बाबा ब्लैक शीप vanita अप्रैल २०१७ published

कहानी  -                                       द्वारा RITA GUPTA
 हर दिन सुबह चाय का कप हाथ में ले मैं अखबार हमेशा खेल समाचार वाले पन्ने से शुरू करता हूँ. कारण वही डर कि न जाने सुबह सुबह किस बुरी नकारात्मकता से मुलाकात हो जाये. आखिर में पहले पन्ने पर भी आना तो पड़ता ही है और दुनिया भर की बदसूरती और विकृतियों से मुलाकात करता हूँ. आज भी इससे पहले कि मैं पहले पन्ने पर जाऊं, खेल समाचार पढ़ते हुए मैं अंतिम पन्ने पर नज़र फिराने लगा कि एक समाचार पर दिल बैठ गया. खबर थी, 
“ दूरदर्शन के रिटायर्ड निदेशक का शव ठेके पर मिला, बेटे ने अमेरिका में फोन तक नहीं उठाया”. 

फोटो देख मन सहम गया, शायद मैं इन्हें अच्छे से जानता था. नाम देखा, श्री रामेंद्र सरीन. मेरा मन कसैला सा हो गया. अब मन को और कडु़वा करने प्रथम पृष्ठ तक जाने की हिम्मत ही नहीं हुई.
    वर्षों पहले बरेली के वो दिन याद आ गएँ. जब सरीन अंकल बरेली दूरदर्शन में एक उच्च पदस्थ अधिकारी हुआ करतें थें और हमारे पड़ोसी भी. इतने उच्च पद पर थें कि उनके घर में तीन-चार नौकर काम करतें थें और बड़ी सी चमचमाती गाड़ी दरवाजे पर खड़ी रहती थी. उनका बेटा, समर्थ  जिसका जिक्र आज के अखबार में नकारात्मक रूप से आया हुआ है मेरे ही उम्र का था और हम क्लासमेट थे. जब सरीन अंकल की पोस्टिंग बरेली हुई थी तो उन्होंने एड़ी चोटी एक कर समर्थ को उस अंग्रेजी स्कूल, जहाँ मैं पहले से पढ़ रहा था, में दाखिला दिलवाया था. मुझे याद है समर्थ ने स्कूल में दाखिले की परीक्षा पास नहीं की थी. सरीन अंकल के लिए वो हेठी की बात हो गयी थी, आये दिन वे हमारे घर आते और अपनी बेबसी का जिक्र करतें कि किसी तरह उनके इकलौते बेटे का उस मंहगे- अंग्रेजी स्कूल में दाखिला हो जाता. मेरे पिताजी ने कहा भी, कि न हो तो पास वाले दूसरे स्कूल में फिलहाल नाम लिखवा दें और अगले साल फिर कोशिश करें. पर सरीन अंकल को ये बात चुभ गयी कि उनका बेटा शहर के सबसे अच्छे स्कूल में ना पढ़ पाए. फिर उन्होंने किसी तरह अपनी बड़ी पोस्ट और बड़ी सिफारिशों के दम पर समर्थ को उस स्कूल में दाखिला दिला के ही दम लिया था.
 समर्थ सीधा-साधा कोमल ह्रदय का संवेदनशील लड़का था. गणित और विज्ञान में उसका मन नहीं रमता था. उसे भाषा से प्यार था, हिंदी व् अंग्रेजी में उतनी छोटी उम्र में सुंदर कवितायें रचता था. उत्कृष्ट पेंटिंग्स बनाता था. इतिहास की इतनी गहरी जानकारी थी कि चाहो कोई प्रसंग पूछ लो. इसी तरह उसका साहित्य प्रेम भी उम्र के हिसाब से बेजोड़ दिखता. हम जब मैदान में गेंद के पीछे पसीना बहा रहें होते वह दीमक बना लाइब्रेरी में पुस्तकें चाट रहा होता. कोमल ह्रदय का समर्थ जिसका आज अखबार में जिक्र है पाषण ह्रदय में कैसे तब्दील हो गया, मुझे बेहद दुःख हो रहा है क्यूंकि शायद अब मैं समझ रहा हूँ. उन पुराने दिनों के पल छिन एक एक कर स्मृतियों के झरोखें से झाँकने लगें. अब जब मैं खुद अधेड़ हो चला हूँ तो सारी बातों की कड़ियाँ जोड़ने में शायद सफल हो जाऊं.
