वीणा के तार सी जिन्दगी संशोधित, दैनिक जागरण प्रकाशित ०३/०७/२०१७
कहानी-
वीणा के तार सी जिन्दगी
अनमना सा आकर्ष अपने क्यूबिकल में बैठा हुआ
था. दफ्त्तर के आधे से अधिक लोग जा चुके थे. कुछ दिनों पहले तक आकर्ष भी अभी तक
यहाँ नहीं दिखता वरन दफ्त्तर छोड़ने का रिबन वही काटता था. पर आज कदमों में मानो
पत्थर बंध गए थे, उठ ही नहीं रहे
थे. सच में पत्थर रख दिए ही गए थे - उसके मन, मानस और मर्म पर. बार- बार पुरानी उन्नति का सौम्य मृदुल
चेहरा उसे अपनी ओर खींच रहा था , पर हर बार कमर पर
हाथ रखे, कर्कश शब्दों के बाण चलाता उसका नवीन अवतार
सामने आकर सौम्य उन्नति को परे हटा देता. उसे शादी के पहले के दिन भी याद आ रहे थे,
जब वह दफ्त्तर के बाद देर तक दोस्तों के साथ
घूमता रहता, देर रात
खाने-पीने के बाद घर सिर्फ सोने जाता था. जब से उन्नत्ति मिली, उसने खुद ही दोस्तों से किनारा कर लिया था,
पर उन्नति ने गजब रंग बदला था. बचपन की सुनी वह
कहावत याद आ गयी ‘पान फूल पत्ता,
फिरोजी रंग कच्चा’. कितना भी कीमती हो ये रंग पानी में जाते ही रंग छोड़ने लगता
है. उन्नति और फिरोजी रंग की बचकानी तुलना से उसके अधरों पर एक विद्रूप सी मुस्कान
पसर गयी.
“क्यूँ यार आज घर
नहीं जाना क्या? लगता है भाभीजी
मायके चली गयी हैं?”,
रक्षित ने उसके कंधे पर हाथ रख कर कहा तो
आकर्ष की तन्द्रा टूटी. देखा दफ्त्तर खाली हो चुका है और चपरासी ताला हाथ में लेकर
उसे ही ताक रहा है. उसने घड़ी की तरफ देखा, घड़ी ने भी उसे सीट छोड़ने का ही इशारा किया. उसे घर जाने की हिम्मत ही नहीं हो
रही थी. वह खुद को एक तरह से घसीटता हुआ ही बाहर निकला.
“ओह हाय! आ गए बेबी, पर तुमने जूते क्यूँ नहीं उतारे अंदर आने के पहले?”
“अरे! अरे... अब
बैग भी तुमने सोफे पर ही रख दिया, आज ही धुले हुए
कवर लगाये हैं मैंने ”.
पानी का गिलास
लेकर आती उन्नति ने कहा, उसने एक नजर उन्नति
को देखा और पानी का गिलास उठा लिया।
“उफ़! अब बिना हाथ
धोये तुमने गिलास उठा लिया? हाथ तो धो लो.”
“अच्छा दफ्त्तर तो
छः बजे तक बंद होने लगता है, कहाँ थे तुम अब
तक?”
“कहीं कॉलेज की
पीने वाली आदत फिर से तो शुरू नहीं कर दी?” उन्नति ने एक साथ सारे शब्द बाण छोड़ दिए थे.
... उफ़ आकर्ष क्या
करे इन आवाजों का, उन्नति के एक एक
शब्द मानों कील ठोक रहे थे.
सहसा याद आ गयी वह छुई मुई सी शर्माती हुई
उन्नति जिसे उसने छ: महीने पहले देखा था. रिश्तेदारों की उपस्थिति में या फिर अकेले जब भी वह मिलती, उस के ठहरे हुए परिपक्व व्यवहार से वह बड़ा
प्रभावित होता. वह अपने साथ की तेजतर्रार लड़कियों से बहुत घबराता था. इसीलिए जब
उसे उन्नति जैसी मृदु व अल्पभाषी बीवी मिली तो वह फूला न समाया था. सगाई से हनीमून
तक का समय कुछ यूं गुजरा मानो कोई स्वप्न सलोना अँखियों में पल रहा हो.
