तो क्या मुझे डरना चाहिए ? पब्लिश हुआ इडिया टुडे के ऑनलाइन प्लेटफार्म आई चौक और हिंदुस्तान के एडिटोरियल पेज पर
तो क्या मुझे डरना चाहिए ?
दिल्ली के ई-रिक्शा चालक,
तीस वर्षीय रविन्द्र को सिर्फ इस लिए पीट पीट कर मारा गया क्यूंकि उसने कुछ लोगो
को सड़क किनारे पेशाब करने से रोका और तो और उन्हें पास के सुलभ शौचालय जाने को
कहा.
मेरी तो आदत है कि मैं टोक देती हूँ लोगो को जब
वे ट्रेन, बस, रेलवे स्टेशन, पार्क या कोई पर्यटन स्थल पर अपनी गंदगी छोड़/फ़ेंक कर
जाने लगते हैं. पुल से पार करते वक़्त शीशा नीचे रखती हूँ कि कोई नदी में कुछ
विसर्जित करता दिख जाये तो मना कर दूं. सुंदर प्राकृतिक मौसमी झरने के पास एक बड़ा
सा ग्रुप पिकनिक मना रहा था तो मैंने पास जा कर सबसे बुजुर्ग महिला से पूछा था कि
वे लोग अपने प्लेट, गिलास और जूठन को यहाँ छोड़ तो नहीं जायेंगे. उस दिन ट्रेन के
वातानुकूलित डिब्बे में मेरे सामने बैठे जनाब देश को गाली देते देते नमकीन भुजिया
का रैपर और चाय का गिलास सीट के नीचे सरकाने लगे तो मैंने कहा कि मुझे दे दीजिये
मैं डस्टबीन में डाल देतीं हूँ. तो जनाब ने झेंप मिटाते कहा कि अभी कुछ और खाना है
तब एक साथ फ़ेंक दूंगा. टहलते वक़्त उस व्यक्ति को मैं खड़े हो कर घूरने लगी थी जो
सड़क किनारे अपनी जिप खोल बेशर्मी से विसर्जित करने लगा था, मेरी सहेली ने मुझे
टोका तो मैंने जोर से कहा भी कि जब उसे शर्म नहीं तो दुसरे क्यूँ कर शर्मिंदा हो.
आज टीवी पर इस खबर के आने के बाद मेरे घरवाले
मेरे लिए चिंतित हो उठे. क्या पता मैं भी कभी जागरूक नागरिक बनने के चक्कर में जान
से हाथ न धो बैठूं. सब मुझे सीखाने लगे कि मैं अपने काम से काम रखूं. राह चलते
लोगो को जागरूक करने की जिम्मेदारी छोड़ दूँ.
स्वच्छता के कितने भी अभियान चलाया जाये यदि
सोच ही गन्दी है तो सब असफल है. कितने बददिमाग लड़के होंगे जो किसी के द्वारा टोके जाने
पर इतने हिंसक हो उठे. सोच कर सिहरन हो रही. कैसे मगरूर और मवाली होंगे जिन्हें
बर्दास्त नहीं हुआ कि कोई उन्हें सार्वजनिक स्थान पर पेशाब करने से रोक दें और
शिक्षा दे कि पास के शौचालय में चले जाएँ. किसी का टोकना उनके अहम् को इतना चोटिल
कर गया कि वे रात को अपने ही जैसे और बततमीजों को ला बेरहमी से उस रिक्शा चालक को
जान से मार दिया.
यही वे लोग हैं जिनके कारण हमारी नालियां
बजबजाती हैं, गलियाँ पेशाब के बदबू से दुर्गन्धित रहती हैं, सड़कों पर कचरा फेंका
रहता है और नए ट्रेन में तोड़फोड़ कर चीजें चुरा ली जातीं हैं. दुखद है ये मानसिकता,
दुखद है ऐसी प्रतिक्रियाएं. शायद सडकों पर दिवस विशेष को झाड़ू लगाना और पोस्टर
लगाने से बात नहीं बनेगी. वास्तव में तो गंदगी सोच में हैं, जाने वो कैसे और कब
साफ़ होगी?
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