   मुझे याद आ रहा शायद हम कक्षा आठ या नौ में रहें होंगे जब समर्थ ने राज्य स्तर पर एक पेंटिंग प्रतियोगिता जीती थी. उसे राष्ट्रीय स्तर पर जाना था. उसी दौरान अर्ध वार्षिक परीक्षा के परिणाम आये थे. सामान्य अंकों से पास हो उसने अपने पसंदीदा विषयों में परन्तु अधिक मार्क्स पायें थें. उसी शाम जब मैं खेलने के लिए समर्थ के घर पहुंचा तो देखा कि उसकी बनायीं हुई सारी पेंटिंग्स की चिन्दियाँ पूरे घर में उड़ रही थीं. ब्रश टूटे और रंग की बोतलें उलटी हुईं थीं. यहाँ तक कि उसकी लिखी कविताओं की कॉपी भी उन्हीं फटे हुए बिखरे सपनों बीच, टुकड़ों टुकड़ों में पनाह खोज रही थीं. समर्थ सबके बीच निश्छल बैठा फटी फटी आँखों से गुजरा हुआ तूफान देख रहा था. मुझे लगता है, पाषाण बनने की दिशा में ये उसका पहला कदम था. इतने ऊँचे पद पर आसीन व्यक्ति का बेटा एक पेंटर या कवि कैसे बन सकता था? उसे तो ऐसी पढाई करनी थी जिसमें खूब पैसा हो, जिससे कि समाज में उनका कद ऊँचा हो.
  उस दिन से मछली को पेड़ पर चढ़ाने की कवायद शुरू हो गयी थी. मुझे तो लगता है समर्थ के दिल-दिमाग सब पर कब्ज़ा कर, सरीन अंकल उसे इंसान से मशीन बनाने की ही तैयारी की थी. हमारे घर का माहौल थोड़ा दूसरा था हम तीन भाई-बहन थें. हमलोग दादा-दादी के संग ही रहतें थे. दादाजी बीच बीच में कुछ दिनों के लिए गावं जातें कभी कभी. घर में मामा, चाचा, मौसी, फुआ इत्यादि का भी हमेशा आना जाना लगा रहता. उसी में पढाई भी होती, चचेरी बहन की शादी भी उसी में घर से निपटा दिया जाता. मम्मी नानी के बीमार होने पर ननिहाल भी चली जाती और हमारी दिनचर्या भी चलती रहती. चाहे इम्तहान हो या बीमार हो हर रात हम तीनों भाई-बहन हर रात पापा के पैर और सर दबाने की होड़ नहीं छोड़तें थें.
  शनैः शनैः समर्थ का मशीनीकरण होता रहा. अब वह अपने सारे पुराने जन्मजात ऐब त्याग पढाई के प्रति समर्पित था. जब वह पढ़ता तो उसके चारों नौकर दबें पावं चलतें, उसकी मम्मी टीवी नहीं चलाती कि कहीं उसका ध्यान न भंग हो जाये. वह मुझसे पूछता कि मैं घर में इतनी भीड़ भाड के बीच कैसे पढ़ लेता हूँ. मुझे लगता भीड़, भीड़ कहाँ हैं घर पर? वह बताता कि उसके पापा ने सभी रिश्तेदारों को कह रखा है कि उसकी परीक्षा के दौरान उनके यहाँ ना आयें. मुझे बेहद अजीब सा लगा था कि पढाई को इतना हौवा सा क्यूँ बनाया जाता है समर्थ के घर में. पर अब समझ आ रहा कि वह तो उसको संवेदनहीन बनाने की क्लास चल रही थी. हमारे दसवीं की प्री बोर्ड परीक्षा चल रही थी जब उसके दादाजी के गुजरने की खबर आई थी. समर्थ जो दो साल से अपने दादाजी को नहीं मिला था, वह उनकी अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाया.  उसके दादाजी बहुत दिनों से बीमार थें, अकेले एक नौकर के साथ गाँव में रहतें थें. सरीन अंकल समर्थ की परीक्षा के बाद ही उन्हें लाने की सोच रहें थें कि इस बीच वह चल बसे.
