काँटों से खींच कर ये आँचल - सखी दिसम्बर २०१७ में प्रकाशित हुई - "और फिर अँधेरा छटने लगा " के नाम से



और फिर अँधेरा छटने लगा 
“काँटों से खींच कर ये आँचल”
  क्षितीज पर सिन्दूरी सांझ उतर रही थी और अंतस में जमा हुआ बहुत कुछ जैसे पिघलता जा रहा था. मन में जाग रही नयी-नयी ऊष्मा से दिलों दिमाग पर जमी बर्फ अब पिघल रही थी. एक ठंडापन जो पसरा हुआ था अंदर तक कहीं दिल की गहराइयों में, ओढ़ रखी थी जिसने बर्फ की दोहर, आज स्वत: मानों गलने लगी थी. मानस के नस नस पर रखी शिलाएं अब स्खलित होने को बेचैन थीं. भले जग का सूर्यास्त हो रहा हो पर मेरे अंदर तो उदित होने को व्याकुल हो उठा था. एक लम्बी कारी ठंडी उम्र का कारावास मैंने झेला था, अब दिल में उगते सूरज को ना रोकूंगी. अंतस के तमस को चीरते आदित्यनारायण को अब बाहर आना ही होगा.
       धूल उड़ाती उसकी कार नज़रों से ओझल भले ही हो चुकी थी, पर लग रहा था वह सर्वविद्यमान है. अपनी समस्त भौतिकता समेट वह जा चुकी थी पर ऐसा क्या छोड़ गयी थी कि उसका होना मुझे अभी भी महसूस हो रहा था. चुनने लगी मैं सजगता से, यहाँ – वहां बिखरी हुई उसको. चुन चुन मैं सहेजने लगी. कितना विस्तृत था उसका अस्तित्व, भला मैं कितना समेटती. जितना मैं चुन सकी उसको, अपनी गोद में रख मैं बुनने लगी-गुनने लगी. मन कर रहा था कि फिर उसे अपने गले लगा लूँ. प्यास बुझती ही नहीं, वर्षों की अतृप्त बंजर दिल पर पहली बार तो मानों रिश्तों की ओस पड़ी थी. इस स्वाति प्रभा ने दिल मन मस्तिष्क सब आलोकित कर दिया था.
“अरे तुम बाहर क्यूँ बैठी हो और रों क्यूँ रहीं हो?”,
इन्होने आ कर कहा तो मैं चौंक गयी.
“आप कब आये, मुझे पता ही नहीं चला?”, मेरे आंसू बह रहें थे और मुझे भान ही नहीं था. वास्तव में आंसू सिर्फ खारा पानी नहीं होतें हैं, ये तो मन के अबोले शब्द होतें हैं. रंगविहीन होते हुए भी कभी इन्द्रधनुषी तो कभी कालें रंग समेटे ह्रदय का दर्पण बन टप से चू जातें हैं अंतस किरणों सी.
“अच्छा-अच्छा घर पहुँच गयी, बढ़िया है आराम करो अब”, ये फोन पर बोल रहें हैं लगता है इनकी बेटी अपने घर पहुँच गयी.
’इनकी’..... क्या वाकई सिर्फ इनकी ही बेटी?
जा कर मैं लेट गयी पलंग पर. मन और देह दोनों भारी लग रहें थें. तभी दरवाजे पर खड़े रामसिंह ने तन्द्रा भंग की,
“सूप ले आया हूँ, दीदी जी बोल कर गयीं है कि ठीक आठ बजे आपको मिक्स वेजिटेबल सूप जरूर पिला दूँ”
“लाइए दीजिये यहाँ”, रामसिंह से सूप ले मैं पीने लगी, कनखियों से मैंने देखा ये हमेशा की तरह अपनी स्टडी रूम में व्यस्त हैं और अपने फाइल के पन्ने पलट रहें हैं. पन्ने फाइल के पलटे जा रहें हैं और मन मेरा.
