचार दे जहाँ मेरे मायके के लोग रहतें हैं. संचार के अतिउत्तम और दिनों दिन विकसित होते जा रहे यंत्रों में भी शायद उस तकनीक का अभाव है जो टूटे रिश्तों को जोड़ दे. परन्तु आज इस गहराती रात्रि के अंतिम प्रहर में मोबाइल के स्क्रीन पर मम्मी का नाम चमकना....
दुबारा फोन करूँ या ना करूं सोचते रात फिसलती जा रही थी, कि बस पौ फटने के पूर्व फिर फोन बज उठी,
“हेमा-हेमा, मुझे यहाँ से ले चलो.....”, मम्मी की बेहद क्षीण और कमजोर स्वर ने हेमा को द्रवित कर दिया.
“हां, माँ मैं आती हूँ तुमको लेने. पर हुआ क्या? हेमंत कहाँ है? तुम हो कहाँ?”, हेमा ने घबराते हुए सवालों पर सवाल चढ़ा दिया.
“कल रात आशा का बेटा डेढ़ वर्षों के बाद लौटा तो फ्लैट का दरवाजा अंदर से बंद था. अंदर आशा की कंकाल पड़ी थी बिस्तर पर. मुझे नहीं मरना ऐसे अकेलेपन की मौत. मुझे नहीं मरना...”,
मम्मी बोले जा रही थी.
    कुछ ही देर में हेमा सुधीर के साथ मम्मी को लेने मुंबई जा रही थी, हमेशा के लिए अपने साथ रखने. उधर टीवी चैनलों पर आशा साहनी की मौत की खबर देश में सनसनी फैलाये जा रही थी.







 







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