बदल रहा है माँ का लाडला गृहशोभा फरवरी द्वितीय
माँ का लाडला बदल
रहा
केस स्टडी – १
सौम्या और शुभम दोनों
कामकाजी हैं. घर में शुभम के वृद्ध पिता जी और एक बेटा भी हैं. परन्तु उनके घरेलु
कार्य निर्विघ्न आसानी से सम्पन्न होते हैं क्यूंकि दोनों मिल कर सारे काम करतें
हैं और घर को सुव्यवस्थित रखतें हैं. शुभम को जरा भी परेशानी नहीं होती है जब कभी
सौम्या टूर या मायके गयी होती है. नतीजा ये है कि दोनों ही अपने कार्यस्थल पर
अच्छा परफॉर्म कर रहें हैं. औरत होने के नाते सौम्या पर कोई अतिरिक्त बोझ भी नहीं
है. सौम्या का कहना है कि दिन भर के बाद हम रसोई में साथ साथ गपियाते हुए सारे काम
निपटा लेतें हैं. वहीँ, शुभम ने बताया कि उसने अपनी कामकाजी
माँ को हमेशा दोहरी जिम्मेदारियों के बीच पिसते देखा था और वह नहीं चाहता है कि
उसकी पत्नी भी वैसे ही जिए.
केस स्टडी-२
हर्षित हमेशा से अपनी माँ का लाडला रहा था. जहाँ उसकी
छोटी बहन दौड़ दौड़ कर उसकी छोटी-मोटी जरूरतों को पूरा करती वहीँ उसकी माँ अपने
लाडले को कभी पका हुआ खाना भी खुद निकाल कर खाने नहीं दिया. नतीजा तो उसके पहली
बार हॉस्टल जाते ही दिखने लगा था जब वह अपना बिस्तर तक नहीं ठीक कर पाता था. कपड़े
धोना और कमरे की सफाई तो दूर की कौड़ी थी. किसी तरह रो-धो उसके पढाई के दिन गुजरे.
शादी के बाद वह हर काम के लिए अपनी पत्नी पर निर्भर रहने लगा. कभी उसकी पत्नी को
कहीं जाना होता तो उसकी हालत ख़राब हो जाती.
पहले अधिकतर और अब भी कहीं कहीं हमारे समाज में
माएं बेटों से घर में कोई काम नहीं करवातीं हैं. ये एक अतिरिक्त स्नेह होता है जो
वे बेटियों से चुरा बेटों पर लुटाती हैं. पर सच पूछा जाये तो ऐसी मानसिकता उन्हें
अपने बेटों का सबसे बड़ा दुश्मन ही बनाती हैं. एक ओर तो वे बेटियों को आत्मनिर्भरता
का पाठ सीखा एक ऐसी शख्शियत के रूप में तैयार करती हैं जो हर परिस्थितियों में सेट
हो जातीं हैं. अपने छोटे-मोटे काम निपटा लेती हैं. वहीँ उनके लाडले बेटे के
हाथ-पाँव फूलने लगते हैं जब उसकी बीवी मायके जाती है क्यूंकि उन्हें तो खाना बनाना
तो दूर खुद निकाल कर खाने भी शायद ही आता हो. ऐसी माएं अपने पुत्रों की दुश्मन ही हुई
न, जो उन्हें निरीह-परजीवी तैयार कर देती हैं.
सुझाव-
वक़्त के साथ सामाजिक ढांचें में भी बदलाव आ रहा है
तो सोच का परिवर्तनशील होना भी लाजिमी है. माएं जब खुद नौकरी पेशा होती हैं तो
बच्चों को चाहे बेटा हो या बेटी आत्म निर्भर होना ही पड़ता है. माएं अब बेटों को भी
हॉस्टल भेजने से पूर्व इतना सक्षम बनाती हैं कि वह अपनी रोजमर्रा के कार्य खुद कर
सके. बेटियों के साथ बेटों को भी रसोई से परिचय कराती हैं. घरेलू कार्य सिर्फ
महिलाओं की ही जिम्मेदारी है ऐसी सोच के साथ व्यस्क हुए पुरुषों के विपरीत वैसे
लड़के हॉस्टल, नौकरी और शादी के बाद घर के कामों में बराबरी
से हिस्सेदारी बंटा समझदारी का परिचय देते है. आज जब दोनों कामकाजी होते हैं तो और
भी जरुरी है कि मिल कर काम निपटाया जाये. इससे आपसी प्यार और सामंजस्य की भावना
बलवती ही होती है.
एक मजे से टीवी देखता रहे और दूजी रसोई-बच्चों में
ही अकेली जूझती रहे तो रिश्तों में असंतुलन और असंतुष्टि ही बढ़ेगी. परन्तु अब
पढाई और नौकरी के लिए घर से दूर जाने वालें बेटों को भी माएं खाना बनाने और घरेलू
बातों के टिप्स देती रहतीं हैं. नतीजन बाद में वे मालिक की जगह एक हमदम, एक मित्र की तरह अपनी पत्नी से रिश्ता रखते हैं. वो दिन हवा हो रहें जब
महिलाएं घर से बाहर काम करने नहीं जाती थीं तो माँ के लाडले को भी बदलना ही होगा
और ख़ुशी की बात है कि वे बदल भी रहें हैं.
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