    कैसी उजड़ी चमन की मैं फूल थी. क्या अतीत रहा है मेरा क्या जीवन था, मानों तप्त रेगिस्थान में उगे कैक्टस. निर्जन बियावान कंटीली निरुद्देशय जीवन. अकेला, बेसहारा, अनाथ मैं और अकेलापन मेरी साथी मेरी हमदर्द. शायद गोद में ही थी जब एक सड़क दुर्घटना में अपने पापा और भाई को मैंने खो दिया. माँ की साड़ी के तहों में छिपी मैं बिना खरोंच जिन्दा बच गयी. माँ कुछ महीनों कोमा में जिन्दा रहीं, शायद मुझे अपना जीवन रस पिलाने हेतु ही. अचेतावस्था में भी माँ मुझे हॉस्पिटल में दुग्धपान कराती रहीं. पापा सरकारी नौकरी में थे सो माँ का इलाज़ होता रहा. मेरे चाचा जी ने खूब सेवा किया था उनकी, जैसा चाची बताती रहतीं. मुझे तो अभी लगता है कि सेवा की जगह उन्होंने अवश्य उनकी जीवन रक्षक सिस्टम को नुकसान पहुँचाया होगा, क्यूंकि पापा के बाद माँ ही होती उस सरकारी नौकरी की हक़दार. जिसे बाद में चाचा जी ने हासिल किया था. वो तो सरकारी काम था कि उन्हें सात-आठ साल लग गए उस मुवावजे वाली नौकरी को हासिल करने में. इस बीच मैं कम से कम जिन्दा रही उनके घर( जो दरअसल मेरा ही था). मेरे ही चेहरे को दिखा तो उन्होंने हासिल किया था उस नौकरी को. 
  इतने साल एक कुत्ता भी पाल लो तो उससे प्यार हो जाता होगा परन्तु अपने प्रति मैं क्षणांश भी लगाव जागृत नहीं करा पाई, चाचा-चाची के दिल में. “मनहूस और अभागी” के जितने भी पर्यायवाची होते होंगे, उन्हें ही सुन सुन मैं जीती रही. जाने कितनी जीवट थी मैं जो हवा-पानी सहारे -अधभूखे पेट भी मैं पल्लवित पुष्पित ही होती गयी. जाने माँ ने कौन से आँचल में मुझे संभाल छोड़ा था कि रोग बीमारी भूख, प्यास, दुत्कार मुझे छू भी नहीं पातें.
  यूं वक़्त गुजरा मानों एक जन्म बीता हो. जिस सरकारी दफ्त्तर में मेरे पापा कार्यरत थे उसके ही स्कूल कॉलेज में पढ़ती मैं जंगली लता सी खुद-ब-खुद बिना खाद पानी के बढती रही. फिर पच्चीस की आयु में मुझे पचास के एक विधुर संग विदा कर दिया गया. यूं जिन्दगी ने मानों एक राहत की सांस ली. एक नया अद्ध्याय शुरू हुआ,
     अब कम से कम मुझे यहाँ इज्जत की रोटी, कपडा और मकान मुहैया हो गयी. पर इंसानी फितरत भी अजीब है, पेट भरते ही दूसरे भूख सर उठाने लगतें हैं. जिन की हाथ को पकड़ मैं जीवन के काले अद्ध्याय को पार कर एक नए सुनहरी प्रभात की ओर कदम बढाया था, मैं उनकी दूसरी पत्नी थीं. एक बेहद ऊँचें पद पर स्थापित मेरे पति धीर, गंभीर और गरिमामय व्यक्तित्व के स्वामी हैं. उन्होंने मुझे शुरू में ही कहा,
“अनुभा, तुम मुझसे बहुत छोटी हो लगभग मेरी बेटी की उम्र की. तुमको शायद मालूम होगा कि मेरी पत्नी सुलभा कुछ वर्ष पहलें दोनों बच्चों को छोड़ किसी दूसरे संग ब्याह रचा जा चुकी है. गृह त्याग के साथ उसने तलाक हासिल करने हेतु जो विषाक्त लांछनों के तीर छोड़ें थें उनके शर आज भी मर्मान्तक पीड़ा देतें हैं. मैं नहीं चाहता था कि तुम जैसी कम उम्र की लड़की से ब्याह करूँ परन्तु जब तुम्हें देखा तो मुझे तुम्हारी गाम्भीर्य और परिपक्वता ने आश्वस्त किया कर दिया.”
“रेगिस्तान में उगे किसी कैक्टस की ही भांति मेरा जीवन शुष्क और कंटीला है. संभल कर रहना अनुभा कहीं मेरे कांटे तुम्हें भी जख्मी ना कर दें”,
इन्होने कहा तो मैं चौंक गयी कि कैक्टस पर मेरा सर्वाधिकार नहीं है.
वे बोल रहे थें और मैं सोच रही थी कि इससे पहले किसने मुझसे इतनी आत्मीयता से बात किया होगा. उन्होंने मेरा हाथ थाम लिया और विनीत हो कह उठे,
“मेरी बिखरी गृहस्थी को समेट लो, मैं अब थक गया हूँ तुम अब संभाल लो. सुलभा के जाने के बाद मैंने अपना तबादला उस जगह से करा लिया. नहीं थी मुझमें इतनी हिम्मत कि लोगो के सवालों के जवाब दूँ”
 ‘इनकी’ बड़ी बेटी दीक्षा की शादी कोई चार वर्ष पूर्व उसकी मर्जी से ही हुई थी. छोटा बेटा अक्षित, कोटा में मेडिकल की तैयारी कर रहा था.
