बदलते पापा
"फोन का बिल देखा है?",
घर में घुसते ही इनकी नज़र लैंडलाइन फोन के बिल पर पड़ चुकी थी।
उफ़! छुपाना भूल गयी।
मालूम था ही ये नाराज होंगे इतना लम्बा चौड़ा बिल देख कर। कुछ साल पहले कमोबेश हर घर में फोन के बिल को ले कर महाभारत मचती थी कि किसने किसको कितना फोन किया था। ये पूरा का पूरा बेटी से अत्यधिक बातें करने पर आने वाला बिल था जो हाल ही में हॉस्टल गयी थी और वहां एडजस्ट नहीं हो पा रही थी सो हर दिन उसका मुझसे रोना गाना देर तक चलता।
"दिन भर उसके साथ फोन पर लगे रहने से तुम उसका नुकसान ही कर रही हो। उसे वहां घुलने मिलने दो, नए दोस्त बनाने दो",
इन्होंने मुझे समझाते हुए कहा था।
बिलकुल दुश्मन ही लगे थे तब ये मुझे कि हम माँ बेटी को बातें भी नहीं करने देते हैं।
"अब मैं आपकी तरह इतना संछिप्त वार्तालाप नहीं कर सकती हूँ वो भी बेटी से",
मैंने कह तो दिया पर फिर ध्यान रखने लगी कि फालतू बातें न हो। धीरे धीरे बेटी नए माहौल में ढलने लगी और कुछ महीनों में रम गयी अपनी पढ़ाई और नए दोस्तों संग। फिर आ गया मोबाइल फोन, अब ये तो पल पल हर पल ब्योरेवार बातचीत का जरिया बन गया घर घर में। पर हमारे घर ये न चला। बिल्कुल हिटलर ही लगते जब ये कहते कि काम की बातें करों सिर्फ, यदि वह अपनी परेशानी कहे सलाह मांगे तभी दो।
अब इनका कहना था कि शादीशुदा बच्चों की गृहस्थी में ज्यादा टांग नहीं घुसाना चाहिए। ज्यादा देर तक बात करोगी तो फालतू बातें ही होंगी। मुझे लगता कि पिता कितना कठोर होते हैं, बेटी की नई नई शादी हुई है और ये ऐसा विचार रखते हैं कि कम बातें करों ताकि उसकी गृहस्थी में हमारी दखलअंदाजी न हो।
समय गुजरता गया बेटी विदेश में नौकरी करने लगी। मैं देखती अब विदेश जा बसी बेटी के प्रति इनकी उत्सुकता और बेचैनी को। उन दिनों जब वह माँ बनने वाली थी इनकी फ़िक्रों को ठाठें मारते मैं महसूस करती थी। जब मैं बातें कर रही होती तो सामने बैठ सब कुछ सुन लेने की उत्सुकता को मैं भांपने लगी थी। अब बेटी का फोन आता तो मैं जानबूझ कर फोन नहीं उठाती, हट जाती उधर से। मुझे पुकारते हुए ये फोन उठा लेते और बेटी से गप्पें मारने लगते। विषय कमोबेश वही होते जिनपर मैं उससे बातें करती थी।
एक दिन तो मैंने सुना ये गर्भवती बेटी को पौष्टिक भोजन और आराम के महत्व को समझा रहें हैं। मुझे सुखद आश्चर्य हो रहा था क्यों कि एक पिता के अंदर छुपी ‘माँ’ को मैं देख रही थी।
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