अभी दो महीने पहले उसकी शादी हुई थी.
कई वर्ष हॉस्टल में गुजारने के बाद घर का सुख मिला. अपनी नयी नवेली दुल्हन की
सुघड़ता की उसने बड़ी तारीफें सुनी थी, वाकई
उन्नति एक कुशल और सुघड़ गृहणी थी. उसके कचरे के ढेर सदृश्य घर को अपनी जादुई छुअन
से होटल के कमरे जैसा सजा दिया. हर चीज की जगह तय हो गयी, मानो घर न हो दुकान हो.
हर चीज शोकेस में सजी हुई. हर कार्य के नियम बन गए. शुरू में तो सब बड़ा ही अनूठा
लग रहा था, उन्नति जो भी करती वह तारीफों के पुल बाँध देता.
पर जल्द ही आकर्ष को महसूस होने लगा कि उसकी
सुघड़ता कुछ अधिक ही बंदिशे लगाने लगी हैं. उसे लगता ही नहीं कि अपने घर में अपनी
मर्जी से वह कुछ कर सकता है. दिन भर अनुशासन के चाबुक चलते.
लजाती शर्मीली सी लड़की, बीवी बनते ही डिक्टेटर हो गयी थी.
“तुम अभी तक यूं ही खड़े हो,
चाय ठंडी हो रही है”.
“देखो आज मैंने एक नया डिश बनाया है, चख कर
बताना...”
“आज मम्मी का फोन आया
था...”, उन्नति बोले जा रही थी.
उसके नए डिश और मम्मी पुराण
से आकर्ष बड़ा घबराता था. अगले ही पल वह अपनी शादी शुदा जिन्दगी का पहला झूठ बोल
रहा था,
“बेबी, मुझे अचानक ऑफिस के काम से दिल्ली भेजा जा रहा
है. लौटने का निश्चित नहीं है, जाने कितने दिन लगेंगे. सॉरी बेबी, मुझे बस तुरंत
ही निकलना है”, बोल आकर्ष ने एक लम्बी सांस लिया.
“इसी से मैं कपडे नहीं बदल
रहा था, प्लीज अब एक ब्रीफ़केस तैयार करने में मदद कर दो”, आकर्ष अब नि:संकोच बोल
रहा था. जल्द ही वह कुछ जरुरी सामान ले निकल गया. टैक्सी में बैठते हुए उसने उलट
कर देखा, उन्नति कुछ विस्फारित भाव से उसे जाते हुए देख रही थी.
“बाय, बेबी लव यू”, का
जुमला उछालता वह चल पड़ा.
...“हूँ, काहे का ‘बेबी’
यार? हिटलर बोलो हिटलर!!
पर ये भी बोलना पड़ता है. किसी ने शादी के वक़्त
ज्ञान दिया था अन्यथा गंवार समझे जाओगे”, मन ही मन ये सोच वह मुस्कुराने लगा.
अच्छा हुआ शहर के किनारे इस होटल में चला आया, नहीं तो अभी सुनता रहता,
“कैसी सब्जी लाये हो, टमाटर
लाल नहीं हैं बैंगन गोल नहीं है”
“उफ़ तौलिया बिस्तर पर रख
दिया, नल टपकते छोड़ दिया....”
उन्नति भले घर में ही थी पर उसके मर्मान्तक
शब्द आकर्ष के साथ ही टैक्सी में आ गएँ थें. उसने हथेलियों को कानों पर कस कर धर लिया,
पर पत्नी उवाच उंगलियों के पोरों से भी प्रवेश करने की जद्दोजहद में लगी हुईं थी.