“दीक्षा नाराज ना हो, मैं क्या करता? अकेलापन मुझे जीने नहीं दे रही थी. मैंने तो तुम्हे बताया ही था. माफ़ कर दो बेटा ....इसी शहर में होते तुमने छ महीनों से इधर का रुख नहीं किया.... ये तुम्हारा घर है बेटा....”, मैं इनकी कैफ़ियत सुनती रहती.
     पर शायद मैं एक अहसास शून्य जीवन की आदि हो गयी थी. न किसी से लगाव न किसी से कोई नाराजगी. वक़्त गुजर रहा था, धीरे धीरे मैं इनकी ऑफिस की सपरिवार पार्टियों में जाने लगीं. बड़ा ही अटपटा लगता अन्य महिलाओं के बीच मुझे. मैं ज्यादातर चुप ही रहती. भला उनके बाल-बच्चों वाले प्रिय विषय पर मैं क्या बोलती. अपने बच्चों की शैतानियाँ, उनकी पढ़ाई-शादी  की फ़िक्र आदि उनके प्रिय विषय होतें. फिर एक दिन ऐसी ही संगोष्ठी में किसके बच्चे को क्या पसंद है, पर महिलायें बात कर रहीं थीं. सबकी सुनते सुनते जाने कैसे मेरे मुंह से निकल गया,
“मेरे बेटे को तो गुलाब जामुन बेहद पसंद हैं पर बेटी तो चाट-पकौड़ियों की शौक़ीन है”
...और सच मैंने पहली बार उनके सानिद्ध्य को एन्जॉय किया. देर तक मेरे ही बोले शब्द ‘मेरा बेटा और मेरी बेटी’ गूंजते रहें मन में. एक स्नेह बंधन का नवान्कुरण होता सा महसूस हुआ. हां, सच मैं तो इन बच्चों की वैधानिक माँ ही हूँ. उस दिन पहली बार धरती से मानों एक नाल के जरिये जुड़ाव की अनुभूति हुई. दुनिया में मैं हूँ इस बात का एहसास अब सुखद लगने लगा.
“रविश ऐसा कैसे कर सकता है, उसने आज फिर तुम पर हाथ उठाया? उसकी माँ ने तुम्हे ऐसा क्यूँ कहा...?”, दीक्षा से बात करते हुए ये बेबस हुए जा रहें थें.
कुछ सवालों के बौछार आने लगी मन की खिडकियों से, कोई शब्द आ कर कानों में देर से शोर मचा रहा था, ‘माँ..माँ..माँ .. ‘ मैं सुन के चकित प्रसन्न, बढ़ कर इनका हाथ थाम लिया.
फिक्र ना करें, मैंने कुछ ऐसा ही कहना चाह था बिना लब खोलें.
“चलिए हमें दीक्षा के ससुराल जाना है, मैं अपनी बेटी को अब और दुखी नहीं छोड़ सकती”,
आश्चर्य से इनकी आँखे फैल गयी थी, अब तक अकेले ही जाते रहें थें. मैं सिर्फ गयी ही नहीं बल्कि उसकी सास और पति को ये जता कर आई कि हमारी बेटी हमारे लिए कितनी महत्वपूर्ण है. दरअसल हम बिना बोलें ही उसकी ससुराल की देहरी पर पहुंचें ही थे कि उन अवांछित बोलों से हमारा सामना हुआ जो दहलीज पार कर आ रहें थें. लब्बोलुआब यही था कि वे दीक्षा को बाँझ कह कोस रहें थें. उसकी भाग गयी माँ को ले अनाप-शनाप बोल रहे थें, उसके पिता की दूसरी शादी को ले खिल्ली उड़ा रहें थें. मैंने आगे बढ़ दरवाजे के भिडके हुए चौखट को अनावृत कर दिया, साथ ही अनावृत हो गयें  उनके कलुषित भाव. कोने में अपराधिनी सी खड़ी दीक्षा भौंचक सी हो गयी और मैं आगे बढ़ उसके गले लग गयी. हतप्रभ सी दीक्षा पीठ पर सहानुभूति का मरहम पाते ही मानों पिघल गयी. उसके आंसू मेरे ब्लाउज भिंगोने लगे. माँ बनने पर अमृत रस से स्त्रियों के ब्लाउज भींगते सुना था पर आज सच नम होता मेरा पीठ ही मुझे मातृत्व का वह एहसास दे गया. उसी क्षण मुझे अपनी समवयी पुत्री के जन्म का अनुभव हुआ.