  आज अखबार में ये भी खबर छपी थी कि सरीन अंकल के रिश्तेदार, उनके भांजें ने भी मुखाग्नि देने से इनकार कर दिया. तो सहसा मेरी आखों के समक्ष वह प्रसंग आ गया जब समर्थ ग्यारहवीं में था और उसके घर में उसे आईआईटी में प्रवेश दिलाने हेतु धारा १४४ लागू थी. उसकी बुआ आई हुई थीं जिनके बेटे का भी ग्यारहवीं में बरेली में एक अच्छे स्कूल में दाखिला हुआ था. वे चाह रहीं थी कि उनका बेटा अपने मामा के घर पर रह कर दो साल पढता, क्यूंकि हॉस्टल में प्रबंध अच्छा नहीं था. परन्तु सरीन अंकल ने साफ़ मना कर दिया था कि उनके बेटे की पढ़ाई डिस्टर्ब होगी. शायद रिश्तों की किताब समर्थ ने कभी पढ़ी ही नहीं थी.
 उसका खैर आईआईटी  में तो नहीं हुआ था अलबत्ता दक्षिण के एक प्राइवेट इंजीनियरिंग संस्थान से उसने डोनेशन के बल पर डिग्री हासिल किया. फाइनल इयर था जब उसकी मम्मी को कैंसर हो गया था, उसे उस वक़्त भी उसके पापा ने आने से मना किया कि इम्तहान के बाद ही वह घर आये. उसी दौरान वह मुझे फ़ोन किया करता था. माँ की बीमारी को सुन वह अंदर तक हिल गया था, उसे अपनी माँ से मिलने उसके गले लगने की हार्दिक इच्छा हो रही थी. पर सरीन अंकल को लगता कि आने जाने में वक़्त बेकार होगा और उसकी पढ़ाई का नुकसान भी. आंटी के देहांत का सुन मैं भी घर गया था, उस वक़्त मैं दिल्ली में पत्रकारिता का कोर्स कर रहा था. समर्थ मुझसे गले मिल बहुत रोया था और उसी वक़्त अपने पापा के प्रति उसके मन में घृणा के भाव अंकुरित होने लगे थें. अंकल ने उसी दौरान मुझसे हिकारत भरी नज़रों से पूछा भी था,
“इस कोर्स को कर तुम कितना कमा लोगे?”
समर्थ को अपनी ओर जबरदस्ती उन्होंने खींचते हुए कहा कि,
“ मैं तो अगले वर्ष समर्थ को आगे की पढाई के लिए अमेरिका भेज रहा हूँ”, गर्व से उनका चेहरा दिपदिपा रहा था. ये बात समर्थ के लिए शायद अप्रत्याशित थी,
“पापा, मैं आपको छोड़ विदेश नहीं जाऊंगा....”, उसने हकलाते हुए कहा था.
“नहीं, मैंने फैसला ले लिया है. वहां पर पढाई कर जब वहां नौकरी करोगे तो तुम्हे बड़ी पैकेज वाली नौकरी लगेगी. यहाँ सालों गुजर जायेंगे एडियाँ घिसते उतना पाने में”, पता नहीं क्यूँ मुझे लगा कि अंकल मुझे ही लक्षित कर बोल रहें हैं. मुझे तो अब महसूस होता है कि एक अच्छे भले संवेदनशील इंसान के ह्रदय को पाषाण बनाने की ये एक मजबूत कड़ी थी. बाद के वर्षों में पापा रिटायर हो कर मेरे साथ ही ज्यादातर दिल्ली मेरे संग या यूं कहें कि मैं उनके साथ ही हमेशा रहा. हां, बचपन में पैर दबाने वाली होड़ अब भी थी हम भाई-बहनों में कि माँ-पापा किसके साथ अधिक रहें. समर्थ से ईमेल के जरिये कभी कभार जुड़ा रहा जो बाद में बंद हो गया.
 आज इस खबर के बाद कि सरीन अंकल के मरने पर उनके बेटे ने अमेरिका से आना भी जरुरी नहीं समझा. यहाँ तक कि उसने फोन भी नहीं उठाया. तीन सालों से वह उनसे मिलने भी नहीं आया था और अंकल को किन्ही जान-पहचान वालों ने दो वर्ष पूर्व एक वृद्धाश्रम में भरती कर दिया था.  जहाँ वह खूब दारु पीना शुरू कर दियें थें. आये दिन कहीं नशे में गिरे-पड़े से पाए जाते थें. कोई उनसे मिलने नहीं आता था.....इत्यादि. ख़बरों में आज कल के बच्चों को लक्षित कर खूब कोसा भी गया था जो अपने वृद्ध होते माँ-बाप की देख भाल नहीं करतें हैं. उनकी संवेदनहीनता पर सवाल भी उठाया गया था. घटना कल की थी क्यूंकि आश्रम वालों के द्वारा ही दाह-संस्कार करने की खबर भी छपी थी.
