बोनसाई के जंगल 19 august 2019 दैनिक जागरण
बोनसाई के जंगल द्वारा
रीता गुप्ता
रूही आज फिर फंस गई थी बोनसाई के जंगलों
में। प्यास से उसका गला सूख रहा था, रूही ताजी हवा
के लिए तरस रही थी। सांसें बोझिल हो रहीं थी, कदम लड़खड़ाने लगे थे। धुआं – धूल से मानों दम घुटता सा महसूस हो रहा था;आँखों में जलन हो रही थी। फिजा में घुला भारीपन सीनें में
जलन बन बरछियाँ चुभो रही थी। जंगल बोनसाई का ही था नाम मात्र की पत्तियाँ थी और
टहनियाँ छोटी व घुमावदार।
“नहीं रहना नहीं रहना मुझे यहाँ, उफ्फ कितनी
भीड़ है....”
रूही चिल्लाने की कोशिश कर रही थी पर आवाज गले में ही घुटी जा रही थी मानों।
“रूही रूही ..... उठो उठो.....”
अमय रूही को हिलाते हुए उठाने लगा।
“ओह! अमय अच्छा किया जो उठा
दिया। आज सपने में फिर फंस गई थी उन्हीं बोनसाई के जंगलों में। एकबारगी सपने में
मुझे लगा कि मैं गमले के किनारे से बाहर गिर पंड़ूगी। ”, रूही ने राहत की सांस लेते हुए कहा। जोर से एक गहरी सांस
लेने की कोशिश किया कि खांसी शुरू हो गई।
“दिन में तो बोनसाई की सेवा करती ही हो अब रात में सपनो में भी उन्हीं के साथ
रहोगी?”
अमय ने पानी का गिलास पकड़ाते हुए चुहलबाजी की।
“अमय लगभग एक साल होने को आए तुम्हारे रिटायरमेंट और अपने फ्लैट में शिफ्ट
हुए। पर अब तक खुद को जोड़ नहीं पाईं हूँ। इस दो कमरे के फ्लैट में अभी भी मैं
टकराते चलती हूँ“, रूही ने
अलसाते हुए कहा।
“अब फ्लैट में रहने का आईडिया भी तो तुम्हारा ही था”, अमय ने कहा तो रूही हंस पड़ी।
“पूरी जिंदगी तुम्हारे साथ जंगलों में बिताया था, सो महानगरीय जीवन हमेशा आकर्षित करते थे”
रूही ने कहा तो अमय ने हंसते हुए कहा,
“जंगल हूं! यूँ कहो मेमसाहब बन बँगलों
में रहती थी”
अमय खनन अभियंता था सो हमेशा कार्यक्षेत्र के
नजदीक कंपनी के कालोनी में रहता था। झारखण्ड छत्तीसगढ़ के अंदरूनी इलाकों में ही
उनकी नौकरी/गृहस्थी की शुरुआत हुई और उधर ही पूर्ण भी हुई। शहर के कोलाहल से दूर
प्रकृति के बीच बसी ये कालोनियाँ सर्वसुविधासंपन्न होतीं। बड़ेबड़े बँगलों की
चारदीवारी भी खूब बड़े होते। जहाँ दूसरे अफसरों की पत्नियाँ क्लब, किटी, पिकनिक
इत्यादि पार्टी फंक्शन में व्यस्त रहती वहीं रूही घर, बच्चों और बागवानी में। प्रकृति से उसे अपार प्यार था, जब भी फुरसत पाती अपने बगीचे में ही लगे रहती। मदद के तौर
माली रख लेती पर खुद अपने हाथों से पौधों की कटाई, छँटाई, पानी देना, खाद पानी करना इत्यादि उसे खूब भाता। लान और रंगबिरंगे फूल
तो उसकी बगिया में शोभायमान होते ही पर बड़े वृक्ष खासकर फलदार पेड़ उसे बहुत पसंद
थे। जैसे जैसे बच्चे बड़े होते गए वह अपने घर की चारदीवारी से बाहर भी वृक्षारोपण
में रुचि दिखाने लगी। कालोनी के हर खाली कोने पर रूही अपनी हरितिमा से हस्ताक्षर
कर देती। अपने कुछ ही वर्षों के प्रवास में वह न सिर्फ अपने बँगले बल्कि कालोनी का