“मैं दीक्षा को कुछ दिनों के लिए अपने साथ ले कर जा रहीं हूँ, जब इसे बेहतर महसूस होगा तभी ये वापस आएगी”, बोल मैं उसके हाथ को पकड़ निकल आई,
कार में सारे रास्तें उसे अपनी बाहों में ही मैं भरी रही, मेरी गोद उसके अश्रुओं से सिक्त होते रहें. घर पहुँचते पहुँचते वह बहुत रों चुकी थी और शायद कई दिनों से उसके मन में काई लगी रिश्तों की सड़ांध, ढेर लगा संकुचित पड़ी थी जो दृग-द्वार से विदा लेने को उत्सुक थीं. घर पहुँचते-पहुँचते  उसका पुलकित हो मुस्कुराना उसके पापा और मुझे दोनों को राहत दे गया. मैं अब उसके साथ ही लग गयी, मुझे उसका सानिद्ध्य और व्यक्तित्व बड़ा ही शालीन और प्रभावशाली लग रहा था. दूसरे दिन देर तक सोती रही, सोने से पहले उसने मुझे बताया था कि वह कितनी रातों से सो नहीं पाई है क्यूंकि रवीश बच्चा हो इस खातिर उसकी इच्छा  के विरुद्ध लगातार हिंसक शारीरिक- प्रताड़ना पर उतारू हो गया था. अपने शरीर के कई हिस्से उसने मेरे सामने उघाड़ रविश की जुल्मों से परिचय कराया. सुबह नाश्तें के टेबल पर जब उसने टिकिया-छोले और पकौड़ियाँ देखीं, तो मैंने देखा उसके नयन फिर छलक रहें थें. मेरे हाथों को अपने हाथ में ले कर उसने कहा,
“मैं आपको क्या कहूँ ? उम्र से आप सहेलीं हैं पर ....”, उसका गला रूंध गया.
“ना सहेलियां तो तुम्हारी बहुत होंगी मैं सिर्फ तुम्हारी माँ हूँ”, मैंने उसके प्लेट में चटनी डालते हुए कहा.
“जानती हैं मेरी माँ को मेरे पापा बिलकुल पसंद नहीं थें शायद हमदोनों भाई-बहन से भी इसलिए उन्हें लगाव नहीं था. जब से होश संभाला था उन्हें हमेशा उस महेश अंकल के ही साथ प्यार से बातें करतें सुना था. मैंने आज तक उनकी बनाई कोई डिश खाई ही नहीं है”, दीक्षा फिर उदास हुए जा रही थी.
“दीक्षा सुनो ना, मुझे अक्षित से मिलना है. क्या तुम मुझे कोटा ले कर चलोगी? अभी वह बारहवीं में है उसे अभी परिवार के सहयोग और विश्वास की अत्यंत आवश्यकता है”. मैंने पूछा. अभी तक मुझे उसने देखा भी नहीं था और मैं नहीं चाहती थी जीवन के इस महत्वपूर्ण पड़ाव पर उसकी पढ़ाई और करियर पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ें मेरे लिए मन में चल रहे किसी दुर्भावना से.
अगले दो दिनों में हम कोटा पहुँच चुके थे. दीक्षा ने तो मुझे स्वीकार कर लिया था अब अक्षित मुझे अपना लें तो मुझे अपनी सार्थकता पर थोड़ी विश्वास हो. मुझे अंदर से इनकी माँ, सुलभा पर तरस आ रहा था कि अभागी ने बच्चों से अधिक किसी और को तरजीह दिया जीवन में. सच माता कुमाता भी हो सकती है. पर एक विमाता ऐसे कैसे सोच सकती है, जाने क्या मजबूरियाँ थी उसकी. यूं विचारों में तल्लीन हम अक्षित के हॉस्टल पहुँच चुके थे. जाने अचानक मुझे देख उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी ये सोच मैं ने दीक्षा को कहा कि वह उसे ले होटल में ही आये जहाँ हम ठहरें हैं. फोटो में मैंने जैसा देखा था उससे भी और लंबा सा छरहरा और मासूम सा लगा मुझे. चेहरा कुछ उतरा हुआ भी था. मुझे एक औपचारिक नमस्ते कर अपने स्कूल बैग सहित एक तरफ चुपचाप बैठ गया. मैंने दीक्षा से इशारों में पूछा, तो उसने संकेत दिया कि इसका मूड ऑफ है पर आप कारण नहीं हैं. थोड़ी देर की चुप्पी के बाद मैंने ही बर्फ थोड़ा,
“बेटा तुम्हारी तैयारी कैसी चल रही है? कोचिंग वाले ठीक से समझातें तो हैं ?”