थोड़ी कोशिशों के बाद मुझे समर्थ का ई मेल आईडी मिल गया. मैंने उसे अंकल की मौत का अफ़सोस के साथ न्यूज़ पेपर की फोटो और अपने फोन नंबर को मेल कर दिया. अंदर से गुस्सा सा महसूस हो रहा था समर्थ के प्रति जो मेल करने के बाद कुछ शांत हो गया. आश्चर्यजनक रूप से कुछ ही देर में समर्थ का फोन आया.
“पापा का देहांत हो गया, मुझे तो पता ही नहीं था. पापा के पास तो मेरा नंबर ही नहीं था, जाने किस नंबर पर फोन करने की वे लोग कह रहें हैं?”, लगातार रोते हुए समर्थ की बातों से मेरा मन भर आया.
“जानतें हो चार साल पहले पापा यहाँ मेरे पास आयें थें, जब उन्हें पता चला कि एम्एस करने के पश्चात् नौकरी करने की जगह एक गिटारिस्ट बन गया हूँ और उनसे पूछे बिना एक अमेरिकन लड़की से शादी कर चुका हूँ, तो उनके क्रोध का पारावार नहीं था. जानते हो, मैंने मेरीषा के संसर्ग में ही जिन्दगी कैसे खुल कर जी जाती है सीखा, खुश कैसे रहा जाता है ये जाना. रंगों और कविताओं से तो पापा ने बचपन में नाता तुड़वा दिया था पर संगीत का बीज मेरे अंदर सुसुप्त अवस्था में है मुझे अच्छी गिटारिस्ट मेरीषा से मिल कर ही पता चला”, मैं समर्थ की बातें सुन रहा था.
“बहुत ही ज्यादा नाराज हो कर वे लौटे थे, मेरीषा के सामने ही उन्होंने मुझे थप्पड़ों से पिटाई भी किया था. उन्हें ये बर्दास्त ही नहीं हो रहा था कि इतने उच्च पदस्थ व्यक्ति का बेटा एक भाडं बन गया है. जो अपनी जिन्दगी के फैसले खुद लेने लगा है”, समर्थ अपनी दलीलें दे रहा और रों भी रहा था.
“मैं फिर गया था भारत, उनसे मिलने मुझे मालूम था कि जैसा उनका व्यवहार रहा है देश में कोई ना होगा उनके पास, अवकाश प्राप्ति के बाद. मैंने उन्हें अपने साथ अमेरिका लाने का भी प्रयास किया पर जानते हो उन्होंने क्या किया? उन्होंने मेरे मुहं पर थूक दिया और कहा कि मैं उनके लिए मर चुका हूँ”.
“सच मैं उसी वक़्त मन ही मन उनका तर्पण कर आया. उसी वक़्त दे दिया अपने मन से उनको पिंड दान और लौट आया, फिर कभी उनसे नहीं मिला. जग के लिए वे कल मरें होगें पर मेरे लिए वे कब का दुनिया छोड़ चुकें हैं. उम्मीद है तुम मुझे गलत नहीं समझोगे”, कहते उसने एक दीर्घ सांस ले फोन काट दिया.
 समर्थ का फोन कट चुका था पर उसके शब्द अब तक गूँज रहें थें....
 काश कि सरीन अंकल अपने बेटे को बाबा ब्लैक शिप और ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार के साथ रिश्तों का पाठ भी सीखाया-पढ़ाया होता. काश! कि अंकल ने रिश्तों का अर्थ अपनी करनी द्वारा अपने बेटे को भी सिखाया होता. आज उनके पीछे रोने वाला कोई नहीं है, काश कि बेटे को रोबोट की जगह एक इंसान बनाया होता. लोग बाग़ अखबार वालें समर्थ को जितना कोस लें पर औलाद ही हमेशा गलत नहीं होती है. सरीन अंकल अपनी ही बोई फसल काट कर गएँ हैं.






Comments

Popular posts from this blog

कहानी—“हम-तुम कुछ और बनेंगे” published in grih shobha jan 1st 2017

दुल्हन वही जो पिया मन भावे सरिता नवंबर सेकंड

अहिल्या गृहशोभा september second 2020

"भैया मुझे कुछ कहना है" दैनिक भास्कर मधुरिमा २४/०८/२०१६

एक लोटा दूध

इश्क के रंग हज़ार madhurima bhaskar 08/02/2017

#METOO

कोयला भई न राख फेमिना जनवरी २०१९