भी सौन्दर्यीकरण कर देती।
जब अमय का ट्रान्सफर होता तो रूही
अपने पसंद के पेड़ पौधों का बोनसाई बना उन्हें साथ ले जाती। अमय के पदोन्नति के
साथ साथ रूही की भी एक अलग पहचान बनती गई एक प्रकृति प्रेमी एक पर्यावरणविद के रूप
में। वहाँ होने वाले सरकारी और ग़ैरसरकारी पर्यावरण सॅबधी कार्यक्रमों में भी रूही
की उपस्थिति आवश्यक होती थी।
यूँ ही बीते वक्त को याद करते जाने
कब देर रात दोनों नींद की आगोश में चले गए। अमय ने आँखें खोला तो घड़ी पर नजर पड़ी, ओह! आज तो देर तक
सोता रहा। उठ कर बालकनी में झांका तो देखा कि रूही अपने बोनसाई पर पानी का छिड़काव
कर रही थी। कितनी तन्मयता से वह अपने पौधों के बीच रमी रहती है मानों कोई योगी
ध्यानमग्न हो। सुबह की प्रदीप्त किरणें उसके चेहरे को सुदीप्त बना रहीं थी, हालांकि रात्रि जागरण की हल्की क्लांत प्रतिच्छाया भी अपना
असर आज दिखा रही थी। परन्तु 55-56 की वय में भी
रूही के चेहरे की लुनाई तरुणियों को टक्कर देने का रुआब रखती है। इसका कारण उसका
प्रकृति प्रेम और प्रकृति संसर्ग ही है। पर्यावरणीय प्रदूषण से अब तक जीवन अछूता
जो रहा था। अमय के कितने साथी जिन्होंने शहरों महानगरों में नौकरी किया है आज विभिन्न
बीमारियों से घिरे परेशान रहते हैं वहीं अमय को अभी तक रोगबीमारियाँ छू तक नहीं पाईं
हैं।
“गुड मार्निंग, आज तो देर तक
सोते रहे, देखो मैं टहल कर भी आ गई“, रूही ने मुस्कुराते हुए कहा।
“गुड मार्निंग, कैसे हैं
तुम्हारे ये नन्हे बच्चे? बरसात आ गया है
पर गमले में अभी भी आम आ रहें हैं, वाह”, अमय ने आम के बोनसाई पेड़ को पुचकारते हुए कहा।
“बोनसाई का
जीवन बड़ा कठिन है, मुट्ठी भर माटी में लहलहाना भी है और बढ़ना भी
है। हरे भी रहना है और खड़े भी। जैसे ये बहुमंजिले इमारतें और इनमें बनें
ये दड़बो से घर। मानों बस सर ही छिपाने का मकसद है, न आँगन न छत, न बाग
न बगीचा। न पाँव धरती पर टिकी है और न ही आसमान का खुलापन“
रूही के स्वर से अवसाद छलकने को आतुर था।
“इन बोनसाइयों को देख लगता है अपने पुराने कालोनी
के कोने में खड़े उस विशाल बरगद की आत्मा को मैंने इसमें बाँध दिया हो। मानों सिर्फ
जीना ही मकसद है, न मनचाहा फैल सकतें हैं न फूल। बस अश्वत्थामा बन रहना है“, रूही ने चाय का प्याला बढ़ाते हुए
कहा।
“मैं समझ रहा हूँ
ऐसा तुम्हें खुद के लिए भी महसूस होता है, धरती से दस माला ऊपर इस फ्लैट को तुम
आजतक घर नहीं बना पाई हो। जंगलों में कुहुकने वाली मेरी मैडम की हंसी कंकरीट के इन
जंगलों में दम तोड़ रही है। अब शहर में रहने की कुछ कीमत तो अदा करनी होगी न? फिर बंगला खरीदने की कीमत क्या हम अदा कर पाएंगे, तुम क्या अब बड़े बगीचों में पहले की तरह काम कर पाओगी?”,
अमय ने संजीदगी से कहा।
“जैसे किसी परिंदे को पिंजरे में कैद कर लिया जाए वैसे ही इन बौने वृक्षों को
देख कर लगता है। मुझसे शायद भूल हुई है जो धरती की गहराई और आसमानी खुलापन इनसे