इतना सुनना था कि बिफर पड़ा,
“खुद तो उन्हें आता नहीं है और चलें हैं मुझे डांटने. ‘आंटी’, आज बॉटनी वाले सर ने कहा कि मेरा कुछ नहीं होने वाला और मैं अपने पापा का सिर्फ पैसा बर्बाद कर रहा हूँ”.
मैंने थैले से गुलाबजामुन का डिब्बा खोला और उसकी तरफ बढाते हुए कहा,
“पहले खाओ फिर देखतें हैं सर ने किस टॉपिक पर तुम्हे ऐसा कहा”, बच्चा अब सब भूल गुलाबजामुन पर टूटा पड़ा था. हॉस्टल में रहने वाला तिस पर बढ़ता लड़का भूख तो बहुत लगती ही होगी. तब तक मैं उसके बैग को खोल उसकी कापियां पलटने लगीं, देखा आज टेस्ट में उसे बेहद कम मार्क्स आयें थें. पर मुझे सुखद आश्चर्य ये हुआ कि मुझे सब कुछ याद था और पूरे कांसेप्ट क्लियर थे मेरे. अभी कुछ महीनों पहले तक तो लाइब्रेरी बंद होने तक मैं दीमक बन यही सब तो चाटा करती थी. जब दरवाजा बंद हो जाता तो कुछ देर खड़ी हिम्मत जुटाती नर्क द्वार पार करने की.
 अचानक उस नर्क की स्मृति ने मुझे मेरे वर्तमान के पलों की अहमियत जता दिया. सामने बैठे आपस में हंसी मज़ाक करतें गुत्थम-गुत्था होते युवा समवयी और ‘मैं’.
क्या छोड़ कर आई थी? कुछ नहीं
कौन था मेरा? कोई नहीं
अतीत का कोई धागा जो मुझे कहीं खींचे? कहीं नहीं
 फिर जो समक्ष है वही सत्य है और जो जिम्मेदारियां हैं वहीँ सुखद है. इनसब के बीच मेरी उम्र कोई मायने नहीं रखती. जन्म से रिश्तों की क्षुधातुर ‘मैं’ मेरे समक्ष तो अब छप्पन भोग थाली है, अब छक कर रिश्तों को जियूंगी.
  उस दिन शाम को मैं अक्षित को ले होटल के कमरें में देर रात तक टेस्ट के प्रश्नोत्तर पर चर्चा करती रही. विगत जीवन में मैंने कभी शिक्षक बनने का स्वप्न देखा था, आज मानों साकार हो रहा था. अक्षित मुझसे पूछता जा रहा था और मैं अपने ज्ञान पिटारे को खोल उसकी क्षुधा शांत करती जा रही थी. सिर्फ वनस्पति विज्ञान ही क्यूँ मेरी पकड़ तो रसायन और जीव विज्ञान पर भी थी. देर रात जब दीक्षा बगल के बिस्तर पर गहरी नींद में सोयी हुई थी, अक्षित अचानक मेरा हाथ पकड़ कर बोला,
“अरे यार! तुस्सी बड़े ग्रेट हो जी. तुम्हें तो हमारे सर लोगो से ज्यादा नॉलेज है. ऐसा करो तुम यहीं रह जाओ न, तुम्हारे साथ  मैं रहा तो इस मेडिकल एंट्रेंस नाम की परीक्षा यूं चुटकियों में पार कर जाउंगा.  ग्रेट हो जी तुम तो......”. अक्षित बोले जा रहा था और मैं एक राहत की सांस. तभी दीक्षा उठ बैठी,
“अक्षित कैसे बोल रहे हो ? ये क्या दोस्त हैं तुम्हारी?”
“तो तो .. आंटी, हाँ आंटी अब ठीक ना?” अक्षित ने मुझे देखते हुए कहा.
“मुझे माँ बोलो, मैं तुमदोनो की माँ ही हूँ. मुझे ख़ुशी होगी सुन कर”, मैंने उसके बालों में हाथ फिराते हुए कहा.
बैठा रहा गुमसुम सा बहुत देर तक, भोला मासूम सा सर झुकाए. बहुत देर बाद सर उठाया तो कहा,
“एक बार मैंने महेश अंकल के सामने अपनी मम्मा को, ‘मम्मा’ बोल दिया था तो वह बहुत नाराज हुईं थीं.....”.
