रक्षाबंधन published in prabhat khabar 07/08/2016


रक्षाबंधन
पिछले तीन-चार या शायद उस से भी अधिक महीनों से भैया ने मुझे फोन नहीं किया था. गाहे बगाहे मैं जब फोन करती, भैया से बातें हो नहीं पाती. भाभी अलबत्ता उनकी व्यस्तता का रोना रोती रहतीं. रक्षाबंधन आ रहा था, मुझे बार बार अपनी बचपन वाली 'राखी' याद आ रही थी. कितना बड़ा त्यौहार होता था तब ये. रक्षा बंधन के लिए मम्मी हमदोनों भाई-बहन के लिए  नए कपडे खरीदती. बाज़ार में घूम घूम भैया की कलाई के लिए सबसे स्पेशल राखी खरीदना. सुनहरी किरणों से सजी, वो मोटे से स्पंज नुमा फूल पर 'मेरे भैया' लिखा होना. समय के साथ राखी के स्वरुप और डिज़ाइन में आज बहुत फर्क आ गया है. अब तो पहले अधिक सुंदर और डिज़ाइनर राखियाँ बाज़ार में उपलब्ध हैं. पर दिल उस पल के लिए तडपता है जब भाई को सामने बिठा मैं खुद राखी बांधती थी. तिलक लगाती, आरती उतराती और मिठाई खिलाती. मम्मी पूरे साल हम दोनों भाई-बहन को एक सा जेब खर्च देती थी, जिसे हम खर्च ना कर गुल्लक में डाल देतें. पर रक्षा बंधन के बाद मेरे गुल्लक में भैया से अधिक पैसे हो जातें. भैया कभी कभी खीजता हुआ बोलता भी था,
"सिर्फ मैं ही क्यूँ पैसे दूँ, ये भी दे मुझे. पांच रूपये की राखी बांधती है और सौ ले लेती है."
माँ हमें त्यौहार की कहानी बताती और भैया को राखी का महत्व. बहन-भाई के रिश्तें समझाती और भैया को उनकी जिम्मेदारियों के प्रति आगाह करती . माँ कहानी सुनाती रहती और मैं भैया के हाथ से नोट छीन झट अपने गुल्लक के सुपुर्द कर आती. फिर भैया मेरे पीछे दौड़ता और मैं जीभ चिढ़ाती भागने लगती.
   यादों का एल्बम बिना छुए पलट चुका था, बचपन के पन्ने फडफडाते हुए यादों की ढेर सारी खट्टी-मीठी गोलियां बिखेर चुका था. हर फ्रेम में मैं और भैया. नन्हे भैया के गोद में मैं, से साथ खेलती तस्वीरों के साथ भैया के सीने से लग रोती बिलखती दुल्हन बनी मैं.  ऐसा महसूस हुआ कि  हाथ बढ़ा इन पलों को वापस खींच लूँ . अब जो पल वापस आयेंगे तो मैं भैया के हाथ से पैसे नहीं खिंचूँगी, बल्कि उनसे ले वापस उनके पॉकेट में ही धर दूंगी.
   माँ के साँझा आँगन से निकल अब हमदोनों की  ही अपनी अपनी दुनिया है, अपनी अपनी घर-गृहस्थी और काम. पर उससे हमारा रिश्ता तो नहीं बदल जाता. काम  तो मैं भी करती हूँ पर भैया  ने मानों व्यस्तता की ढाल बना ली है. जिसकी आड़ में वह रिश्तों के बंधनों से पनाह चाहतें  हो जैसे. शायद मेरी सोच गलत होगी, भैया की होगी कोई विवशता पर... पर ....क्या साल में एक दिन भैया मुझे तवज्जो नहीं दे सकतें. क्या माँ की सिखाई बातें अब उसे याद नहीं आती होंगी?
   सही सब सोचते सोचते मैंने निर्णय लिया कि इस वर्ष मैं भैया को राखी नहीं भेजूंगी. पिछले वर्ष तो भैया ने पावती की खबर तक नहीं दिया था. राखी के दिन हार कर दोपहर में मैंने फोन किया तो भैया बोले,
"अभी रख मैं एक जरूरी मीटिंग में बैठा हुआ हूँ"
"भैया राखी.....? ",  उस जल्दी में भी मैंने पूछ ही लिया.