छीन लिया है। उसकी सज़ा मुझे महानगरीय जीवन शैली की इस फ्लैट संस्कृति में रहने की
मिली है”,
रूही के दिल की बात जुबां पर आ ही गई।
“अरे इतना सेंटी न हो चलो सब बेचबाच कर वापस उन्हीं जंगलों में एक पर्णकुटी बना
कर रहा जाए”, अमय ने हँसते हुए का।
“अरे रहो न कुछ साल और, वो सामने वाले
पार्क में मैं इतने दिनों से जो लगी हुई हूँ उसको फलते फूलते तो जरा देख लूँ। अब
जा कर तो कुछ नये वृक्ष अंकुरण दिखने शुरू हुए हैं। मैं कल्पना करती हूँ कि एक दिन
पार्क की हरियाली इतना आक्सीजन तो बनाने लगेगा ही कि आसपास के लोगो की आवश्यकता
पूरी कर सके”,
रूही ने चाय की चुस्की के साथ एक
गहरी सांस लिया। अपने टैरेस गार्डन में वह कम से कम अपने और अमय के लायक आक्सीजन
बनाने की कोशिश तो कर ही रही थी। समीपस्थ पार्क सिर्फ कहने भर को पार्क था, नाममात्र के कुछ पेड़ और उजड़े से लान के बीच टहलने का
पाथवे। पिछली बरसात ही उसने ढेर सारे पेड़ पौधों को लगवा था वहाँ के माली से कुछ
अपने खर्च से तो कुछ अन्य लोगो की मदद से। उसको अकेले पार्क के लिए परेशान देख कुछ
और भी प्रकृतिप्रेमी जुड़ गए थें। कुछ मार्निंग वाकर्स व अमय के साथ वह अपने वार्ड
के पार्षद से भी पार्क के जीर्णोद्धार हेतु बार बार मिलने जाती थी।
जीवन हरियाली के बीच हो या प्रदूषण
के, समय तो पंख लगा फुर्र होता
ही है। धीरे धीरे पार्क के प्रति उसकी दीवानगी रंग लाने थी। कम से कम लोग गंदगी
नहीं फैलाते थे अब। वहाँ आने वाले बच्चों से मदद लेने में भी रूही संकोच नहीं
करती। अपनी सोसाइटी की लेडीज क्लब, किटी और
कीर्तन मंडली की वह आज भी मेम्बर नहीं थी पर पार्क जीर्णोद्धार के लिए रूही ने
अवश्य कुछ समविचारों की मंडली तैयार कर ली थी। अब दो वर्ष बीतने को थे, इस बीच वह विभिन्न सरकारी महकमों के चक्कर काट चुकी थी। घर
के पास वाला पार्क रूही के हरित हस्ताक्षर से युक्त बाखूब हवाओं को शुद्ध करने लगा
था।
उस दिन रूही और अमय अपने टैरेस
गार्डन में बैठे बातें कर रहें थें कि फोन की घंटी बजी। बात कर अमय उछल पड़ा,
“रूही तुम्हारे लिये खुशखबरी है, कमिश्नर के
आफिस से फोन आया है कि तुम्हें नागरिक सम्मान समारोह में सम्मानित किया जाएगा और
साथ ही साथ इस वार्ड के अन्य पार्कों के जीर्णोद्धार हेतु बड़ा फंड आवंटित किया
गया है जिसकी जिम्मेदारी तुमको ही निभाने का अनुनय किया जा रहा है “,
अमय ने फोन बढ़ाते हुए कहा। रूही के चेहरे की मुस्कान फैलती ही जा रही थी।
“रूही चलना है वापस जंगल पर्णकुटी में रहने?”, अमय ने चिढ़ाते हुए पूछा
तो रूही हँस पड़ी।
“नहीं नहीं अभी तो मुझे यहीं अपने शहर में जंगल उगाना है और देखो तुमने गौर
किया कि बोनसाई के जंगल अब मुझे नहीं डराते हैं “
(एक सत्य अनुभव से प्रेरित)
मौलिक व अप्रकाशित
मेरा पता
RITA GUPTA
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