अचानक याद आ गयी अपनी वो चचेरी बहन जो मुझसे सीधे मुहं बात नहीं करती थी. उसे भी ऐसे ही एक दिन पढ़ा रही थी कि चाचीजी ने आ कर किताब फ़ेंक दिया और कहा कि
“खबरदार जो इस अभागी के साथ दुबारा सर जोड़े बैठे देखा”. आंसू मेरे भी टपक पड़े उन दोनों के साथ.
“जाने दो बेटा होगीं कुछ उनकी मजबूरियाँ. माफ़ करों उन्हें और भूल जाओ. पर अब तो मैं ही तुम्हारी माँ हूँ और बोलो मुझे ‘माँ’ मेरे भी कान तरस रहें हैं ये सुनने”.
  दुसरे दिन सुबह सुबह अक्षित अपने हॉस्टल लौट गया था. मैं बाथरूम जाने को उठी ही थी कि मुझे जोरों से चक्कर आ गयी. आँख खुली तो देखा दीक्षा के साथ एक डॉक्टर बैठे हें हैं जो उसे कुछ टेस्ट्स कराने बोल रहें थें. अगले तीन दिनों तक हम उसी होटल में ठहरें रहें और दीक्षा मेरी सारी  टेस्ट्स वहीँ कोटा में करवाती रही. दीक्षा के पापा भी इस बीच आ चुके थें. अक्षित स्कूल के बाद हर दिन आ जाता और देर रात तक मुझसे पढ़ते रहता. वह बार बार मुझसे नहीं लौटने की जिद्द कर रहा था क्यूंकि उसके मुताबिक मैं उसके कोचिंग के अध्यापकों से कहीं बेहतर समझाती और पढ़ाती हूँ. दीक्षा के पति के फोन आने शुरू हो गए थें, परन्तु तेवर तो वहीँ थें. अब वह धमकियां दे रहा था कि यदि वह वापस नहीं लौटी तो उसे गंभीर परिणाम झेलने होंगे. दीक्षा अपनी परेशानियों में अधीर हो गुमसुम सी रहने लगी थी.
उस दिन मेरे टेस्ट्स के रिपोर्ट आ गए थें. इनकी गंभीर भाव-भंगिमा मुझे डरा रही थी. चेहरें के बदलते भावों को जज्ब कर इन्होने मुझे कहा,
“अनुभा तुम्हारे लिए खुश खबरी है, तुम माँ बनने वाली हो”.
“क्या आपके लिए नहीं?”, अपनी अंदाजा को डॉक्टरी रिपोर्ट्स से सच होता देख मैंने पूछा.
“तुम देख रही हो मेरे पहले से ही दो युवा बच्चें हैं, तिस पर दोनों की परेशानियां चल रहीं. इनसब के बीच .... मेरा फिर से बाप बनना क्या शोभा देगा? मैंने तो भरसक चाहा था कि ये नौबत ना आये, पर चलो जब शादी किया है तो बच्चे भी होंगे”. कहते हुए ये कमरे से बाहर निकल गए.
सच कहा जाये तो मुझे भी कुछ खास अनुभूति नहीं हुई थी, मैं भी दिल से इस स्तिथि को टालना ही चाह रही थी. जो सुख मुझे दीक्षा और अक्षित के सानिध्य में मिल रहा था कहीं इस के आने से उसमें बाधा न पड़ जाये. फिर भी मन का एक कोना तो झंकृत हो चुका था एक नन्हे मुन्ने की आहट से ही. मैंने खिड़की से झाँका देखा ये होटल की लॉन में हैरान-परेशान हो सिगरेट पर सिगरेट फूँक रहें थें, इनकी विवशता मैं बाखूबी भांप रही थी. मैंने इन्हें कभी सिगरेट पीते नहीं देखा था. इस बीच दीक्षा और अक्षित भी स्तिथि को समझ चुके थें. दोनों ही उठ कर कमरे से बाहर चले गएँ थें.
मैंने अपने पेट पर हाथ फिराया, एक नवीन स्पंदन एक नयी अनुभूति से मन सराबोर हो उठा. उफ़! क्या करूँ बच्चा? तुम्हारे आने से शायद जीवन की जटिलताएं बढ़ जाएँगी. पर पर ...मेरी प्राथमिकतायें कुछ और हैं. तुम एक अनचाहे-बिनबुलाये आगत हो. अभी मैं ख़ुशी और सोच के भंवर में डूब-उतरा ही रही थी कि दीक्षा की सिसकियों ने मेरा ध्यान भंग कर दिया.