" वो सब शाम को अब, तू रख मैं फोन  करता हूँ".
शाम को भैया का फोन ना आना था ना आई, मैं सोचती रह गयी कि मेरी राखी उन्होंने बाँधी  भी होगी कि नहीं. अब बड़े सीनियर अफसर हैं क्या पता शर्म आती होगी. पर मैंने तो अपने दफ्त्तर में सभी बड़े-छोटे पुरुष कर्मियों को पतली रेशम की तार वाली राखियाँ बांधे हुए देखा था.
  जो  हो, मुझे इस वर्ष राखी खरीदनी भी नहीं थी  किसी को भेजनी भी नहीं थी. यही मेरा निर्णय रहा.
रक्षाबंधन वाले दिन अलबत्ता सुबह  उठ, नहा-धो पूजा करने बैठी तो भैया की फिर बहुत याद आ गयी. मुझे लगने लगा कि क्यूँ नहीं मैंने राखी भेजा. जाने भैया किन परेशानियों से दो चार हो रहें होंगे, कम से कम मेरे रक्षा सूत्र उनकी रक्षा तो करतें. मेरी रुलाई छूट गयी. आंसू पोंछ मैंने भैया की लम्बी उम्र के लिए दुआएं मांगी और साथ ही साथ माफ़ी भी.
   उस दिन मेरे दफ्तर की  छुट्टी  थी, सो पति को भेजने के बाद मैं अनमनी सी इधर उधर हो रही थी घर में. जाने क्यूँ एक अनजाना सा इन्तजार बना हुआ था,  कि तभी कॉल बेल बजी देखा कूरियर वाला था, भेजने वाले का नाम देखा तो भैया का  था. मेरा दिल बल्लियों उछल पड़ा. खोला तो एक बेहद ख़ूबसूरत सी ड्रेस  थी बिलकुल वैसी ही जो मैंने पिछले दिनों मॉल में देखा था और काफी उलट-पलट कर नहीं लिया था. इस बीच ये भी घर जल्दी आ गएँ थे पर मैं तो ड्रेस  में ही खोयी हुई थी. भैया को फोन लगाती हूँ, अभी सोचा ही था कि भैया का फोन आ गया.
"अरे छुटकी कैसी हो ? तुम्हारा भेजा राखी मुझे बस अभी अभी ही मिला. देख मैंने बाँध कर whatsapp पर फोटो भी भेजा है. अब इतनी मिठाई भेजने की क्या जरूरत थी ? पर सारे मेरे पसंद के हैं. खुश रह बहना, चल, फोन रख , अभी मुझे एक मीटिंग में जाना है .....", बोलते हुए भैया ने फोन काट दिया.
मैं  आश्चर्य से हकलाते ही रह गयी, बोल ही नहीं पायी कि मैंने तो इस बार......,
कि अचानक मेरी निगाह अपने पतिदेव की तरफ घूम गयी जो अब एक रहस्यमयी मुस्कान ओढ़े सोफे पर बैठे सुबह की बासी अखबार को पढने का उपक्रम कर रहें थें.
" तुम इतने वर्षों से मेरी दोनों बहनों को मेरे नाम से राखी की सौगातें भेज सकती हो तो मैं तुम्हारी तरफ से अपने साले  साहब को राखी नहीं भेज सकता. फिर तुम दोनों के बीच  की ये नयी नयी उठ रही दीवार को भी ढहना  जरूरी था. भाई भलें बोलें नहीं पर भावनाएं उनमें भी होती ही हैं. चलों अब जल्दी से नयी ड्रेस पहन के भी आओ, रक्षाबंधन के दिन तुम हमेशा नयी ड्रेस पहनती आई हो ना बचपन से".
पति देव बोल रहें थें और मैं भावनाओं की ज्वर-भाटा में डूब उतरा रही थी.
























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