इण्टरकॉम पर उसने कुछ खाने का आर्डर दिया, जब
तक वह आता तब तक आकर्ष पूरे कमरे में अपने सामान को विस्तारित कर चुका था. उसने
जूता खोला और हवा में लहरा दिया, जो दीवाल से टकराते हुए साइड टेबल पर रखे लैंप को
गिराते हुए वहां विराजमान हो गया. कुछ ही देर में उसकी शर्ट बेड के नीचे जूठे
बर्तनों के साथ गुफ्तगू कर रही थी और तकिया कार्पेट पर गिरा हुआ था जिस पर दूसरा
जूता मोजों संग मौज कर रहा था. कोई मनोचिकित्सक होता तो उसके व्यवहार को देख समझ
जाता कि वह अपनी भड़ास निकाल रहा है. आधी रात को जब नींद खुली तो खुद को सोफे पर
पाया और टीवी को फुल वॉल्यूम में. टीवी बंद कर सोने चला तो देखा बिस्तर पर जगह ही
नहीं है, अखबार, तौलिया, चाय का कप, उसका ब्रीफ़केस और कंप्यूटर सब आराम से गहरी
नींद में पसरे हुए हैं वहां. वह वापस फिर सोफे पर ही उकडू हो पड़ गया.
दूसरे
दिन देर तक सोता रहा, दिन भर कमरे जो मन आया करता
रहा. दो दिन आकर्ष
यूं ही अपनी आजादी का जश्न मनाता रहा. तीसरे दिन उसे खुद लगा कि वह क्या कर
रहा है, उठ कर उसने अपना सामान
समेटा, काउंटर पर फोन कर कमरे की सफाई का
निर्देश दिया.
अब उसे एक खालीपन महसूस
होने लगा, सच अब उसे पत्नी की याद सताने लगी थी, बेचारी
दिन भर घर के काम में ही
तो लगी रहती है. शादी से पहले वह एक अच्छे विदेशी फर्म में दो साल नौकरी कर चुकी
थी, पर नौकरी
न करने की आकर्ष के
आदेश को उसने सर आँखों ले पूरी तरह खुद को घर में झोंक दिया था. अब वाकई उसका सारा
गुस्सा विक्षोभ बह चुका था और उन्नति की याद जोरो से आ रही थी.
बीवी को सरप्राइज देने के ख्याल से उसने बताया भी
नहीं कि वह आ रहा है. काल बेल बजने पर थोड़ी देर में दरवाजा खुला, आँखे मलती हुई उन्नति
उनींदी सी सामने थी,
"अरे वाह! बताया नहीं कि आ रहे हो?", हकलाते
हुए उसने कहा.
पर सबसे
चौंकाने वाली बात थी घर की हालत, पूरा घर और उन्नति स्वयं, अस्त-व्यस्त
और बेतरतीब ……
थोड़ी देर बाद ही दोनों जोरो
से हँस रहे
थे. इस नव खुलासे के बाद कि वह भी उसकी ही तरह बेपरवाह और मस्त है, जिंदगी को खुला छोड़ खुश
रहने वाली, आकर्ष की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था. शादी के वक़्त उन्नति की बुआ, चाची, मौसी इत्यादि ने
उसे समझा दिया था कि पति और घर दोनों को बिलकुल कस कर अनुशासन की चाबुक से
बांध कर रखनी चाहिए और उसी को करने की वह कोशिश कर रही थी. वास्तव में वह भी छद्म
रूप जीते हुए इन दो महीनों में थक गयी थी, सो उसके दिल्ली जाने की सुन
सारे नियम कानून बंधन तोड़, थोडा रिलैक्स
करने लगी.
सच है ना
जिन्दगी वीणा की तार की तरह ही होती है, इतना भी ना कसो कि टूट जाये
और इतना भी ढीला ना छोड़ो कि तरंगित ही ना हो.
……अब दोनों अपनी तरह से अपनी गृहस्थी की गाडी हांकने लगे, ख़ुशी-ख़ुशी. आकर्ष के घर
में प्यार का रंग और चटकीला होता जा रहा था क्यूँकि अब उन्नति भी अपनी पुरानी
नौकरी पर जाने लगी थी और घर के काम ?
…… वो दोनों मिल कर निपटा लेते भले ही गीला तौलिया
बिस्तर पर ही रह जाता या कभी नल टपकता रह जाता, पर प्यार और आपसी समझदारी
के आगे ये छोटी बातें दिखती भी नहीं थी.
शब्द संख्या- १४९७
मौलिक व् अप्रकाशित
द्वारा,
रीता गुप्ता (RITA GUPTA)
फ्लैट नंबर ५, मञ्जूषा बिल्डिंग
इंडियन स्कूल के पास, छोटे अतरमुड़ा
रायगढ़, छत्तीसगढ़-४९६००१
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