“रविश तुम ऐसा कैसे कर सकतें हो? तुम अपनी माँ को समझाओं, मैं अपना इलाज़ ही करवा रहीं हूँ. मुझे थोड़ा वक़्त दो.....”, दीक्षा फोन पकड़ रविश से कह रही थी.
भावनाओं का एक बड़ा सा समंदर पास से हो कर गुजर गया. ऊँची ऊँची ज्वार, भाटे में बदल लौटते वक़्त सीप-मोतियों के ढेर किनारों पर अलंकृत कर जा चुके थें. मैं हमेशा ईश्वर से अपने होने का मकसद पूछती रहती थी. अपनी बेमकसद जिन्दगी के अनसुलझे सिरे अब मुझे सुलझते दिखते महसूस हुए. मैंने आवाज दे अक्षित को कहा कि अपने पापा और दीदी को बुला लें. मैंने मन कड़ा कर एक प्रस्ताव उनके बीच रख दिया. बात ही कुछ ऐसी थी कि सब सन्नाटें की गिरफ्त में आ गएँ.
“हाहा, ये तो बड़ा ही मजेदार है यार, तुस्सी तो जादू की छड़ी हो”, सर्वप्रथम अक्षित की ही प्रतिक्रिया आई. फिर किसी को कुछ ना कहने की शपथ लेता वह उछलते-कूदते अपने हॉस्टल लौट गया.
उसके पापा मुझे अभी भी विस्फारित नयनों से देखते हुए सोच में डूबे हुए थे. अविश्वास की परतें उनकी आँखों में स्पष्ट लक्षित था. दीक्षा का चेहरा अभी तक आंसुओं से सिक्त था. तलाक की बात उठा रविश ने उस पर गहरा वार किया था. शायद वह कुछ सोचने समझने की भी अवस्था में नहीं थी. मैंने दीक्षा को पास बिठाया और उसका हाथ अपने पेट पर रखते हुए कहा,
“ये आज से तुम्हारा बच्चा हुआ”.
“परन्तु रिश्तें में तो ये भाई या बहन ही होगा मेरा....”
“मैंने एक कहानी पढ़ी थी जब अपनी बिन ब्याही बेटी की औलाद को एक माँ ने अपनी औलाद बता दुनिया के सामने उसे जन्म देने का स्वांग किया था. हम भी कुछ ऐसा ही करेंगे. बेहद सावधानी पूर्वक ताकि तुम्हारे ससुराल वालों को शक ना हो”. मैंने कहा.
“क्या ये संभव है?”, बाप-बेटी दोनों ने एक साथ पूछा तो मेरी हंसी निकल गयी. माहौल अब हल्का हो चला था. दीक्षा की आँखों में एक चमक आ गयी थी.
“अनुभा तुम सिर्फ उम्र से छोटी हो, परिपक्वता तो तुममें सुलभा से कई गुणा ज्यादा है”, कहते हुए ये दूसरे कमरे में चलें गएँ. मैंने देखा सिगरेट की डिब्बी यहीं छूट गयी थी.
अब अपने आगे के नौ महीने के अज्ञातवास की भी हमें पूरी तयारी करनी थी. एक भी चूक दीक्षा की गृहस्थी के लिए घातक होती.
उसी रात को दीक्षा ने रविश को बताया कि वह मेरे साथ जल्द ही सिडनी, ऑस्ट्रेलिया जाने वाली है. वह पहले भी अपने पापा के साथ घूमने जा चुकी थी. संयोग से उसका पासपोर्ट उसके साथ ही था. उसने उसे बताया कि वह वीसा के सिलसिले में दिल्ली जा रही है. रविश का गुस्सा सातवें आसमान तक जा पहुंचा था कि दीक्षा ने उसे खबर दिया कि आज ही उसे जोरो से चक्कर और उल्टियां भी आयीं हैं. उसे किसी खुश खबरी का अंदेशा लग रहा है. वीसा के चक्करों से आज़ाद होते ही वह अपने टेस्ट्स करवा लेगी. रविश के आग-मिजाज़ पर शीतल जल का छिडकाव हो गया मानों.
   अगले कुछ दिनों में हमने कोटा में ही एक अच्छे से किराये के घर की व्यवस्था कर लिया. वहां वैसे भी हम अजनबी थे. मेरा काम हो चुका था. मैं अब ज्यादा से ज्यादा अक्षित की पढाई और मेडिकल की प्रवेश परीक्षा पर ध्यान दे रही थी. अब वह हॉस्टल छोड़ घर पर ही रहने लगा था. दीक्षा और उसके पापा मेरा खूब ध्यान रख रहें थें. वे हमेशा आते-जातें रहते. दीक्षा की जिन्दगी में अब पासा पलट चुका था. अपनी गर्ववती होने की खबर देने के बाद वह, एक तरह से उनसे खुद को पूरी तरह से काट लिया था. रविश हमेशा उतावला रहता उससे बातें करने. अपनी माँ के साथ वह कई बार घर आ कर दीक्षा के पापा से माफ़ी और उसका ऑस्ट्रेलिया का नंबर मांग चुका था. इसका हल दीक्षा ने इ-मेल के जरिये संपर्क कर निकाला था. काफी सफाई से वह मेरे नाम को फोटो-शॉप कर अपना मेडिकल रिपोर्ट उन्हें भेज देती.
  कोटा में बितायें वो वक़्त मेरी जिन्दगी के सर्वश्रेष्ठ पल थे. मैं अपना पसंदीदा कार्य ‘अध्यापन’ कर रही थी. मेरे अपने मेरे आस-पास थे. जो मुझे इतना प्यार दे रहें थें कि मैं कभी कभी भाव-विभोर हो उठती. जिन्दगी ने अब तक जिस चीज से मुझे महरूम किया हुआ था वो अब छप्पर फाड मुझ पर नेमत बन बरस रहें थें. नवां महिना सिर्फ अक्षित के लिए ही परीक्षा की घडी नहीं थी बल्कि मेरे और दीक्षा के लिए भी थें.
  कोई दस महीनों के बाद दीक्षा गोद में एक गुडिया सी बच्ची ले मेरे संग लौटी थी. सच हमने एक अज्ञातवास ही काटा था. हमारे लौटने के कुछ दिनों के बाद रविश उतावला हुआ आया था,
“अरे दीक्षा तुम कब लौटी ? मुझे बताया तक नहीं....”, उसकी नज़रें बच्ची को तलाश रही थी. मैंने दीक्षा की हथेलियों को दबा, भावनाओं पर काबू रखने का संकेत दिया.
“क्यूँ रविश जी आप तो मेरी बेटी को तलाक देने की बात कर रहें थें, अब बेटी का बाप बनते ही प्यार का उद्द्वेग आने लगे”, मैंने तंज कसा था.
कोई महीने भर की बच्ची को ले दीक्षा अब अपने घर जाने वाली थी. बीतें महीनों में उसने एक माँ की तरह मेरी देख-भाल किया था. अभी भी सबको मेरे लिए दिशा-निर्देश दे ही रही थी.
“रविश मैं एक शर्त पर तुम्हारे साथ चलूंगी कि मैं हर दिन अपने घर जरूर आउंगी, जब तुमने मुझे त्यागा था तो यहीं मुझे सहारा मिला”,
उसने कहा तो मैं मुस्कुरा उठी कि मैं बेटी को उसका हक-अमृतरस दे सकूँ इसके लिए दीक्षा ने कैसी शर्त रखी थी. शायद वह क्षण हमारे परिवार के सुखदतम् क्षणों में एक होगा क्यूंकि उसी वक़्त अक्षित का फोन आया कि उसका चयन देश के एक प्रमुख मेडिकल संस्थान में हो गया है.
“माँ मेरा चयन हो गया , माँ मैं सफल हो गया माँ-माँ .....”, अब तक यार, बड्डी या आंटी कहने वाला मेरा बेटा मुझे ‘माँ’ बोल रहा था. ख़ुशी के अतिरेक में मेरे अश्रु दृग द्वार की बंधन तोड़  भावनाओं से ओत-प्रोत किसी सौन्दर्य-प्रसाधन की तरह मेरे चेहरे की चमक द्विगुणी कर रहें थें.
“बेटा अब तुम जल्दी से घर आ जाओ, आज तुम्हारी दीदी भी तुम्हारी भांजी को ले लौट रही है. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती”, अविरल आंसुओं के बीच मैंने कहा.
...... जाने कब ये अपने फाइल समेट मेरे पहलू में आ बैठ गएँ थें.
“अनुभा तुमसे शादी करना मेरी जिन्दगी का सबसे सही फैसला था”, कहते इन्होने मुझे अपनी बाहों में समेट लिया. मैंने भी मुठ्ठी भींच सारी खुशियों को कैद कर लिया. अलग अलग मरुभूमियों में उगे दो छोटे-बड़े कैक्टस अब सुंदर विविध रंगों के फूलों और फलों से लदे वृक्ष में परिवर्तित हो चुके थें क्यूंकि सारे कांटें तो अब पुष्प-गुच्छ बन सुवासित हो रहें थें.   


    


Comments

  1. Bahut Din baad Ek achhi Story Padhne ko mili , Superb 👌👌👏👏

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    1. धन्यवाद मंजुल जी

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